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बूढ़ी काकी तथा अन्य नाटक

चित्रा मुदगल

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 650
आईएसबीएन :9788170288886

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प्रेमचन्द्र की कहानियों का हिन्दी नाट्य-रूपान्तर

Boodhi Kaki Tatha Anya Natak - A hindi Book by - Chitra Mudgal - बूढ़ी काकी तथा अन्य नाटक - चित्रा मुदगल

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रेमचन्द्र की इन कहानियों का चुनाव और नाट्य-रूपान्तर व्यास सम्मान से सम्मानित हिन्दी की प्रतिष्ठित कथाकार चित्रा मुद्गल ने किया है। ‘आवाँ’ जैसे चर्चित उपन्यास की लेखिका होने के साथ-साथ वे प्रसार भारती बोर्ड की हिन्दी सलाहकार सदस्य भी हैं और दृश्य-श्रव्य माध्यम का समृद्ध अनुभव भी उनके पास है।
आशा है, प्रेमचन्द्र की कहानियों के इन नाट्य रूपान्तरों का पाठकों के बीच स्वागत होगा।
भारतीय जन-जीवन के कुशल कथाशिल्पी प्रेमचन्द्र की श्रेष्ठ कहानियों के नाट्य रूपान्तर जिन्हें सुपरिचित कथाकार चित्रा मुद्गल ने प्रस्तुत किया है। रेडियो और दूरदर्शन से प्रसारित हो चुके ये नाटक स्कूलों के छात्र भी आसानी से खेल सकते हैं।
‘व्यास सम्मान’ से सम्मानित हिन्दी की प्रतिष्ठित कथाकार चित्रा मुद्गल ने कहानियों का नाट्य-रूपान्तर किया है।
सुगमता से अभिनीत हो सकने वाले नाटकों का हिन्दी में अभाव है। प्रेमचन्द्र की कहानियों के ये नाट्य रूपान्तर इस कमी को पूरा करेंगे।

बालक


स्थान : कहानीकार का घर, बाजार
संगीत : लोकवाद्यों का प्रयोग

पात्र

कहानीकार : लेखक, अनुशासनप्रिय तर्कशील रोबदार व्यक्तित्व (45 वर्ष)
गंगू : मानवीय गुणों से ओत-प्रोत, जातिगत अनुकूलन से मुक्त (40 वर्ष)
साईस : 40 वर्ष
बच्चा : एक महीने का
व्यक्ति 1
व्यक्ति 2
व्यक्ति 3
व्यक्ति 4
व्यक्ति 5
व्यक्ति 6
अम्मा : यह तुमने बहुत अच्छा किया।
बाबूजी : पुनः बिहंसते हुए) उसकी बीमारी की यही दवा है, सुबोध की माँ !
(संगीत-लोकधुन)


1



(लेखक अपने कमरे में बैठा गंगू के बारे में बयान कर रहा है। रेडियो पर नूरजहाँ का एक गीत बज रहा है-‘जवाँ है मुहब्बत हँसी है जमाना....’ गीत के धीमे होते ही लेखक की आवाज प्रखर होती है)।
कहानीकार : (स्वतः) गंगू को लोग ब्राह्मण कहते हैं और वह अपने को ब्राह्मण समझता भी है। मेरे साईस और खिदमतगार मुझे दूर से सलाम करते हैं। गंगू मुझे कभी सलाम नहीं करता। वह शायद मुझसे पालागन की आशा करता है। मैं मालिक हूँ, फिर भी मेरा जूठा गिलास कभी हाथ से नहीं छूता। न मेरी कभी इतनी हिम्मत हुई कि उससे पंखा झलने के लिए कहूँ। जब मैं पसीने से तर होता हूँ और वहाँ कोई अन्य खिजमतगार उपस्थित नहीं होता तो गंगू आप ही आप पंखा उठा लेता है और झलने लगता है। मगर उसकी मुद्रा से यह भाव स्पष्ट प्रकट होता है कि वह मुझ पर एहसान कर रहा है। और, मैं भी न जाने क्यों, फौरन उसके हाथ से पंखा छीन लेता हूँ। गंगू उग्र स्वभाव का मनुष्य है। किसी की बात नहीं सह सकता। ऐसे बहुत कम आदमी होंगे, जिनसे उसकी मित्रता हो। फिर भी साईस और खिदमतगार के साथ बैठना शायद वह अपमानजनक समझता है। आश्चर्य यह है कि उसे भंग बूटी से प्रेम नहीं है, जो इस श्रेणी के मनुष्यों में असाधारण गुण है। मैंने कभी उसे पूजा-पाठ करते या नदी में स्नान करते नहीं देखा। दरअसल, मेरा स्वभाव कुछ इस तरह का है कि अपने नौकरों से बहुत बोलता हूं। मैं चाहता हूँ, जब तक मैं खुद न बुलाऊँ, कोई मेरे पास न आए। पर एक दिन जब प्रात-काल मैं अपने जूते के फीते बाँध रहा था, गंगू मेरे सामने आकर खड़ा हो गया तो मुझे बहुत बुरा लगा। मैंने ज़रा उपेक्षा भाव से ही पूछा :

