कोश-संग्रह >> बृहत् प्रामाणिक हिन्दी कोश बृहत् प्रामाणिक हिन्दी कोशरामचन्द्र वर्मा
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विद्यार्थी, अध्यापक, लेखक, अनुवादक, संपादक, पत्रकार आदि के लिए अत्यन्त उपयोगी तथा विश्वसनीय आधुनिक संदर्भ कोश....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
1. पूर्णतः संशोधित तथा परिवर्धित।
2. कोश को अधिक उपयोगी तथा अद्यतन रूप देने के लिए प्रशासन, न्याय, राजनीति, वाणिज्य, शिक्षा, साहित्य तथा विज्ञान के क्षेत्रों में प्रयुक्त पांच हजार नवीन शब्दों को इस संस्करण में सम्मिलित किया गया है।
3. हजारों नये शब्द, हजारों शब्दों के नये अर्थ तथा हजारों नये प्रयोग इस बृहत् संस्करण में बढ़ाये गये हैं।
4. इन सभी शब्दों की आचार्य व्याख्या रामचन्द्र वर्मा की चिरपरिचित, सरल तथा बोधगम्य शैली में।
5. नवीन शोध के आधार पर सैकड़ों हिन्दीं की व्युत्पत्ति का नवनिर्धारण।
6. परिशिष्ट में पाँच हजार अंग्रेजी के उपयोगी तथा महत्त्वपूर्ण शब्दों के लिए प्रयुक्त हिन्दी समानार्थियों का चयन।
7. विद्यार्थी, अध्यापक, लेखक, अनुवादक, संपादक, पत्रकार आदि के लिए अत्यन्त उपयोगी तथा विश्वसनीय आधुनिक संदर्भ कोश।
आज-कल संसार में जो भाषाएँ आदर्श रूप में समुन्नत तथा समृद्ध मानी जाती हैं, उन सबकी एक बहुत बड़ी विशेषता यह है कि उनके शब्दकोशों में प्रत्येक शब्द का बहुत ही वैज्ञानिक और व्यवस्थित रूप से सीमाबद्ध और स्पष्ट निरूपण होता है- ऐसा निरूपण होता है कि उसे एक बार अच्छी तरह देख लेने पर उसके अर्थ तथा प्रयोगों के सम्बन्ध में किसी प्रकार के भ्रम या सन्देह के लिए कोई अवकाश नहीं रह जाता। अर्थों के प्रकार के विवेचन से ही भाषा वास्तविक रूप से पुष्ट तथा प्रौढ़ होती है, उसका स्वरूप निखरता है और भाषा सचमुच उन भाषाओं के वर्ग में परिगणित होने के योग्य हो जाती है। हम हिन्दीभाषियों का भी यह प्रमुख कर्त्तव्य होना चाहिए कि हम हिन्दी शब्दों का ठीक और पूरा अर्थ-विवेचन करके उसे भी ऐसे उच्च स्तर तक पहुँचाने का प्रयत्न करें कि वह भी उन्नत भाषाओं के वर्ग में गिनी जाने लगे।
2. कोश को अधिक उपयोगी तथा अद्यतन रूप देने के लिए प्रशासन, न्याय, राजनीति, वाणिज्य, शिक्षा, साहित्य तथा विज्ञान के क्षेत्रों में प्रयुक्त पांच हजार नवीन शब्दों को इस संस्करण में सम्मिलित किया गया है।
3. हजारों नये शब्द, हजारों शब्दों के नये अर्थ तथा हजारों नये प्रयोग इस बृहत् संस्करण में बढ़ाये गये हैं।
4. इन सभी शब्दों की आचार्य व्याख्या रामचन्द्र वर्मा की चिरपरिचित, सरल तथा बोधगम्य शैली में।
5. नवीन शोध के आधार पर सैकड़ों हिन्दीं की व्युत्पत्ति का नवनिर्धारण।
6. परिशिष्ट में पाँच हजार अंग्रेजी के उपयोगी तथा महत्त्वपूर्ण शब्दों के लिए प्रयुक्त हिन्दी समानार्थियों का चयन।
7. विद्यार्थी, अध्यापक, लेखक, अनुवादक, संपादक, पत्रकार आदि के लिए अत्यन्त उपयोगी तथा विश्वसनीय आधुनिक संदर्भ कोश।
आज-कल संसार में जो भाषाएँ आदर्श रूप में समुन्नत तथा समृद्ध मानी जाती हैं, उन सबकी एक बहुत बड़ी विशेषता यह है कि उनके शब्दकोशों में प्रत्येक शब्द का बहुत ही वैज्ञानिक और व्यवस्थित रूप से सीमाबद्ध और स्पष्ट निरूपण होता है- ऐसा निरूपण होता है कि उसे एक बार अच्छी तरह देख लेने पर उसके अर्थ तथा प्रयोगों के सम्बन्ध में किसी प्रकार के भ्रम या सन्देह के लिए कोई अवकाश नहीं रह जाता। अर्थों के प्रकार के विवेचन से ही भाषा वास्तविक रूप से पुष्ट तथा प्रौढ़ होती है, उसका स्वरूप निखरता है और भाषा सचमुच उन भाषाओं के वर्ग में परिगणित होने के योग्य हो जाती है। हम हिन्दीभाषियों का भी यह प्रमुख कर्त्तव्य होना चाहिए कि हम हिन्दी शब्दों का ठीक और पूरा अर्थ-विवेचन करके उसे भी ऐसे उच्च स्तर तक पहुँचाने का प्रयत्न करें कि वह भी उन्नत भाषाओं के वर्ग में गिनी जाने लगे।
