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रहस्य-रोमांच >> घात

घात

सुरेन्द्र मोहन पाठक

प्रकाशक : तुलसी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :285
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6646
आईएसबीएन :0000000

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सुरेन्द्र मोहन पाठक का उपन्यास ‘घात’ (सस्ते, खुरदुरे कागज में)

Ghat

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

घात

‘‘केस में कुछ नहीं रखा।’’- वकील संजीदगी से बोला- ‘‘तुम अपने धन्धे की कितनी भी बड़ी तोप क्यों न हो, लड़के के हक में कुछ तलाश नहीं कर पाओगे।’’
‘‘क्यों ?’’- मेरा सवाल था।
‘‘क्योंकि हक में कुछ है ही नहीं। ओपन एण्ड शट केस है उसके खिलाफ।’’
‘‘फिर मुझे एंगेज करने का क्या फायदा ? मेरी मोटी फीस भरने का क्या फायदा ?’’
‘‘कोई फायदा नहीं लेकिन मुलजिम की बहन ऐसा चाहती है। उम्मीद करती है कि तुम कोई करिश्मा कर दिखाओगे।’’
वो फांसी कोठी में बैठा पल पल करीब आती अपनी निश्चित मौत का इन्तजार कर रहा था। चौतरफा अन्धेरे से घिरा वो शख्स अपनी नापाक जिन्दगी के ऐसे पड़ाव पर पहुंचा हुआ था जहां उसकी कोई हस्ती, कोई हैसियत, कोई औकात नहीं थी। ऐसे शख्स को एकाएक अहसास हुआ कि वो किसी की जिन्दगी में जगमग कर सकता था। उसने क्या किया ?

लेखकीय


मेरा नवीनतम उपन्यास ‘घात’ आपके हाथों में है। क्रोनोलाजिकल रिकार्ड के लिये उद्धृत है कि प्रस्तुत उपन्यास सुधीर सीरीज का 18 वां और मेरी अब तक प्रकाशित कुल रचनाओं में 252 वां है। इस सीरीज का पूर्वप्रकाशित उपन्यास ‘ओवररोज’ था जो कि इसी साल जून में प्रकाशित हुआ था। लिहाजा एक बहुत ही छोटे वक्फे के बाद फिर आपकी मुलाकात सुधीर ‘दि लक्की बास्टर्ड’ कोहली से हो रही है। ऐसा पहले एक ही बार हुआ है जबकि इस सीरीज के दो उपन्यास- ‘पांचवां निशान’ और ‘कत्ल का सुराग’- एक दूसरे के आगे-पीछे प्रकाशित हुए हों। उस वक़्त नतीजा बड़ा सुखद निकला था। और मेरे मेहरबान पाठकों को सुधीर के दो कारनामें लगभग एक साथ पढ़ना बहुत भाया था। उम्मीद है कि इस बार भी नतीजा सुखद निकलेगा क्योंकि पूर्व उपन्यास ‘ओवररोड’ मेरे हर वर्ग के पाठकों को बहुत पसन्द आया है। फिर भी आखिरी फैसला हमेशा की तरह आपके हाथों में है, मैं तो सिर्फ उम्मीद कर सकता हूं कि आप ‘घात’ का जो पास-फेल निकालेंगे वो मेरे हक में होगा और मेरी हौसलाअफजाई का बायस बनेगा। आप साहबान को मालूम ही होगा कि ‘तुलसी साहित्य पब्लिकेशन्स’ एक कदरन नया प्रकाशन है लेकिन सिर्फ नाम ही नया है। इसके अनुभवी और सक्षम प्रकाशन इस ट्रेड में तीन दशक से भी ज्यादा से हैं। जिसमें उन्होंने कई मकबूल और यादगार प्रोजेक्ट्स को अंजाम दिया है। इस प्रकाशन से प्रकाशित होने वाला ये मेरा दूसरा नया उपन्यास है, पहला उपन्यास-थ्रिलर-‘एक ही रास्ता’ था जो कि अप्रैल सन् 2003 में प्रकाशित हुआ था और मेरे सुबुद्ध और कृपालु पाठकों द्वारा खूब-खूब सराहा गया था, बीच में कुछ रिप्रिंट्स नियमित रूप से प्रकाशित हुए थे और अब एक साल के अन्तराल के बाद नया उपन्यास ‘घात’ आपकी सेवा में प्रस्तुत है। कोई अनहोनी न हुई तो तुलसी पब्लिकेशन से मेरे नये पुराने उफन्यासों का सिलसिला भविष्य में सुचारू रूप से चलेगा।

अपने पिछले नये उपन्यास के लेखकीय में मैंने अपने पाठकों के लिए एक बड़ी निराशाजनक बात लिखी थी कि हरदिलअजीज, न भूतो न भविष्यति, सरदार साहब के नये कारनामे के प्रकाशन को पाठकगण फिलहाल ग्रहण लगा जानें। मैं अब सहर्ष सूचित करता हूँ कि वो ग्रहण अब हट गया है, बादल छंट गये हैं, रोशनी फिर नुमायां है और उस सिलसिले में दिल्ली अब कतई दूर नहीं है। आप इसी साल अपने पसन्दीदा किरदार के रूबरू होंगे।

मेरे लेखन से संबंधित कुछ बातें, जो कि दिलचस्पी से खाली नहीं, मैं अपने पाठकों के साथ शेयर करना चाहता हूं :
पेन्ड्रा, जिला बिलासपुर (छत्तीसगढ़) से सपन खत्री लिखते हैं :
पेन्ड्रा छोटा सा गांव है। यहां पुस्तकें नहीं मिलती हैं। प्राप्ति के लिये मैंने अपने जिले बिलासपुर में बस स्टैण्ड के एक बुक स्टाल पर-दूरी 135 किलोमीटर- पैसे जमा करवा दिये हैं और वह मुझे आपकी लिखी किताब जिस दिन उस के पास पहुंचती है, उसी दिन रूट की बस के किसी ड्राइवर के जरिये इस शर्त पर भेजता है कि हर बार ड्राइवर को दस रुपये देने होंगे और किताब जो भी होगी, लेनी होगी, वापिस नहीं होगी। यूं कोई ‘करमजले’ जैसा रिप्रिंट नाम बदल कर छपता है तो उसकी कीमत चालीस रुपये और बस ड्राइवर की फीस दस रुपये कुल जमा पचास रुपये का नुकसान हमें भोगना पड़ता है।

हाजीपुर के दिग्विजय चौरासिया ने मेरे किताबी नायकों का मूल्यांकन यूं किया है :
आपके मौजूदा किरदारों में जहां विमल राहुल द्राविड की तरह भरोसेपसन्द है और टक्साली सिक्के की तरह चलता है, तो सुनील सचिन की तरह धमाकेदार है जो किसी भी पिच पर बढ़िया चलता है यानी कि कथानक कैसा भी हो, मनोरंजन की पूरी गारन्टी रहती है। सुधीर का हाल सौरभ गांगुली वाला है यानी कभी गरम तो कभी नरम। वहीं जीतसिंह तो अजय जड़ेजा की मैच फिक्सिंग का शिकार हो गया लगता है, मतलब पाठकों की नापसन्दगी का शिकार। लेकिन नया हीरो मुकेश माथुर सहवाग की तरह है, यानी जैसे सहवाग में तेन्दुलकर बनने की क्षमता है तो वैसे ही मुकेश माथुर के पास सुनील बनने की काबिलियत है।

सन् 1998 के आसपास जो मेरे पांच नये उपन्यास एक दूसरे के बाद छपे थे, वो थो-कमरा नम्बर 303, फिफ्टी फिफ्टी, तीस लाख, वन वे स्ट्रीट और हजार हाथ। ये बात मुझे पीपाड़ शहर, जोधपुर के मेरे पाठक पुरुषोत्तम प्रजापति के ही सुझाये सूझी कि पांचों उपन्यासों के नामों में गणित की संख्याओं का उल्लेख था। उनकी जिज्ञासा थी कि ऐसा इत्तफाक से हुआ था या मैंने जानबूझकर टाइटल में गणित की संख्याओं का उल्लेख किया था। मेरा जवाब था कि वो महज इत्तफाक था जिसकी कि मुझे खबर भी नहीं थी। होती तो मैं इस बात को उन विदेशी लेखकों की तरह कैश करता जो साग्रह, बड़ी शिद्दत से, अपने उपन्यासों के नामों में ऐसी कोई समानता पैदा करते हैं जैसे कि : स्यू ग्राफ्टन, जो हर नाम में अंग्रेजी अल्फाबैट्स का समावेश करती हैं-जैसे ए फार एलीबाई, बी फार बर्गलर, सी फार कॉर्प्स वगैरह और यूं ‘ए’ से ‘एन’ तक के अक्षर इस्तेमाल में ला चुकी हैं।
जान मैक्डोनाल्ड जिनके ट्रैविस मैक्गी सीरीज के हर जासूसी उपन्यास में एक रंग का जिक्र होता है-जैसे फ्लैश इन ग्रीन, फियरफुल यैलो आई, क्विक रैड फाक्स, ब्राइट आरेंज फार शाउड वगैरह।