(दृश्यान्तर)

2


(कुर्सी पर पाँव टिका कहानीकार जूते के फीते बाँध रहा है।)

कहानीकारः रौब से क्या बात है गंगू, मैंने तो तुम्हें बुलाया नहीं ?
गंगू : असमंजस से जी ऽ वो ऽऽ मैं...
कहानीकारः विनम्र होकर आख़िर क्या बात है, कहते क्यों नहीं ? तुम तो जानते ही हो, यह मेरे टहलने का समय है। मुझे देर हो रही है।
गंगूः (निराश होकर) तो आप हवा खाने जाएँ। मैं फिर आ जाऊँगा !
कहानीकार : फिर तुम मेरे विश्राम के समय हाज़िर हो जाओगे जो मुझे पसन्द नहीं। रुखे होकर क्या कुछ पेशगी माँगने आए हो ? तुम्हें तो मालूम है, मैं पेशगी नहीं देता। महीना पूरा होने पर ही तनख्वाह देता हूँ ?
गंगू : जी नहीं, सरकार ! मैंने तो कभी पेशगी नहीं माँगा। न माँगने आया हूँ।
कहानीकार: तो क्या किसी की शिकायत करना चाहते हो ? मुझे शिकायतों से घृणा है।
गंगूः जी नहीं, सरकार ! मैंने तो कभी किसी की शिकायत नहीं की ?

कहानीकारः (क्षुब्ध हो, स्वतः) उफू, यह गंगू तो मेरे पीछे ही पड़ गया है। मेरे लिखने-पढ़ने को तो शायद यह कुछ काम समझता हो, लेकिन विचार-प्रक्रिया को, जो मेरे लिए सबसे कठिन साधना है और एक लेखक की रचनात्मकता के लिए बेहद जरूरी जिसे मैं सुबह टहलते हुए ही साधने की कोशिश करता हूँ-कोई मायने नहीं रखती ! सोचा, देर हो रही है तो होने दूँ। गंगू से निपट ही लूँ।

(उसकी ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से) तो फिर ? कोई तो बात होगी जो तुम मुझसे कहना चाहते हो गंगू और कहने आए हो ?
गंगू : (लड़खड़ाते स्वर में) सरकार, सरकार अब, आप मुझे छुट्टी दे दें। मैं आपकी नौकरी अब न कर सकूँगा।
कहानीकारः (विस्मय से) क्यों, क्या बात है ? मैंने कुछ कहा तुम्हें !
गंगूः (विनम्र भाव से) सरकार, आपने तो जैसा अच्छा स्वभाव पाया है वैसा क्या कोई पाएगा ! लेकिन, बात ऐसी आ पड़ी है, अब मैं आपके यहाँ नहीं रह सकता। ऐसा न हो पीछे से कोई बात हो जाए तो आपकी बदनामी हो। मैं नहीं चाहता कि मेरी वजह से आपकी आबरू में बट्टा लगे।
कहानीकारः तुम तो पहेलियाँ बुझा रहे हो गंगू ! साफ-साफ क्यों नहीं कहते मामला क्या है ?
गंगूः (नजरें नीची करके) बात यह है, वह स्त्री जो अभी विधवा आश्रम से निकाल दी गई है, सरकार, वही, गोमती देवी...
कहानीकारः (उत्सुक होकर) हाँ, निकाल दी गई है-तो फिर ? तुम्हारी नौकरी से गोमती देवी का क्या सम्बन्ध ?
गंगूः हम, हम उससे ब्याह करना चाहता हूँ सरकार।
कहानीकारः (विस्मित होकर) गोमती देवी से ?