रामचन्द्र वर्मा
प्रस्तुत बृहत् संस्करण वर्मा जी के मानदण्डों के अनुरूप तथा वर्तमान
आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है। अंग्रेजी-परस्त
राजनीतिज्ञों की कूटचालों के कारण यद्यपि हिन्दी अब तक भारत की सर्वमान्य
राजभाषा के पद पर आसीन न हो सकी तो भी अपनी अदम्य ऊर्जा के बल पर वह
दिनों-दिन सबल और समृद्ध हो रही है। सौभाग्य से आज उसकी गिनती विश्व की
उन्नत भाषाओं में होने लगी है। साहित्यिक विधाओं की दृष्टि से ही नहीं,
विज्ञान, प्रौद्योगिकी, धर्म, दर्शन, मनोविज्ञान, समाज विज्ञान,
दूर-संचार, अर्थ, वाणिज्य, विधि, प्रशासन आदि सभी क्षेत्रों में जैसी
प्रगति हुई है और जैसा वाङ्मय रचा गया है वह स्तुत्य और अभिनन्दनीय है।
इन महत्वपूर्ण प्रयासों के फलस्वरूप हिन्दी के शब्दभंडार में पिछले डेढ़-दो दशकों में आशातीत वृद्धि हुई है। इस संस्करण में कई सहस्र नए शब्दों को सम्मिलित कर इस कोश को शब्दभंडार की दृष्टि से प्रतिनिधि कोश बनाने का प्रयत्न किया गया है।
इन महत्वपूर्ण प्रयासों के फलस्वरूप हिन्दी के शब्दभंडार में पिछले डेढ़-दो दशकों में आशातीत वृद्धि हुई है। इस संस्करण में कई सहस्र नए शब्दों को सम्मिलित कर इस कोश को शब्दभंडार की दृष्टि से प्रतिनिधि कोश बनाने का प्रयत्न किया गया है।
बृहत् संस्करण की भूमिका
आचार्य रामचन्द्र वर्मा द्वारा सम्पादित हिन्दी कोश का उपयोग पिछले 50
वर्षों से हिन्दी प्रेमी निरन्तर करते चले आ रहे हैं। इस बीच इस कोश के
तीन संस्करण निकले हैं और इन संस्करणों की कई-कई आवृत्तियाँ भी हुई हैं।
शब्दचयन और अर्थ-प्रतिपादन इन दोनों दृष्टियों से यह कोश हिन्दी पाठकों की
आवश्यकताओं और जिज्ञासाओं को सन्तोषजनक ढंग से पूर्ति करने में सफल रहा
है। इस प्रकार कोश-चयन सम्बन्धी वर्मा जी द्वारा अपनाए हुए दृष्टिकोण को
हम सकारात्मक कह सकते हैं।
प्रस्तुत बृहत् संस्करण वर्मा जी के मानदण्डों के अनुरूप तथा वर्तमान आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है। अंग्रेजी-परस्त राजनीतिज्ञों की कूटचालों के कारण यद्यपि हिन्दी अब तक भारत की सर्वमान्य राजभाषा के पद पर आसीन न हो सकी तो भी अपनी अदम्य ऊर्जा के बल पर वह दिनों-दिन सबल और समृद्ध हो रही है। सौभाग्य से आज उसकी गिनती विश्व की उन्नत भाषाओं में होने लगी है। साहित्यिक विधाओं की दृष्टि से ही नहीं, विज्ञान, प्रौद्योगिकी, धर्म, दर्शन, मनोविज्ञान, समाज विज्ञान, दूर-संचार, अर्थ, वाणिज्य विधि, प्रशासन आदि सभी क्षेत्रों में जैसी प्रगति हुई है और जैसा वाङ्मय रचा गया है वह स्तुत्य और अभिनन्दनीय है। इन महत्त्वपूर्ण प्रयासों के फलस्वरूप हिन्दी के शब्दभंडार में पिछले डेढ़-दो दशकों मे आशातीत वृद्धि हुई है। इस संस्करण में कई सहस्र नए शब्दों को सम्मलिति कर इस कोश को शब्दभंडार की दृष्टि से प्रतिनिधि कोश बनाने का प्रयत्न किया गया है।
प्रस्तुत बृहत् संस्करण वर्मा जी के मानदण्डों के अनुरूप तथा वर्तमान आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है। अंग्रेजी-परस्त राजनीतिज्ञों की कूटचालों के कारण यद्यपि हिन्दी अब तक भारत की सर्वमान्य राजभाषा के पद पर आसीन न हो सकी तो भी अपनी अदम्य ऊर्जा के बल पर वह दिनों-दिन सबल और समृद्ध हो रही है। सौभाग्य से आज उसकी गिनती विश्व की उन्नत भाषाओं में होने लगी है। साहित्यिक विधाओं की दृष्टि से ही नहीं, विज्ञान, प्रौद्योगिकी, धर्म, दर्शन, मनोविज्ञान, समाज विज्ञान, दूर-संचार, अर्थ, वाणिज्य विधि, प्रशासन आदि सभी क्षेत्रों में जैसी प्रगति हुई है और जैसा वाङ्मय रचा गया है वह स्तुत्य और अभिनन्दनीय है। इन महत्त्वपूर्ण प्रयासों के फलस्वरूप हिन्दी के शब्दभंडार में पिछले डेढ़-दो दशकों मे आशातीत वृद्धि हुई है। इस संस्करण में कई सहस्र नए शब्दों को सम्मलिति कर इस कोश को शब्दभंडार की दृष्टि से प्रतिनिधि कोश बनाने का प्रयत्न किया गया है।