हैरी केमलमैन उपन्यासों के नामों में ‘दिन’ का इस्तेमाल करते हैं- जैसे मंडे दि रैबी टुक आफ, थर्सडे दि रैबी वाक्ड आउट, संडे दि रैबी स्टे़ड होम, सम डे दि रैबी बिल लीव वगैरह।
ऐसी और भी कोई मिसाल हैं जिनमें मेरी भी दखल होता अगरचे कि मुझे सूझा होता कि मेरे एक के बाद एक पांच उपन्यासों में गणित की किसी न किसी संख्या का जिक्र था।
नई दिल्ली के बृजेश कुमार ने-जो कि नागर विमानन मंत्रालय के हिन्दी अनुभाग में अनुवादक के पद पर कार्यरत हैं- एक प्रशंसा पत्र मुझे लिखा जो इसलिये जिक्र के काबिल है कि वो उन्हें तब लिखना सूझा जबकि एक अन्य लेखक से उनका मोहभंग हुआ। जो तुलनात्मक चित्रण मेरे संदर्भ में उन्होंने अन्य लेखक का किया उसका यहां सविस्तार वर्णन शालीनता के खिलाफ होगा फिर भी वो विशेषण यहां उद्धृत है जिन्होंने बृजेश कुमार को आखिरकार उक्त लेखक से विमुख किया-आउफ आफ दि वर्ल्ड, ओवर रियेक्टिंग पात्र, सब कुछ बनावटी, अतिरेकपूर्ण, आत्ममुग्ध, आत्मप्रशंसक, अतिरंजनापूर्ण स्वत: भाषण, हर बात चीखती चिल्लाती वगैरह। उनके अपने शब्दों में जो उन्हें मेरे उपन्यासों में पसन्द है :

सबसे पहले और सबसे ज्यादा मुझे आपका ‘लेखकीय’ भाता है। इतना डाउन टु अर्थ, इतना सटीक, निष्पक्ष और जानकारी से भरपूर और विनयशील। जिस विनम्रता से आप अपने उपन्यासों या पात्रों की तारीफें स्वीकार करते हैं, उतनी ही सहजता से उसकी और अपनी आलोचना भी स्वीकारते हैं, छापते हैं। दूसरे, आपके पात्र, देश-काल का चित्रण सब कुछ मुझे अपने आसपास का लगता है; सब कुछ इसी दुनिया, इस समाज से जुड़ा लगता है। आपके तमाम स्थायी पात्र एक ऐसी दुनिया की रचना करते हैं जो हमारी हैं.....हमारी अपनी, न कि अन्तरिक्ष के किसी और ग्रह की दुनिया। विमल के बारे में तो मैं बहुत कुछ लिखता लेकिन उस जैसे महानायक को शब्दों में बांधना असंभव है इसलिये मैं इस व्यर्थ की कोशिश से किनारा करता हूं। फिर भी अपने सबसे पसन्ददीदा उपन्यास का जिक्र जरूर करना चाहता हूं जो कि हाल में करमजले के नाम से पुर्नप्रकाशित हुआ है। दैट्स ए रीयल ब्यूटी, ए रीयल मास्टरपीस आफ नावल। उसके क्लाइमैक्स के बारे में आपने ठीक दावा किया था कि आप सुनील को भुला न पायेंगे। मैं उसे बीस बार तो पढ़ ही चुका हूँ, पर हर बार रूला देता है, मुझे। ऐसा ही एक उत्साहवर्धक पत्र मुझे आगरा के डाक्टर वी.एन. राय ने लिखा है जिससे गौरवान्वित होता जिसको मैं यहां उद्धृत करता हूं :

आप इस समय देश के करोड़ों हिन्दी-अहिन्दी भाषियों द्वारा पढ़े जाते हैं भले ही आप अपने आपको साहित्य सर्जक की कोटि में नहीं रखते। उत्कृष्ट साहित्य वही है जो लोकमंगल तथा रोकरंजक हो। भारतीय परम्परा में सुखान्त तथा असत् पर सत् की विजय गाथा ने ही महान रचना के रूप में प्रतिष्ठा पायी है क्योंकि भारतीय जीवन दर्शन में कर्म को ही फल प्राप्ति का आधार बनाया गया है। लोकरंजक और लोकमंगल साहित्य के संबंध में नाट्यशास्त्र के प्रणेता भरतमुनि ने कहा है :

दु:खान्तार्ना श्रमातार्ना, शोकान्तार्ना, तपस्विनाम्

जो साहित्य दुखी लोगों, मेहनतकशों, शोकाकुल व्यक्तियों तथा तपस्वियों ता अनुरंजन करे, वही साहित्य है।

आपकी पुस्तकें समाज के हर तबके द्वारा जोश-खरोश से पढ़ी जाती हैं, इसकी शिद्दत अनेक स्टालों पर मैंने हर वर्ग के लोगों में महसूस की है। आपकी पुस्तकों में कथानक संयोजन, भाषा का अविरल प्रवाह एवं बोधगम्यता, पात्रानुकूल एवं अवसरानुकूल भाषा का चयन, घटनाओं का तार्किक तालमेल, पुस्तक के संदेश को पाठकों को आत्मसात् कराने की असाधारण क्षमता आपको उत्कृष्ट साहित्यसर्जक की कोटि में खड़ी करती है।
विमल सीरीज ने तो एक महागाथा का रूप धारण कर लिया है, आने वाले समय में केवल एक लेखक ही रचना मानना असहज लगेगा जैसे आज महाभारत को केवल वेद व्यास की कृति मानने में विद्वानों में मतभेद है।

समाज की विकृतियों, अध:पतन, अपसंस्कृति पर आपके व्यंग्य अत्यन्त सराहनीय हैं। विमल और सुनील का जीवन दर्शन प्रत्येक व्यक्ति के लिये अनुकरणीय हो सकता है।

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