कहानी संग्रह >> 10 प्रतिनिधि कहानियाँ (आबिद सुरती) 10 प्रतिनिधि कहानियाँ (आबिद सुरती)आबिद सुरती
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आबिद सुरती की दस प्रतिनिधि कहानियों का संकलन...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
आबिद सुरती की कहानियाँ अनुभव की गहराई और रंगों की चटख से रची कहानियां हैं। इनमें रचनाकार के संघर्ष की ध्वनि तो मिलती है, साथ ही संघर्ष से हताश न होकर नए संघर्ष की भूमि तलाशती मानसिकता की शक्ति का ओजस्वी स्वर भी है। ओजस्वी इसलिए कि वह हार नहीं मानता। एक चित्रकार के द्वारा चित्रित शब्द-संघटना में अतीव शक्ति होती है, प्रभावशीलता भी। आप कहानियाँ पढ़ेंगे तो स्वयं ही अनुभव होगी यह सच्चाई।
डॉ. विनय
आबिद की ये कहानियाँ
आबिद सुरती चित्रकार हैं, कार्टूनिस्ट हैं, व्यंग्यकार हैं, उपन्यासकार हैं, घुमक्कड़
हैं, फक्कड़ हैं—और वे कहानीकार भी हैं। विभिन्न कलाविधाएँ उनके
लिए कला और ज़िन्दगी के ढर्रे को तोड़ने के माध्यम हैं। उनकी ये कोशिशें
जितनी उनके चित्रों में नज़र आती हैं। स्वभाव से यथार्थवादी होते हुए भी
वे अपनी कहानियों में मानव-मन की उड़ानों को शब्दांकित करते हैं। जीवन का
सच्चाई से वे सीधे साक्षात्कार न करके फंतासी और काल्पनिकता का सहारा लेते
हैं। व्यंग्य का पैनापन इसी से आता है, क्योंकि यथार्थ से फंतासी की
टकराहट से जो तल्ख़ी पैदा होती है, उसका प्रभाव सपाट सच्चाई के प्रभाव से
कहीं ज्यादा तीखा होता है। एक सचेत-सजग कलाकार की तरह आबिद अपनी कहानियों
में सदियों से चली आ रही जड़-रूढ़ियों, परंपराओं और ज़िंदगी की कीमतों पर
लगातार प्रश्नचिह्न लगाते हैं और उन्हें तोड़ने के लिए भरपूर वार भी करते
हैं। यह बात उन्हें कलाकारों की पंक्ति में ला खड़ा करती है, जो कला को
महज़ कला नहीं, ज़िन्दगी की बेहतरी के माध्यम के रूप में जानते हैं। सबसे
बड़ी ख़ूबी यह है कि आबिद के भीतर अब भी एक जिज्ञासु बालक मौजूद है, जो हर
चीज़ पर क्या, क्यों, कैसे जैसे प्रश्नचिह्न लगाता रहता है। यही वजह है कि
उनकी रचनाएँ जहाँ हमें आंदोलित और उद्वेलित करती हैं, वहीं हमारा बौद्धिक
मनोरंजन भी करती हैं। विचार और रोचकता का ऐसा अद्भुत सम्मिश्रण बहुत कम
रचनाकारों में नजर आता है, वे प्रथम पंक्ति के रचनाकार हैं।
सुदीप
आतंकित
जब हमें पता चला कि हमारे पाँच मंज़िले मकान में रहते मंत्री रामप्रसाद जी के लिए
सरकार सुरक्षा की व्यवस्था करने वाली है, हम प्रसन्न हुए, मगर सबसे
ज़्यादा ख़ुशी मुझे ख़ुद हुई। हमारा आवास तल मंज़िल पर होने के कारण कभी कोई पियक्कड़ हमारे ओटले पर चढ़कर लेट जाता तो कभी कोई उचक्का जूते या चटाई जैसी छोटी-मोटी चीज़ें उठाकर चलता बनता था। अलबत्ता, यह कोई गंभीर समस्या न थी। चोरी की ऐसी मामूली घटनाएँ साल-भर में शायद ही होतीं, फिर भी मंत्रीजी की बदौलत हमारी गुरुकुल सोसायटी बिलकुल सुरक्षित हो जाए तो वह कौन नहीं चाहेगा?