नए शब्द
पिछले कुछ वर्षों से नित्य प्रयोग में आ रहे उदारीकरण, छद्मयुद्ध जन,
संचार, तालिबान, ध्रुवीकरण, प्रत्यर्पण-संधि, बहुराष्टीय, मानवाधिकार,
यौन-शोषण, विनिवेश, वोट बैंक, सशक्तीकरण, स्वायत्तता आदि हजारों शब्द इस
कोश में पहली बार सम्मिलित किए गए हैं। ऐसे भी सैकड़ों शब्दों को
ढूँढ-ढूँढकर इस कोश में स्थान दिया गया है जो पहले से हमारी भाषा के अंग
हैं परन्तु जिनका आज तक समावेश नहीं हो पाया, जैसे-आक्रमणकारी, आत्मकथ्य,
गुटबाजी, जल-जमाव, जीवनदान, टूट-फूट, दो टूक, दो शब्द, माओवादी,
रचनाधर्मी, रिकार्ड-तोड़, शीलभंग, संज्ञान आदि। इसी प्रकार आंचलिक तथा
प्रादेशिक रचनाकारों के कुछ ऐसे शब्दों को भी इस कोश में स्थान दिया गया
है जो हिन्दी साहित्य में अपना स्थान बना पाए हैं।
समस्त पदों में पूर्वपद या उत्तरपद के रूप में कुछ विशिष्ट शब्दों के योग से बने नए शब्दों की बहुलता भी इस कोश में दर्शनीय है। उदाहरण जन-पूर्वपद और करण उत्तरपद का दिया जा सकता है। जनगणना, जनजाति, जनतन्त्र, जननायक, जनपद, जनप्रिय जनमत आदि समस्त पद तो दर्शकों पहले ही अस्तित्व ग्रहण कर चुके थे। अब जनकल्याण, जन-जीवन, जन-प्रतिनिधि, जनयुद्ध, जन-सहयोग, जन-सम्पत्ति, जन-सामान्य, जनसेवक, जन-संघटन, जन-संचार, जनसम्पर्क, जन-समर्थन, जन-सहयोग, जन-सम्पत्ति, जन-सामान्य, जनसेवक, जन-स्वीकृति, जनहानि, जन हितैषी, जनादेश, जनान्दोलन आदि भी हमारी भाषा में अपना स्थान दृढ़ कर चुके हैं।- करण उत्तरपद के योग से साधारणीकरण, शुद्धिकरण आदि शब्द तो द्विवेदी युग में दिखाई पड़े थे। इसके बाद भी एकीकरण, तुष्टीकरण, राष्ट्रीकरण, श्रेणीकरण, स्पष्टीकरण आदि अनेक शब्द भी समय-समय पर प्रचलन में आए। परन्तु इधर तो अध्यायीकरण, अपराधीकरण, आधुनिकीकरण, उदारीकरण, औद्योगीकरण, एकत्रीकरण, जनतंत्रीकरण, टीकाकरण, तालिबानीकरण, ध्रुवीकरण, निजीकरण, न्यूनीकरण, बाजारीकरण, भूमंडलीकरण, मानकीकरण, यंत्रीकरण, राजनीतिकरण, विद्युतीकरण, विविधीकरण, विशेषीकरण, वैश्वीकरण, संस्कृतीकरण, सर्वव्यापीकरण आदि की जैसे बाढ़ आ गई हो। हिन्दी शब्दों की यह संयोजन क्षमता उसकी अदम्य ऊर्जा की ही परिचायक है।
विज्ञान, प्रौद्योगिकी, वाणिज्य, जन-संचार आदि क्षेत्रों में प्रयुक्त होनेवाले अंग्रेजी भाषा के ऐसे शब्दों को भी इस कोश में स्थान दिया गया है जिनका व्यापक रूप से इधर प्रयोग हो रहा है; जैसे-इलेक्ट्रान, इलैक्ट्रानिक, क्लोन, कैलकुलेटर, न्यूट्रान, प्रोट्रान, माफिया, मीडिया सैक्टर आदि। इसी प्रकार अरबी-फारसी के भी ऐसे शब्दों को लिया गया है जो इधर प्रयोग में आ रह हैं; जैसे-गलतबयानी, जज्बा, जजबाती, दहशतगर्द, दहशतगर्दी, बुरकापोश, लफ्फाज, लफ्फाजी आदि।
पदबन्धों तथा भाषा-प्रयोगों की दृष्टि से हिन्दी अत्यन्त उन्नत तथा सम्पन्न हैं परन्तु दुर्भाग्य यह कि इनके संकलन की ओर हिन्दी के कोशकारों ने सक्रियता नहीं दिखाई। इंच-भर, ऊँची नाकवाला, काली रात, खुली छूट, घूम-फिरकर, टुकड़ों-टुकड़ों में, मर-मरकर, मुट्ठी-भर मुफ्त का आदि सैकड़ों ऐसे प्रयोग हैं जिनको पहली बार इस कोश में स्थान मिला है। यही बात कुछ मुहावरों के सम्बन्ध में भी है। गरमी खाना, जान लड़ा देना, जहर कर देना, ताता लग जाना, दिल मिल जाना, नंगा होकर नाचना, मरे जाना, मार लेना, मुट्ठी में कर लेना, मोहरा बनना ऐसे अनेक मुहावरे हैं जिन्हें अभी तक हिन्दी कोशों में स्थान नहीं मिल पाया था।
