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भारत की चित्रकला की कहानी

भगवतशरण उपाध्याय

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 653
आईएसबीएन :9788170284642

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भारत की चित्रकला का चित्रण...

Bharat Ki Chitrakala Ki Kahani a hindi book by Bhagwat Sharan Upadhyay - भारत की चित्रकला की कहानी - भगवतशरण उपाध्याय

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय चित्रकला

भारतीय चित्रों की कहानी उतनी ही पुरानी है, जितनी भारतीय मूर्तियों की। बल्कि यह उससे भी पुरानी हो सकती है क्योंकि चित्र बनाना मूर्तियों की तुलना में ज्यादा आसान होता है। यह कहानी आज से करीब पाँच हजार साल पहले शुरू होती है, और अगर हम जँगली शिकारियों की तस्वीरों का उल्लेख करें तो दस हजार साल पहले से भी पहले। पर मूर्तियों और चित्रों के इतिहास में एवं दोनों के विकास के तरीकों में कुछ अन्तर भी रहा है। मूर्तियाँ हमें शुरू से ही आश्चर्य के नमूनों के रूप में मिलती हैं, पर चित्र मूर्तियों की तरह, आरम्भ में बहुत मनोहारी नहीं मिलते। हालाँकि अपने देश की पहली मूर्तियों से पहले के चित्र हजारों क्या दसों हजारों बरस ज्यादा पुराने हैं।

इसी तरह मूर्तियों का अरम्भ भरा-पूरा होने के बावजूद बारहवीं सदी ईस्वी के बाद उनका बनना बन्द-सा हो जाता है। पर बारहवीं सदी के बाद चित्रों की एक से बढ़कर एक शैलियाँ चल पड़ती हैं, जो लगातार अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी तक काफी मात्रा में जीवित रहती हैं और बीसवीं सदी में जहाँ मूर्तिकला सदियों से गायब रहकर बड़े हल्के तौर से हमारे कलाकारों की ओर अपने को खींचती हैं, चित्रकला अपने वर्तमान युग के विविध प्रयोगों में फिर से जी उठती है।
भारतीय चित्रकला की कहानी समझने के लिए हमें उसे नीचे लिखे बारह युगों में बाँटना होगा—1. बर्बर युग; 2. अजन्ता से पहले; 3. अजन्ता-गुप्त युग; 4. पूर्व-मध्य युग; 5. उत्तर-मध्य युग; 6. राजपूत युग 7. मुगलशैली से पहले; 8. मुगलशैली; 9 पहाड़ी शैली; 10. भारतीय शैली का विस्तार और अनुकरण; 11 राष्ट्रीय पुनरुज्जीवन युग; 12. वर्तमान युग।

 

1.

बर्बर युग

 

 

बर्बर युग आज से हजारों साल पहले का वह युग है, जब आदमी अपनी आदिम हालत में था और उसे सभ्यता की किरण भी नहीं मिली थी। तब वह पेड़ों पर, गुफाओं में, गड्ढ़ों में रहता था। नंगा ही घूमता था या अधिक-से-अधिक पत्तों, पेड़ों की छाल या मारे हुए जानवरों की खाल से अपना तन ढकता था। न तो उसके पास रहने को गाँव थे, न मकान, न खाने को उगाया हुआ अन्न था, न पहनने को वस्त्र। जीने के साधन उसके पास सीमित थे। उन साधनों में सबसे महत्त्वपूर्ण शिकार था। शिकार करके ही वह अपना पेट पालता था।

पर यह शिकार बहुत आसान नहीं था। छोटे-बड़े खूँखार जानवरों का शिकार और वह भी मामूली हथियारों से। तब हाथी से कई गुना बड़े जानवर थे, जो आज खत्म हो गए हैं। ऐसे ही तलवार के से दाढ़ों वाले शेर थे, जिनकी शक्ल आज बिलकुल बदल गई है। तब धातु का ज्ञान नहीं हुआ था। अतः हथियार पत्थर के ही थे, तेज पत्थर के, जिन्हें रगड़कर और फिर लड़की में ठोंककर भाले का फल बना लिया जाता था।

शिकार करना इतना कठिन था कि आदमी अपनी सफलता के लिए अपनी ताकत के ऊपर ही निर्भर नहीं करता था। वह उसके लिए कई प्रकार के जादू-टोने भी करता था। इस प्रकार का एक टोटका था अपनी पहाड़ी की खोह की दीवार पर शिकार किए जाने वाले जानवरों का रेखाचित्र बनाकर, उसे तीरों और भालों से बेध देना। यह शिकारियों को शिकार के शरीर को, उसके अंग-प्रत्यंग को पूरी तरह समझने का मौका देता ही था, साथ ही शिकारियों के विश्वास के अनुसार उन्हें मारने का टोटका भी तैयार कर देता था। अपने भालों से मारने के पहले शिकारी शिकार को चित्र में मार डालते थे। इन रेखाचित्रों को जब-तब फुरसत में वे रंगों से भी सँवारते थे।