हमारे परिवार में मुझे छोड़कर चार सदस्य हैं—एक पति तथा तीन बच्चे। एक बालक जो मेरी कोख से जन्मा है उसका नाम हमने आकाश रखा है, जबकि दूसरी दो मेरे पति की पालतू बिल्लियाँ हैं। इनमें से एक को वह ‘माँ हव्वा’ कहकर पुकारते हैं तो दूसरी को ‘माँ सीता’। अनोखे इन नामों से आपने यह मान लिया हो कि मेरे पति बुद्धिजीवी हैं तो वह भी ग़लत नहीं। वे कार्टूनिस्ट हैं, स्वभाव से बालक जैसे निर्मल भी। सारा दिन वे अपनी धुन में मस्त रहने के बावजूद सुबह-शाम बिल्लियों को दो बार दूध पिलाने का समय कभी नहीं चूकते।
माँ हव्वा सारे मुहल्ले का जायज़ा लेकर हमारी गुरुकुल सोसायटी के अहाते में दाख़िल होती है, तब वह अपनी गरदन उठाकर बुलंद आवाज़ में मेरे पति को सूचना देती है—सावधान, मैं आ गई हूँ। यह सुनकर जाने कहाँ से माँ सीता प्रकट होकर दूध पीने ओटले पर हाज़िर हो जाती है। उन दोनों को कटोरियों से साथ-साथ दूध पीते देखना भी एक अनोखा आनंद है। आपको जानकर अचरज होगा कि स्वभाव से ये दोनों बिल्लायाँ बिलकुल अलग हैं। पहली दिखने में शेर के बच्चे जैसी है, जबकि दूसरी खरगोश जैसी उजली। एक मांसाहार अधिक पसंद करती है तो दूसरी निरामिष कहा जा सकता है। शाकाहार की ओर उसे विशेष रुचि है।
हमारी सोसायटी के किरायेदार भी दो हिस्सों में बँटे हुए हैं। हम सात्त्विक आहार लेने वाले जैन हैं, तो सोसायटी के सेक्रेटरी ईसाई। चौथी मंज़िल पर पारसी तथा मारवाड़ी परिवार बसते हैं, तो पहली मंज़िल पर मुसलमान और सिंधी। इस तरह प्रजा पंचरंगी होते हुए भी हम किरायेदारों के बीच में एकता है वह देखकर किसी भी कंट्टरपंथी को ईर्ष्या हो सकती है। अब तो डाह होने के लिए आसपास की सोसायटियों के सज्जन लोगों को भी कारण मिला। हमारे मकान के नीचे चौबीसों घंटे पुलिस का पहरा जो बैठने वाला था।
‘मिस्टर डिसोज़ा !’’ बस स्टॉप पर हमारे सेक्रेटरी से मुलाक़ात होने पर मैंने जानना चाहा, ‘‘क्या अब हमें हमारे वाचमैन की आवश्यकता रहती है ?’’ कुछ पल उन्होंने मेरे प्रश्न को नज़रों से तोलकर उत्तर दिया, ‘‘अभी पहरा नहीं बैठा।’’ फिर भी मेरा सुझाव उन्हें जँच गया था, ऐसा उनके चेहरे के भाव से स्पष्ट ज़ाहिर था। शायद मन ही मन उन्होंने गिनती कर ली हो, दो चौकीदारों में से रात की ड्यूटी वाले एक को छुट्टी देकर सोसायटी की राशि में थोड़ी-सी बचत की जा सकती है। वैसे भी रात की पाली वाला बिशनसिंह ग्यारह के बाद मुख्य प्रवेश में गुदड़ी बिछा घोड़े बेचकर सो जाता था।
एक बार मंत्रीजी ने स्वयं उसे दो लातें जमाकर फटकारा था। उसने वहीं पाँव थामकर तुरंत क्षमा माँग ली थी, मगर उस पर डाँट का असर उस पर ज़्यादा दिन नहीं टिक सका। अब लगता था, वह ख़ुद ही नहीं टिकेगा। बिशनसिंह को इसकी भनक लग गई। वह सावधान हो गया। अपने फ़र्ज़ में चुस्ती बरतने लगा। इतना ही नहीं, हमारी पालतू बिल्लियों पर उसे स्नेह भी उमड़ आया।
