बहुभागीय पुस्तकें >> कृष्ण की आत्मकथा - राजसूय यज्ञ कृष्ण की आत्मकथा - राजसूय यज्ञमनु शर्मा
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‘कृष्ण की आत्मकथा’ का छठा भाग
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कृष्ण के अनगिनत आयाम हैं। दूसरे उपन्यासों में कृष्ण के किसी विशिष्ट आयाम को लिया गया है। किन्तु आठ खण्डों में विभक्त इस औपन्यासिक श्रृंखला ‘कृष्ण की आत्मकथा’ में कृष्ण को उनकी संपूर्णता और समग्रता में उकेरने का सफल प्रयास किया गया है। किसी भी भाषा में कृष्णचरित को लेकर इतने विशाल और प्रशस्त कैनवस का प्रयोग नहीं किया गया है।
यथार्थ कहा जाए तो ‘कृष्ण की आत्मकथा’ एक उपनिषदीय ग्रन्थ है। श्रृंखला के आठ खण्ड इस प्रकार है :
नारद की भविष्यवाणी
दुरभिसंधि
द्वारका की स्थापना
लाक्षागृह
खांडव दाह
राजसूय यज्ञ
संघर्ष
प्रलय
मेरी मनुजात की वास्तविकता पर जब चमत्कारों का कुहासा छा जाता था तब लोग मुझमें ईश्वरत्व का अनुभव करने लगते हैं। मैं भी अपने में ईश्वरत्व की तलाश में लग जाता हूँ। शिशुपाल के वध के समय भी मेरी मानसिकता कुछ ऐसे ही भ्रम में पड़ गई थी ; पर जब उसके रक्त के प्रवाह में मुझे अपना ही रक्त दिखाई पड़ा तब मेरी यह मानसिकता धुल चुकी थी। उसका अहं अदृश्य हो चुका था। मेरा वह साहस छूट चुका था कि मैं यह कहूँ कि मैंने इसे मारा है। मारने वाला तो कोई और ही था। वस्तुतः उसके कर्मों ने ही उसे मारा। वह अपने शापों से मारा गया।
संसार में सारे शापों से मुक्त होने का कोई-न-कोई प्रायश्चित है ; पर जब अपने कर्म ही शापित करते हैं तब उसका कोई प्रायश्चित नहीं।
आखिर वह मेरा भाई था। मैं उसे शापमुक्त भी नहीं करा पाया। मेरा ईश्वरत्व उस समय कितना सारहीन, अस्तित्वहीन, निरुपाय और असमर्थ लगा!
यथार्थ कहा जाए तो ‘कृष्ण की आत्मकथा’ एक उपनिषदीय ग्रन्थ है। श्रृंखला के आठ खण्ड इस प्रकार है :
नारद की भविष्यवाणी
दुरभिसंधि
द्वारका की स्थापना
लाक्षागृह
खांडव दाह
राजसूय यज्ञ
संघर्ष
प्रलय
मेरी मनुजात की वास्तविकता पर जब चमत्कारों का कुहासा छा जाता था तब लोग मुझमें ईश्वरत्व का अनुभव करने लगते हैं। मैं भी अपने में ईश्वरत्व की तलाश में लग जाता हूँ। शिशुपाल के वध के समय भी मेरी मानसिकता कुछ ऐसे ही भ्रम में पड़ गई थी ; पर जब उसके रक्त के प्रवाह में मुझे अपना ही रक्त दिखाई पड़ा तब मेरी यह मानसिकता धुल चुकी थी। उसका अहं अदृश्य हो चुका था। मेरा वह साहस छूट चुका था कि मैं यह कहूँ कि मैंने इसे मारा है। मारने वाला तो कोई और ही था। वस्तुतः उसके कर्मों ने ही उसे मारा। वह अपने शापों से मारा गया।
संसार में सारे शापों से मुक्त होने का कोई-न-कोई प्रायश्चित है ; पर जब अपने कर्म ही शापित करते हैं तब उसका कोई प्रायश्चित नहीं।
आखिर वह मेरा भाई था। मैं उसे शापमुक्त भी नहीं करा पाया। मेरा ईश्वरत्व उस समय कितना सारहीन, अस्तित्वहीन, निरुपाय और असमर्थ लगा!
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