इस प्रकार के अनेक चित्र आज से पच्चीस-पच्चीस हजार साल पुराने, उनसे भी पुराने और नए, स्पेन, फ्रांस और अपने देश की खोहों-कन्दराओं में बने मिले हैं। स्पेन देश की अल्टामाइरा और दक्खिनी फ्रांस में सांड़-भैंसों के शिकार के अनुपम चित्र मिलते हैं। ऐसे ही अपने देश में भी मध्य प्रदेश की कुछ कन्दराओं में और मिर्जापुर की गुफाओं में उस प्रचीन काल के जंगली शिकारियों के चित्र हैं, जो हमारे देश की चित्रकला के सबसे पुराने नमूने हैं।

इसके बाद चित्रकारी के नमूने हमें अपने देश में आज से करीब पाँच हजार साल पहले के मिलते हैं। ये सिन्धु घाटी सी सभ्यता के हैं, जो मोहनजोदड़ो, हड़प्पा और नाल में मिले हैं। ये तीनों इस समय पाकिस्तान में हैं। मोहनजोदड़ो सिन्ध में, हड़प्पा मिंटगुमरी जिले में तथा नाल बलूचिस्तान में है। इसके नमूने कागज पर नहीं है; क्योंकि आदमी ने अभी कागज का इस्तेमाल नहीं सीखा था। फिर भी खूबसूरती का प्रेमी होने के कारण वह अपने बर्तनों, मटकों को चटक रंगों से रँगता और उन पर कई रंगों से साँपों, चटाई और बुनाई और दूसरे प्रकार की शक्लें या जानवरों की तश्वीरें बनाता था। तब के अनेक नमूने हमारे और पाकिस्तान के अजायबघरों में रखे हुए हैं।

बाद के चित्र पत्थर, लकड़ी, हड्डी, हाथी दाँत, चमड़ा, कपड़ा ,भोजपत्र, ताड़पत्र, कागज आदि पर बने। अगले युगों के चित्रों के वर्णन इन्हीं पर बनी तस्वीरों से सम्बन्ध रखते हैं।

 

2.

अजन्ता से पहले

 

 

अजन्ता के चित्रों का युग भारतीय इतिहास का एक सुनहरा युग है, जो गुप्तकाल यानी चौथी पाँचवीं सदी ईश्वी से शुरू होता है। इसका यह मतलब नहीं कि उसके चित्र पहले कम बनते थे। स्वयं अजन्ता में गुप्तकाल से पहले के चित्र हैं। पर कला की नजर से वे गुप्तकाल या उसके पीछे के युगों के मुकाबले नहीं हैं। जो हैं, उनको गुप्तकाल की चित्रकला की सुन्दरता ती पिछली मँजिलों के रूप में देखा जाता है।

इस सम्बन्ध में पहले एक बात बता देना उचित होगा। बर्बर-युग की चित्रकला का लम्बे समय तक सिलसिला जारी न रह सका। कम-से-कम तब के नमूने हमारे पास नहीं हैं। वैदिक काल के चित्रों का हमें पता नहीं हैं। शायद वे इन्हीं चीजों पर बनते थे

जो नष्ट हो गए हैं, पर बनते अवश्य थे, क्योंकि वैदिक काल साहित्य में उनका कई बार उल्लेख हुआ है। ऐसे ही रामायण, महाभारत, बौद्धों और जैनों की पुरानी पुस्तकों, जातकों आदि में चित्रों और उनको बनाने की विधियों का उल्लेख मिलता है।

भारतीय चित्रकला की जंगली शैली के सबसे पुराने नमूने हमें सरजुगा के पास जोगीमरा और सीताबोंगा की गुफाओं में मिलते हैं। शायद ये ईसा से दो सौ वर्ष पहले के हैं। ये भित्तिचित्र हैं-दीवारों पर बने। पहले के सारे चित्र दीवारों पर मिलते हैं। इसके बाद के भित्तिचित्र अजन्ता में हैं, जिनमें सबसे प्रचीन शुंग और कुषाण काल के हैं।
शुंग काल का अरम्भ मौर्यों को बाद ईसा से करीब 185 साल पहले, आज से कोई दो हजार साल से काफी पहले हुआ।

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