यहाँ एक और तथ्य की ओर संकेत करना भी आवश्यक प्रतीत होता है। अनेक विशेषण शब्दों से बनी संज्ञाएँ तथा अनेक संज्ञाओं से बने विशेषण इधर निरन्तर अस्तित्व ग्रहण कर रहे हैं। अनिवार्य से अनिवार्य उपलब्ध से उपलब्धता, नियमित से नियमितता, प्राथमिक से प्राथमिकता, बहुल से बहुलता*, सर्व से सर्वता* आदि संज्ञाएँ चल निकली हैं। इसी प्रकार कम्प्यूटर से कम्प्यूटरी (कम्प्यूटरी साहित्य) जमीन से जमीनी (जमीनी सचाई), परमिट से परमिटी (परमिटी तैल), पाठक से पाठकीय (पाठकीय दृष्टिकोण) मंच से मंचीय (मंचीय वार्तालाप) मैदान से मैदानी (मैदानी गोला) आदि विशेषण भी धड़ल्ले से चल रहे हैं। ऐसे शब्दों के संकलन की ओर भी हमारे नए कोशकारों का ध्यान जाना चाहिए।
इस कोश में पहली बार ऐसे सैकड़ों क्रियी-विशेषण, विशेषण तथा संज्ञा शब्दों की प्रविष्टियाँ मिलेंगी जो सम्बन्धबोधकों की तरह प्रयुक्त होते हैं। ‘विरूद्ध’ को सभी कोशों में विशेषण बतलाया गया है जबकि यह ‘के विरूद्ध’ अर्थात, सम्बन्धबोधक के रूप में ही प्रयुक्त होता है, जैसे-(क) वह आपके विरूद्ध चुनाव लड़ेगा। (ख) मैं उनके विरूद्ध कुछ नहीं कहूँगा। (ग) वे हमारे दल के विरुद्ध अनर्गल प्रचार कर रहे हैं। आगे, पास, सामने आदि क्रिया-विशेषण हैं, अतिरिक्त, अधीन, उपयुक्त आदि विशेषण हैं तथा ओर, जगह, हाथ आदि संज्ञाएँ हैं। परन्तु के आगे, के पास, के सामने, के अतिरिक्त, के अधीन, के उपयुक्त, की ओर, की जगह, के हाथ तो सम्बन्धबोधक है। ऐसे सैकड़ों सम्बन्धबोधकों को इस कोश में स्थान प्राप्त हुआ है।
समस्त पदों में पूर्वपद या उत्तरपद के रूप में कुछ विशिष्ट शब्दों के योग से बने नए शब्दों की बहुलता भी इस कोश में दर्शनीय है। उदाहरण जन-पूर्वपद और करण उत्तरपद का दिया जा सकता है। जनगणना, जनजाति, जनतन्त्र, जननायक, जनपद, जनप्रिय जनमत आदि समस्त पद तो दर्शकों पहले ही अस्तित्व ग्रहण कर चुके थे। अब जनकल्याण, जन-जीवन, जन-प्रतिनिधि, जनयुद्ध, जन-सहयोग, जन-सम्पत्ति, जन-सामान्य, जनसेवक, जन-संघटन, जन-संचार, जनसम्पर्क, जन-समर्थन, जन-सहयोग, जन-सम्पत्ति, जन-सामान्य, जनसेवक, जन-स्वीकृति, जनहानि, जन हितैषी, जनादेश, जनान्दोलन आदि भी हमारी भाषा में अपना स्थान दृढ़ कर चुके हैं।- करण उत्तरपद के योग से साधारणीकरण, शुद्धिकरण आदि शब्द तो द्विवेदी युग में दिखाई पड़े थे। इसके बाद भी एकीकरण, तुष्टीकरण, राष्ट्रीकरण, श्रेणीकरण, स्पष्टीकरण आदि अनेक शब्द भी समय-समय पर प्रचलन में आए। परन्तु इधर तो अध्यायीकरण, अपराधीकरण, आधुनिकीकरण, उदारीकरण, औद्योगीकरण, एकत्रीकरण, जनतंत्रीकरण, टीकाकरण, तालिबानीकरण, ध्रुवीकरण, निजीकरण, न्यूनीकरण, बाजारीकरण, भूमंडलीकरण, मानकीकरण, यंत्रीकरण, राजनीतिकरण, विद्युतीकरण, विविधीकरण, विशेषीकरण, वैश्वीकरण, संस्कृतीकरण, सर्वव्यापीकरण आदि की जैसे बाढ़ आ गई हो। हिन्दी शब्दों की यह संयोजन क्षमता उसकी अदम्य ऊर्जा की ही परिचायक है।
विज्ञान, प्रौद्योगिकी, वाणिज्य, जन-संचार आदि क्षेत्रों में प्रयुक्त होनेवाले अंग्रेजी भाषा के ऐसे शब्दों को भी इस कोश में स्थान दिया गया है जिनका व्यापक रूप से इधर प्रयोग हो रहा है; जैसे-इलेक्ट्रान, इलैक्ट्रानिक, क्लोन, कैलकुलेटर, न्यूट्रान, प्रोट्रान, माफिया, मीडिया सैक्टर आदि। इसी प्रकार अरबी-फारसी के भी ऐसे शब्दों को लिया गया है जो इधर प्रयोग में आ रह हैं; जैसे-गलतबयानी, जज्बा, जजबाती, दहशतगर्द, दहशतगर्दी, बुरकापोश, लफ्फाज, लफ्फाजी आदि।