‘‘साब!’’ ओटले पर दोनों बिल्लियों को दूध पिलाकर खड़े मेरे पति को प्रसन्न करने के हेतु उसने कहा, ‘‘दया-धरम तो कोई आपसे सीखे। इन लावारिस जानवरों से इतना प्रेम तो शायद भगवान भी नहीं करते होंगे।’’ उसके शब्दों के पीछे से उठती गूँज मैं सुन सकती थी वास्तव में वह यह कहना चाहता था कि साहब, मैं ग़रीब आदमी हूँ। ज़रा ख़याल रहे, कहीं नौकरी से मुझे हाथ धोना न पड़े। मेरे पति मुस्कराकर अंदर चले आए। उत्तर में जब वे मुस्कान फैलाएँ, तब जान लो कि उन्होंने कान धरे ही नहीं।
बिशनसिंह ने मेरी तरफ देखा। मैं अभी भी ओटले और बैठक के बीच चौखट पर खड़ी उसकी आँखों में झाँक रही थी। तभी मुझे उसमें एक चमक दिखाई दी। मानो उसे अब समझ में आया हो कि रोज़ाना दफ़्तर मैं जाती थी, अतः घर की ‘स्वामी’ मैं हूँ। उसे मुझे प्रसन्न करना चाहिए।
उसका तर्क़ गलत नहीं था। व्यावहारिक मामलों में मेरे पति को वहशत होती थी। अवसर शादी-ब्याह का हो या हमारी सोसायटी की वार्षिक मीटिंग का, मुझे ही निबाहना पड़ता था। कभी किसी रिश्तेदार की शवयात्रा में मैं उन्हें जबरन भेजती तो वे हमारे पुत्र आकाश की तरह मुझसे रूठ जाते। तब ऐसा लगता, जैसे बाप-बेटे की उम्र में कोई फ़र्क नहीं।
बिशनसिंह अपनी उधेड़बुन से मुक्त होकर होंठ खोले इससे पहले किसी वाहन के टायर की चिचियाहट उठी, चालक ने अचानक ब्रेक पर पाँव दबाया था। मेरे पति फिर ओटले पर दौड़े आए। हमारे सामने पुलिस की बंद गाड़ी आकर रुकी थी। उसके दो टायरों के बीच माँ हव्वा तड़फड़ा रही थी। उसका सिर कुचल गया था। मैंने साँस रोककर पति की ओर देखा। हमारे वैवाहिक जीवन के सात वर्षों में पहली बार उनके चेहरे पर विभिन्न भाव नज़र आए, जिन्हें मैं पढ़ नहीं सकी। उनमें आघात था, न आक्रोश, न ही घृणा। फिर भी वे काफ़ी कुछ कह रहे थे।
माँ हव्वा की करुण मृत्यु उनके लिए मानो हमारे बेटे के आकस्मिक अवसान के समान थी। मगर उन्होंने शोक नहीं जताया, बल्कि हँसने लगे। फिर मेरी कलाई थामकर वे मुझे भीतर ले आए और जैसे कोई हादसा हुआ ही न हो, वैसे मुझे बगल में खड़ी छो़ड़कर अपने काम में व्यस्त हो गए।
वे अपना ड्राइंगबोर्ड मेज़ के सहारे टिकाकर कुर्सी पर बैठे थे। मैं ग़ौर से उन्हें कार्टून बनाते हुए देखती रही। उन्होंने एक इलेक्ट्रिक चेयर (बिजली की कुर्सी) रेखांकित की थी, जिस पर मृत्युदंड का क़ैदी बैठने जा रहा था, मगर वह क़ैदी यह नहीं जानता था कि किसी ने उस कुर्सी पर एक कील खड़ी कर रखी है। उनके निर्दोष व्यंग्य में कड़ुवाहट घुली थी। वह कड़वाहट जीवन की थी। मौत के साथ भी वे छेड़खानी करने लगे थे। एक निर्दोष प्राणी की हत्या का यह गहरा प्रभाव था, अपनी तूलिका द्वारा वह अभिव्यक्त हो रहा था। जिन रक्षकों के दर्शन की मैंने सुंदर कल्पनाएँ की थीं, उनके आगमन ने मेरे पति के हृदय के किसी अज्ञात कोने में वार किया था। यह तो सिर्फ शुरुआत थी।