गंगूः (शान्त स्वर में) हाँ सरकार !
कहानीकारः तुम पुराने विचारों के पोंगा ब्राह्मण, उस कुलटा से विवाह करने जा रहे हो, जिसे कोई भला आदमी अपने घर में कदम भी न रखने दे ? तुम्हें मालूम है, आश्रम के कर्मचारियों ने तीन-तीन बार उसका विवाह करवाया, पर वह कुलच्छिनी महीने पन्द्रह दिन भी वहाँ न टिक सकी ! तंग आकर आश्रम के मन्त्री ने उसे आश्रम से ही निकाल दिया। तभी से वह इसी मोहल्ले में एक कोठरी किराए पर लेकर रह रही है। और सारे मुहल्ले के शोहदों के लिए मनोरंजन का केन्द्र बनी हुई है।
गंगूः (भोलेपन से) सब झूठ है, सरकार सब झूठ है। लोगों ने बेमतलब गोमती को बदनाम कर दिया है।
कहानीकारः (पुनः विस्मय से) फिर वही ढाक के तीन पात ! तीनों बार वह अपने पतियों को छोड़ भाग नहीं आई ? तुम्हारे साथ तो एक सप्ताह भी निबाह न होगा गंगू !
गंगूः उन लोगों ने उसे निकाल दिया था सरकार, तो भला गोमती क्या करती ?
कहानीकारः कैसे बुद्धू आदमी हो, कोई इतनी दूर से आकर विवाह करके ले जाता है, हजारों रुपये खर्च करता है, इसलिए, कि औरत को निकाल दे ?

गंगू : (भावुकता से भरकर) जहाँ प्रेम नहीं है हुजूर, वहाँ कोई स्त्री नहीं रह सकती। स्त्री केवल रोटी कपड़ा ही नहीं चाहती-कुछ प्रेम भी तो चाहती है ! वे लोग समझते होंगे, हमने एक विधवा से विवाह करके उसके ऊपर बहुत बड़ा उपकार किया है। चाहते होंगे, तन-मन से वह उनकी हो जाए, लेकिन दूसरे को अपना बनाने के लिए पहले आप उसका बन जाना पड़ता है हुजूर। फिर उसे एक बीमारी भी है...
कहानीकार : कैसी बीमारी ?
गंगू : उसे कोई भूत लगा हुआ है हुजूर ! कभी-कभी बक-झक करने लगती है और बेहोश हो जाती है।
कहानीकारः फिर भी तुम ऐसी स्त्री से विवाह करोगे ? तो समझ लो तुम्हारा जीवन कड़ुवा हो जाएगा।
गंगूः (भावावेश में) मैं समझता हूँ मेरी ज़िन्दगी बन जाएगी बाबूजी, आगे भगवान की मर्जी। माथे का लेखा मैं टाल तो नहीं सकता।
कहानीकारः (जोर से) तो ऽऽ, तुमने तय कर लिया है ?
गंगूः (सुदृण होकर) हाँ, सरकार एकदम !

कहानीकार : तो मैं तुम्हारा इस्तीफा़ मंजूर करता हूँ। समझाना मेरा काम था गंगू ! तुम जीते-जी मक्खी निगलना चाहते हो-निगलो।
शौक़ से।
संगीत-लोकधुन
(दृश्यान्तर)


3


संगीत को काटता कहानीकार का प्रखर होता स्वर।
कहानीकार : (स्वतः) वैसे मैं, निरर्थक रूढियों और व्यर्थ के बन्धनों का दास नहीं हूँ; लेकिन जो आदमी एक दुष्टा स्त्री से विवाह करे, उसे अपने यहाँ रखना वास्तव में जटिल समस्या थी। आए दिन टण्टे-बखेड़े खड़े होंगे। सम्भव है, चोरी की वारदातें दलदल से दूर ही रहना। इसलिए मैंने गंगू पर नौकरी में बने रहने के लिए कोई दबाव नहीं बनाया।
गंगू क्षुधा पीड़ित प्राणी की भाँति रोटी का टुकड़ा देखकर उसकी ओर लपक रहा है। रोटी जूठी है, सूखी हुई है, खाने योग्य नहीं है, इसकी उसे परवाह न थी।

पाँच महीने गुजर गए। गंगू ने गोमती से विवाह कर लिया था। और उसी मोहल्ले में एक खपरैल की कोठरी किराए पर लेकर रहता था। एक दिन अचानक बाजार में उससे भेंट हो गई।


4



(बाजार की गहमागहमी। ‘आलू ले लो भैया’, परवल ले लो भैया ऽऽ परवल ताजे हरे परवल।’ चवन्नी के सेर अमरूद आदि गडमड होते स्वर।)