पदबन्धों तथा भाषा-प्रयोगों की दृष्टि से हिन्दी अत्यन्त उन्नत तथा सम्पन्न हैं परन्तु दुर्भाग्य यह कि इनके संकलन की ओर हिन्दी के कोशकारों ने सक्रियता नहीं दिखाई। इंच-भर, ऊँची नाकवाला, काली रात, खुली छूट, घूम-फिरकर, टुकड़ों-टुकड़ों में, मर-मरकर, मुट्ठी-भर मुफ्त का आदि सैकड़ों ऐसे प्रयोग हैं जिनको पहली बार इस कोश में स्थान मिला है। यही बात कुछ मुहावरों के सम्बन्ध में भी है। गरमी खाना, जान लड़ा देना, जहर कर देना, ताता लग जाना, दिल मिल जाना, नंगा होकर नाचना, मरे जाना, मार लेना, मुट्ठी में कर लेना, मोहरा बनना ऐसे अनेक मुहावरे हैं जिन्हें अभी तक हिन्दी कोशों में स्थान नहीं मिल पाया था।
यहाँ एक और तथ्य की ओर संकेत करना भी आवश्यक प्रतीत होता है। अनेक विशेषण शब्दों से बनी संज्ञाएँ तथा अनेक संज्ञाओं से बने विशेषण इधर निरन्तर अस्तित्व ग्रहण कर रहे हैं। अनिवार्य से अनिवार्य उपलब्ध से उपलब्धता, नियमित से नियमितता, प्राथमिक से प्राथमिकता, बहुल से बहुलता*, सर्व से सर्वता* आदि संज्ञाएँ चल निकली हैं। इसी प्रकार कम्प्यूटर से कम्प्यूटरी (कम्प्यूटरी साहित्य) जमीन से जमीनी (जमीनी सचाई), परमिट से परमिटी (परमिटी तैल), पाठक से पाठकीय (पाठकीय दृष्टिकोण) मंच से मंचीय (मंचीय वार्तालाप) मैदान से मैदानी (मैदानी गोला) आदि विशेषण भी धड़ल्ले से चल रहे हैं। ऐसे शब्दों के संकलन की ओर भी हमारे नए कोशकारों का ध्यान जाना चाहिए।
इस कोश में पहली बार ऐसे सैकड़ों क्रियी-विशेषण, विशेषण तथा संज्ञा शब्दों की प्रविष्टियाँ मिलेंगी जो सम्बन्धबोधकों की तरह प्रयुक्त होते हैं। ‘विरूद्ध’ को सभी कोशों में विशेषण बतलाया गया है जबकि यह ‘के विरूद्ध’ अर्थात, सम्बन्धबोधक के रूप में ही प्रयुक्त होता है, जैसे-(क) वह आपके विरूद्ध चुनाव लड़ेगा। (ख) मैं उनके विरूद्ध कुछ नहीं कहूँगा। (ग) वे हमारे दल के विरुद्ध अनर्गल प्रचार कर रहे हैं। आगे, पास, सामने आदि क्रिया-विशेषण हैं, अतिरिक्त, अधीन, उपयुक्त आदि विशेषण हैं तथा ओर, जगह, हाथ आदि संज्ञाएँ हैं। परन्तु के आगे, के पास, के सामने, के अतिरिक्त, के अधीन, के उपयुक्त, की ओर, की जगह, के हाथ तो सम्बन्धबोधक है। ऐसे सैकड़ों सम्बन्धबोधकों को इस कोश में स्थान प्राप्त हुआ है।
नए अर्थ
इधर सहस्रों हिन्दी शब्दों में नए अर्थ विकसित हुए हैं। ऐसे अर्थों को
सँजोने तथा विश्लेषित करने का काम इस बृहत संस्करण का विशेष ध्येय रहा है।
यह कार्य कोशकार के लिए इसलिए भी चुनौती-भरा है। कि उसे ही अपनी भाषा की
क्षमता महत्ता और सौंदर्य को जगत के सम्मुख लाने और रखने का अवसर मिलता है।
प्रामाणिक हिन्दी कोश के पहले के संस्करणों में ‘उपलब्ध’ प्रविष्टि में अर्थ के रूप में दो पर्याय-सुलभ और प्राप्त-दिए गए थे। इस बार दो व्याख्याएँ दी गई हैं, जो इस प्रकार है- (1) जिसे प्राप्त किया जा सके या उपयोग में लाया जा सके, जैसे- यहाँ माल ढोने के लिए खच्चर उपलब्ध हैं। (2) जिससे सहज में मिला जा सके, जैसे-हमारे गुरूजी हर समय उपलब्ध रहते हैं। ‘उपस्थिति’ में एक ही अर्थ था- उपस्थित होने की अवस्था या भाव। दूसरा अर्थ बढ़ाया गया है- उपस्थित लोगों की संख्या, जैसे- आज की सभा में उपस्थिति अधिक नहीं थी। ‘कृपा’ में एक ही अर्थ था- दूसरे की भलाई करने की भावना या वृत्ति। दूसरा अर्थ बढ़ाया गया-उदारतापूर्ण कृत्य या सहायता जैसे, यह संस्था उनकी कृपा से चल रही है। ज्वार पुं० में एक अर्थ दिया था- समुद्र के जल का खूब लहराते हुए आगे बढ़ना या ऊपर उठना। दूसरा अर्थ बढ़ाया गया-अधिकता या तेजी; जैसे- उन्हें लगा कि पिता जी के क्रोध का ज्वार कुछ उतर गया है। -मनु शर्मा। ‘ताना-बाना’ में एक ही अर्थ था- कपड़े की बुनावट में लम्बाई और चौड़ाई के बल बुने हुए सूत। दूसरा अर्थ बढ़ाया गया- रचना के तत्व या तार, जैसे कहानी का ताना-बाना। ‘केन्द्र’ में तीन अर्थ पहले से थे। चौथा अर्थ बढ़ाया गया- केन्द्रीय सरकार, जैसे केन्द्र राज्यों को और अधिकार देने के लिए तैयार नहीं। ‘चाय’ में नया अर्थ बढ़ाया गया- शाम के समय का नाश्ता। ‘मोर्चा’ में नया अर्थ बढ़ाया गया- कई दलों के मेल से बना संघटन। ‘प्रस्तुति’ में एक अर्थ था- प्रस्तुत करने की क्रिया या भाव। दूसरा अर्थ बढ़ाया गया- प्रस्तुत कार्यक्रम जैसे- अंधेर नगरी की प्रस्तुति सराहनीय थी। ‘झख मारना’ में एक ही अर्थ सभी कोशों में दिया गया है, जो इस प्रकार है- व्यर्थ के कामों में समय नष्ट करना; जैसे- लड़का दिन भर झक मारता रहता है। दूसरा अर्थ बढ़ाया गया- विवश होना जैसे अन्त में मुझे वहाँ झक मारकर जाना पड़ा।
अनेक शब्दों के अर्थों को अधिक संगत बनाने का प्रयत्न भी इस कोश में किया गया है। ‘चकाचौंध’ में अर्थ दिया था- बहुत तेज चमक से आँखों में होनेवाली ‘झपक’ चकाचौंध नहीं। वह तो उसका परिणाम है। अब अर्थ इस प्रकार है- बहुत तेज चमक जिससे आँख झपकने लगें। ‘चुभलाना’ में अर्थ दिया था- मुँह में रखकर घुलाना या इधर-उधर करना। नई व्याख्या इस प्रकार है- रस लेने के लिए मुँह में रखी हुई किसी वस्तु को जीभ से बार-बार हिलाना-डुलाना। ‘ठाठ’ पुं० का दूसरा अर्थ था- खेमा गाड़ने के खूँटे। इसमें दोष यह था कि शब्द तो एकवचन है परन्तु अर्थ बहुवचन में था। अब अर्थ इस प्रकार है- खेमा गाड़ने के खूँटों का समूह; उदा०- सब ठाठ पड़ा रह जाएगा जब लाद चलेगा बंजारा। ‘लेन-देन’ ‘लेना-देना’ को पर्याप्त ही समझा जाता रहा है। परन्तु ‘लेना-देना’ में एक अन्य अर्थ विशेष रूप से निहित है, जो ’लेन-देन’ नहीं है। वह अर्थ है-सम्बन्ध जैसे- अब उनका राजनीति से कुछ भी लेना-देना नहीं।
प्रामाणिक हिन्दी कोश के पहले के संस्करणों में ‘उपलब्ध’ प्रविष्टि में अर्थ के रूप में दो पर्याय-सुलभ और प्राप्त-दिए गए थे। इस बार दो व्याख्याएँ दी गई हैं, जो इस प्रकार है- (1) जिसे प्राप्त किया जा सके या उपयोग में लाया जा सके, जैसे- यहाँ माल ढोने के लिए खच्चर उपलब्ध हैं। (2) जिससे सहज में मिला जा सके, जैसे-हमारे गुरूजी हर समय उपलब्ध रहते हैं। ‘उपस्थिति’ में एक ही अर्थ था- उपस्थित होने की अवस्था या भाव। दूसरा अर्थ बढ़ाया गया है- उपस्थित लोगों की संख्या, जैसे- आज की सभा में उपस्थिति अधिक नहीं थी। ‘कृपा’ में एक ही अर्थ था- दूसरे की भलाई करने की भावना या वृत्ति। दूसरा अर्थ बढ़ाया गया-उदारतापूर्ण कृत्य या सहायता जैसे, यह संस्था उनकी कृपा से चल रही है। ज्वार पुं० में एक अर्थ दिया था- समुद्र के जल का खूब लहराते हुए आगे बढ़ना या ऊपर उठना। दूसरा अर्थ बढ़ाया गया-अधिकता या तेजी; जैसे- उन्हें लगा कि पिता जी के क्रोध का ज्वार कुछ उतर गया है। -मनु शर्मा। ‘ताना-बाना’ में एक ही अर्थ था- कपड़े की बुनावट में लम्बाई और चौड़ाई के बल बुने हुए सूत। दूसरा अर्थ बढ़ाया गया- रचना के तत्व या तार, जैसे कहानी का ताना-बाना। ‘केन्द्र’ में तीन अर्थ पहले से थे। चौथा अर्थ बढ़ाया गया- केन्द्रीय सरकार, जैसे केन्द्र राज्यों को और अधिकार देने के लिए तैयार नहीं। ‘चाय’ में नया अर्थ बढ़ाया गया- शाम के समय का नाश्ता। ‘मोर्चा’ में नया अर्थ बढ़ाया गया- कई दलों के मेल से बना संघटन। ‘प्रस्तुति’ में एक अर्थ था- प्रस्तुत करने की क्रिया या भाव। दूसरा अर्थ बढ़ाया गया- प्रस्तुत कार्यक्रम जैसे- अंधेर नगरी की प्रस्तुति सराहनीय थी। ‘झख मारना’ में एक ही अर्थ सभी कोशों में दिया गया है, जो इस प्रकार है- व्यर्थ के कामों में समय नष्ट करना; जैसे- लड़का दिन भर झक मारता रहता है। दूसरा अर्थ बढ़ाया गया- विवश होना जैसे अन्त में मुझे वहाँ झक मारकर जाना पड़ा।