हमारे परिवार में मुझे छोड़कर चार सदस्य हैं—एक पति तथा तीन बच्चे। एक बालक जो मेरी कोख से जन्मा है उसका नाम हमने आकाश रखा है, जबकि दूसरी दो मेरे पति की पालतू बिल्लियाँ हैं। इनमें से एक को वह ‘माँ हव्वा’ कहकर पुकारते हैं तो दूसरी को ‘माँ सीता’। अनोखे इन नामों से आपने यह मान लिया हो कि मेरे पति बुद्धिजीवी हैं तो वह भी ग़लत नहीं। वे कार्टूनिस्ट हैं, स्वभाव से बालक जैसे निर्मल भी। सारा दिन वे अपनी धुन में मस्त रहने के बावजूद सुबह-शाम बिल्लियों को दो बार दूध पिलाने का समय कभी नहीं चूकते।
माँ हव्वा सारे मुहल्ले का जायज़ा लेकर हमारी गुरुकुल सोसायटी के अहाते में दाख़िल होती है, तब वह अपनी गरदन उठाकर बुलंद आवाज़ में मेरे पति को सूचना देती है—सावधान, मैं आ गई हूँ। यह सुनकर जाने कहाँ से माँ सीता प्रकट होकर दूध पीने ओटले पर हाज़िर हो जाती है। उन दोनों को कटोरियों से साथ-साथ दूध पीते देखना भी एक अनोखा आनंद है। आपको जानकर अचरज होगा कि स्वभाव से ये दोनों बिल्लायाँ बिलकुल अलग हैं। पहली दिखने में शेर के बच्चे जैसी है, जबकि दूसरी खरगोश जैसी उजली। एक मांसाहार अधिक पसंद करती है तो दूसरी निरामिष कहा जा सकता है। शाकाहार की ओर उसे विशेष रुचि है।
हमारी सोसायटी के किरायेदार भी दो हिस्सों में बँटे हुए हैं। हम सात्त्विक आहार लेने वाले जैन हैं, तो सोसायटी के सेक्रेटरी ईसाई। चौथी मंज़िल पर पारसी तथा मारवाड़ी परिवार बसते हैं, तो पहली मंज़िल पर मुसलमान और सिंधी। इस तरह प्रजा पंचरंगी होते हुए भी हम किरायेदारों के बीच में एकता है वह देखकर किसी भी कंट्टरपंथी को ईर्ष्या हो सकती है। अब तो डाह होने के लिए आसपास की सोसायटियों के सज्जन लोगों को भी कारण मिला। हमारे मकान के नीचे चौबीसों घंटे पुलिस का पहरा जो बैठने वाला था।
‘मिस्टर डिसोज़ा !’’ बस स्टॉप पर हमारे सेक्रेटरी से मुलाक़ात होने पर मैंने जानना चाहा, ‘‘क्या अब हमें हमारे वाचमैन की आवश्यकता रहती है ?’’ कुछ पल उन्होंने मेरे प्रश्न को नज़रों से तोलकर उत्तर दिया, ‘‘अभी पहरा नहीं बैठा।’’ फिर भी मेरा सुझाव उन्हें जँच गया था, ऐसा उनके चेहरे के भाव से स्पष्ट ज़ाहिर था। शायद मन ही मन उन्होंने गिनती कर ली हो, दो चौकीदारों में से रात की ड्यूटी वाले एक को छुट्टी देकर सोसायटी की राशि में थोड़ी-सी बचत की जा सकती है। वैसे भी रात की पाली वाला बिशनसिंह ग्यारह के बाद मुख्य प्रवेश में गुदड़ी बिछा घोड़े बेचकर सो जाता था।
एक बार मंत्रीजी ने स्वयं उसे दो लातें जमाकर फटकारा था। उसने वहीं पाँव थामकर तुरंत क्षमा माँग ली थी, मगर उस पर डाँट का असर उस पर ज़्यादा दिन नहीं टिक सका। अब लगता था, वह ख़ुद ही नहीं टिकेगा। बिशनसिंह को इसकी भनक लग गई। वह सावधान हो गया। अपने फ़र्ज़ में चुस्ती बरतने लगा। इतना ही नहीं, हमारी पालतू बिल्लियों पर उसे स्नेह भी उमड़ आया।