अनेक शब्दों के अर्थों को अधिक संगत बनाने का प्रयत्न भी इस कोश में किया गया है। ‘चकाचौंध’ में अर्थ दिया था- बहुत तेज चमक से आँखों में होनेवाली ‘झपक’ चकाचौंध नहीं। वह तो उसका परिणाम है। अब अर्थ इस प्रकार है- बहुत तेज चमक जिससे आँख झपकने लगें। ‘चुभलाना’ में अर्थ दिया था- मुँह में रखकर घुलाना या इधर-उधर करना। नई व्याख्या इस प्रकार है- रस लेने के लिए मुँह में रखी हुई किसी वस्तु को जीभ से बार-बार हिलाना-डुलाना। ‘ठाठ’ पुं० का दूसरा अर्थ था- खेमा गाड़ने के खूँटे। इसमें दोष यह था कि शब्द तो एकवचन है परन्तु अर्थ बहुवचन में था। अब अर्थ इस प्रकार है- खेमा गाड़ने के खूँटों का समूह; उदा०- सब ठाठ पड़ा रह जाएगा जब लाद चलेगा बंजारा। ‘लेन-देन’ ‘लेना-देना’ को पर्याप्त ही समझा जाता रहा है। परन्तु ‘लेना-देना’ में एक अन्य अर्थ विशेष रूप से निहित है, जो ’लेन-देन’ नहीं है। वह अर्थ है-सम्बन्ध जैसे- अब उनका राजनीति से कुछ भी लेना-देना नहीं।
* साहित्य अमृत (जून 2002) के ‘सम्पादकीय’ में डा०
विद्यानिवास मिश्र द्वारा प्रयुक्त
इस बृहत् संस्करण की कुछ अन्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं।
(1) शब्दों के मानक रूप करने में अधिक प्रचलित रूपों को आधार बनाया गया है। गत संस्करणों में कूआँ, दूकान सूअर, सूई आदि मानक रूप स्वीकार किए गए थे, परन्तु आज अधिकतम लेखक कुआँ, दुकान सुअर, सुई आदि रूप ही प्रयुक्त करते हैं। गँठजोड़ गँठजोड़ा, गठबंधन, गदहा आदि की जगह अब गठजोड़, गठजोड़ा, गठबंधन, गधा रूप ही अब श्रेयस्कर माने जाते हैं। इसलिए इस संस्करण में इन्हीं रूपों का मानक माना गया है। आयी, आयीं, आयें, आयेंगे, जायें, जायेंगे आदि क्रिया-रूपों के स्थान पर अब आई, आईं, आए, आएँ, आएँगे, जाएँ जाएँगे आदि ही अधिक चलते हैं इसलिए इन्हें ही वरीयता दी गई है। यी तथा ये के स्थान पर ई और ए का उच्चारण होता है तो ई और ए रूप ही ग्रहण किए गए हैं, जैसे किराएदार, किराएदारी। तत्सम शब्दों में रेफ के नीचे जहाँ द्वित्व व्यंजन देने की प्रथा थी वहाँ एकल व्यंजन को ही वरीयता दी गयी है। कार्य्य, धर्म्म, आदि की जगह कार्य, धर्म को ही अपनाया गया है। अँगरेजी, अंग्रेजी; दोहराना, दुहराना, बरतन, बर्तन आदि ऐसे चलते रूप हैं जिनमें से एक को स्वीकार करना और दूसरे को अस्वीकार करना सहज नहीं। विद्वानों को इस विषय में जितनी शीघ्रता से हो सके किसी निश्चय तक पहुँचना चाहिए। इस कोश में अधिकतर अवस्थाओं में लाघव रूपों को ही वरीयता देने का प्रयास है। तत्त्व, महत्त्व, सत्त्व, आदि रूपों को ही वरीयता देने के पीछे यह धारणा रही कि ’त्व’ प्रत्यय का आस्तित्व लक्षित होता है।
(2) गत संस्करणों में, शब्दों का उच्चारण पाठक अधिक सुगमता से कर सकें इसके लिए वर्मा जी ने योजिका (हाइफन) का प्रयोग किया था, जैसे अ-निर्दिष्ट, अ-परिचित, अ-पलक-कर्ण-कटु, कर्म-कांड, गले-बाजी, गो-दान, जन-प्रिय आदि। परन्तु इस संस्करण में योजिका कुछ निश्चित नियमों के आधार पर लगाई है। कुछ नियम इस प्रकार हैं-
(क) उपसर्ग तथा प्रत्यय को मूल शब्द से अलग नहीं किया गया, जैसे- (क) अनिर्दिष्ट, अपरिचित, बेदखली, बेदाग आदि। (ख) प्रचुरता, खरापन, मौजूदगी आदि।
(ख) हिन्दी में गृहीत तत्सम शब्दों के समस्त पदों में यदि किसी पद में दो से अधिक अक्षर (सिलेबल) हों तभी योजिका लगाई गई है। अन्यथा नहीं, जैसे-
कर्णकटु, जलयान, गोदान, जनप्रिय(1+1)
कर्णभूषण राजनीति (1+2)
जीवनदान, निशाचर (2+1)
मातृभाषा (2+2)
परन्तु
भ्रम-निवारण (1+3)
नेत्र-चिकित्सक (1+3)
नीति-निर्धारण (2+3)
निवेदन-पत्र (3+1)
(ग) नई संकल्पनाओं के सूचक अंग्रेजी शब्दों के आधार पर गड़े जानेवाले समस्त पदों में सामान्यता योजिका लगाने की प्रथा हैं; जैसे- जन-संचार, जनमत-संग्रह, यौन-शोषण आदि।
(घ) तद्भव, देशज तथा संकर समस्त पदों में सामान्यतया योजिका लगाई है-
उठना-बैठना,
खेलना-कूदना
उठ-बैठ
खेल-कूद
चिड़िया-घर
यदि इन तद्भव समस्त पदों के किसी स्वर का हृस्वीकरण, लोप या आगम हुआ है, तो योजिका नहीं लगाई गई, जैसे-
कठपुतली (काठ+पुतली)
पनबिजली (पानी+बिजली)
(1) शब्दों के मानक रूप करने में अधिक प्रचलित रूपों को आधार बनाया गया है। गत संस्करणों में कूआँ, दूकान सूअर, सूई आदि मानक रूप स्वीकार किए गए थे, परन्तु आज अधिकतम लेखक कुआँ, दुकान सुअर, सुई आदि रूप ही प्रयुक्त करते हैं। गँठजोड़ गँठजोड़ा, गठबंधन, गदहा आदि की जगह अब गठजोड़, गठजोड़ा, गठबंधन, गधा रूप ही अब श्रेयस्कर माने जाते हैं। इसलिए इस संस्करण में इन्हीं रूपों का मानक माना गया है। आयी, आयीं, आयें, आयेंगे, जायें, जायेंगे आदि क्रिया-रूपों के स्थान पर अब आई, आईं, आए, आएँ, आएँगे, जाएँ जाएँगे आदि ही अधिक चलते हैं इसलिए इन्हें ही वरीयता दी गई है। यी तथा ये के स्थान पर ई और ए का उच्चारण होता है तो ई और ए रूप ही ग्रहण किए गए हैं, जैसे किराएदार, किराएदारी। तत्सम शब्दों में रेफ के नीचे जहाँ द्वित्व व्यंजन देने की प्रथा थी वहाँ एकल व्यंजन को ही वरीयता दी गयी है। कार्य्य, धर्म्म, आदि की जगह कार्य, धर्म को ही अपनाया गया है। अँगरेजी, अंग्रेजी; दोहराना, दुहराना, बरतन, बर्तन आदि ऐसे चलते रूप हैं जिनमें से एक को स्वीकार करना और दूसरे को अस्वीकार करना सहज नहीं। विद्वानों को इस विषय में जितनी शीघ्रता से हो सके किसी निश्चय तक पहुँचना चाहिए। इस कोश में अधिकतर अवस्थाओं में लाघव रूपों को ही वरीयता देने का प्रयास है। तत्त्व, महत्त्व, सत्त्व, आदि रूपों को ही वरीयता देने के पीछे यह धारणा रही कि ’त्व’ प्रत्यय का आस्तित्व लक्षित होता है।
(2) गत संस्करणों में, शब्दों का उच्चारण पाठक अधिक सुगमता से कर सकें इसके लिए वर्मा जी ने योजिका (हाइफन) का प्रयोग किया था, जैसे अ-निर्दिष्ट, अ-परिचित, अ-पलक-कर्ण-कटु, कर्म-कांड, गले-बाजी, गो-दान, जन-प्रिय आदि। परन्तु इस संस्करण में योजिका कुछ निश्चित नियमों के आधार पर लगाई है। कुछ नियम इस प्रकार हैं-
(क) उपसर्ग तथा प्रत्यय को मूल शब्द से अलग नहीं किया गया, जैसे- (क) अनिर्दिष्ट, अपरिचित, बेदखली, बेदाग आदि। (ख) प्रचुरता, खरापन, मौजूदगी आदि।
(ख) हिन्दी में गृहीत तत्सम शब्दों के समस्त पदों में यदि किसी पद में दो से अधिक अक्षर (सिलेबल) हों तभी योजिका लगाई गई है। अन्यथा नहीं, जैसे-
कर्णकटु, जलयान, गोदान, जनप्रिय(1+1)
कर्णभूषण राजनीति (1+2)
जीवनदान, निशाचर (2+1)
मातृभाषा (2+2)
परन्तु
भ्रम-निवारण (1+3)
नेत्र-चिकित्सक (1+3)
नीति-निर्धारण (2+3)
निवेदन-पत्र (3+1)
(ग) नई संकल्पनाओं के सूचक अंग्रेजी शब्दों के आधार पर गड़े जानेवाले समस्त पदों में सामान्यता योजिका लगाने की प्रथा हैं; जैसे- जन-संचार, जनमत-संग्रह, यौन-शोषण आदि।
(घ) तद्भव, देशज तथा संकर समस्त पदों में सामान्यतया योजिका लगाई है-
उठना-बैठना,
खेलना-कूदना
उठ-बैठ
खेल-कूद
चिड़िया-घर
यदि इन तद्भव समस्त पदों के किसी स्वर का हृस्वीकरण, लोप या आगम हुआ है, तो योजिका नहीं लगाई गई, जैसे-
कठपुतली (काठ+पुतली)
पनबिजली (पानी+बिजली)
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