‘‘साब!’’ ओटले पर दोनों बिल्लियों को दूध पिलाकर खड़े मेरे पति को प्रसन्न करने के हेतु उसने कहा, ‘‘दया-धरम तो कोई आपसे सीखे। इन लावारिस जानवरों से इतना प्रेम तो शायद भगवान भी नहीं करते होंगे।’’ उसके शब्दों के पीछे से उठती गूँज मैं सुन सकती थी वास्तव में वह यह कहना चाहता था कि साहब, मैं ग़रीब आदमी हूँ। ज़रा ख़याल रहे, कहीं नौकरी से मुझे हाथ धोना न पड़े। मेरे पति मुस्कराकर अंदर चले आए। उत्तर में जब वे मुस्कान फैलाएँ, तब जान लो कि उन्होंने कान धरे ही नहीं।
बिशनसिंह ने मेरी तरफ देखा। मैं अभी भी ओटले और बैठक के बीच चौखट पर खड़ी उसकी आँखों में झाँक रही थी। तभी मुझे उसमें एक चमक दिखाई दी। मानो उसे अब समझ में आया हो कि रोज़ाना दफ़्तर मैं जाती थी, अतः घर की ‘स्वामी’ मैं हूँ। उसे मुझे प्रसन्न करना चाहिए।
उसका तर्क़ गलत नहीं था। व्यावहारिक मामलों में मेरे पति को वहशत होती थी। अवसर शादी-ब्याह का हो या हमारी सोसायटी की वार्षिक मीटिंग का, मुझे ही निबाहना पड़ता था। कभी किसी रिश्तेदार की शवयात्रा में मैं उन्हें जबरन भेजती तो वे हमारे पुत्र आकाश की तरह मुझसे रूठ जाते। तब ऐसा लगता, जैसे बाप-बेटे की उम्र में कोई फ़र्क नहीं।
बिशनसिंह अपनी उधेड़बुन से मुक्त होकर होंठ खोले इससे पहले किसी वाहन के टायर की चिचियाहट उठी, चालक ने अचानक ब्रेक पर पाँव दबाया था। मेरे पति फिर ओटले पर दौड़े आए। हमारे सामने पुलिस की बंद गाड़ी आकर रुकी थी। उसके दो टायरों के बीच माँ हव्वा तड़फड़ा रही थी। उसका सिर कुचल गया था। मैंने साँस रोककर पति की ओर देखा। हमारे वैवाहिक जीवन के सात वर्षों में पहली बार उनके चेहरे पर विभिन्न भाव नज़र आए, जिन्हें मैं पढ़ नहीं सकी। उनमें आघात था, न आक्रोश, न ही घृणा। फिर भी वे काफ़ी कुछ कह रहे थे।
माँ हव्वा की करुण मृत्यु उनके लिए मानो हमारे बेटे के आकस्मिक अवसान के समान थी। मगर उन्होंने शोक नहीं जताया, बल्कि हँसने लगे। फिर मेरी कलाई थामकर वे मुझे भीतर ले आए और जैसे कोई हादसा हुआ ही न हो, वैसे मुझे बगल में खड़ी छो़ड़कर अपने काम में व्यस्त हो गए।
वे अपना ड्राइंगबोर्ड मेज़ के सहारे टिकाकर कुर्सी पर बैठे थे। मैं ग़ौर से उन्हें कार्टून बनाते हुए देखती रही। उन्होंने एक इलेक्ट्रिक चेयर (बिजली की कुर्सी) रेखांकित की थी, जिस पर मृत्युदंड का क़ैदी बैठने जा रहा था, मगर वह क़ैदी यह नहीं जानता था कि किसी ने उस कुर्सी पर एक कील खड़ी कर रखी है। उनके निर्दोष व्यंग्य में कड़ुवाहट घुली थी। वह कड़वाहट जीवन की थी। मौत के साथ भी वे छेड़खानी करने लगे थे। एक निर्दोष प्राणी की हत्या का यह गहरा प्रभाव था, अपनी तूलिका द्वारा वह अभिव्यक्त हो रहा था। जिन रक्षकों के दर्शन की मैंने सुंदर कल्पनाएँ की थीं, उनके आगमन ने मेरे पति के हृदय के किसी अज्ञात कोने में वार किया था। यह तो सिर्फ शुरुआत थी।
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