गंगूः (पीछे से पुकारते हुए) सरकार सुनिए सरकार...ज़रा ठहरिए।
कहानीकार : (पीछे पलटकर) कौन, गंगू तुम ! अरे, कैसे हो भाई ? इतने दिनों बाद दिखाई दिए हो।
गंगू : (अभिभूत होकर) मजे में हूँ सरकार ! आप बाज़ार में कैसे ?
कहानीकारः (बात काटकर) कहीं से आ रहा था। आजकल तुम क्या कर रहे हो ?
गंगूः (विनीत स्वर में) इसी बाज़ार में चाट का खोमचा लगाता हूँ....सरकार वह रहा पंसारी की दुकान के सामने ! वही पक्की जगह मेरी। पंसारी मुझसे कोई किराया नहीं लेता। कभी-कभार चाट-पानी खा लेता है।

कहानीकारः (अचरज से) चाट का खोमचा ? कितना कमा लेते हो ? बिक्री होती है ?
गंगूः रुपये बीस आने की बिक्री रोज़ हो जाती है बाबूजी ! लागत निकालकर आठ-दस आने बच ही जाते हैं।
कहानीकारः (उपेक्षा से) बस। इतने में गुज़र हो जाती है तुम्हारी ?
गंगूः (सन्तुष्ट भाव से) घर की औरत अगर समझदार और फिजूल-खर्च न हो तो आठ-दस आने में भी सुखपूर्वक जिया जा सकता है, हजूर ! इस मामले में गोमती बड़ी सुघढ़ है।
कहानीकारः हुँअ ऽ, अच्छा है। चलता हूँ गंगू !
गंगूः (हाथ जोड़कर) सरकार, कभी हमारी कुटिया पर भी आइए।
कहानीकारः (आगे बढ़ते हुए) देखेंगे।
संगीत-लोकधुन


5


(बरामदे में आकर कहानीकार साईस से पूछता है।)

कहानीकारः (रौब से) घोड़ा तैयार है साईस ? (घोड़े के हिनहिनाने का स्वर।)
साईसः तैयार है सरकार ! सरकार...
कहानीकारः बोलो कुछ कहना चाहते हो ?
साईसः (हिचकिचाते हुए) बड़ी बुरी खबर है हुजूर, नुक्कड़ का पान वाला चौरसिया बता रहा था, अपना गंगू बेहाल है....
कहानीकारः (घोड़े की पीठ थपकाते हुए) अपना ?
साईसः (हकलाते हुए) स, स, सरकार...
कहानीकारः तिरस्कार से बेहाल क्यों है ? क्या हुआ उसे ! तबीयत तो ठीक है ?
साईसः सरकार, उसकी बीवी गोमती उसे छोड़कर भाग गई ! गंगू सदमे को बदार्श्त नहीं कर पा रहा। खाना पीना छोड़ रखा है उसने....

कहानीकारः (स्वतः) आख़िर वही बात हुई जिसका मुझे सन्देह था ! कितना समझाया था गंगू को ! यह स्त्री विश्वास के योग्य नहीं है।
कितनों को दगा दे चुकी है। तुम्हारे साथ भी दगा करेगी। लेकिन बेवकूफ के कान में जूँ तक न रेंगी। (हुँहु !) परोपकार की पड़ी हुई थी न ! अब मिलेगा तो पूछूँगा, क्यों बाँमन महाराज, गोमती देवी का यह वरदान पाकर तुम प्रसन्न हुए या नहीं ? तुम तो कहते थे, वह ऐसी है, वैसी है। लोग उसके प्रति दुर्भावना रखते हैं।
(कहानीकार कूदकर घोड़े पर चढ़ता है, घोड़े को एड़ लगाता है और हवा से बातें करने लगता है। घोड़े की तेज टापों की ध्वनि।
(संगीत-लोकधुन)

6


(बाज़ार की गहमागहमी। बेचनेवालों की चीख़-पुकार। ‘भुट्टा ले लो बाबू, इकन्नी का सेर, इकन्नी का सेर....’’, ऐसी अनेक आवाज़ें ग्राहकों को आकर्षित करती हुई। कहानीकार को पीछे से गंगू पुकारता है।)

गंगूः बाबूजी, बाबूजी...सरकार...सुनिए सरकार।
कहानीकार : गंगू तुम तुम्हारी आँखों में आँसू और तुम इस फटेहाल हुलिया में ? कितने दिन से खाना-पीना छोड़ा हुआ है ?
गंगूः (अवरुद्ध कंठ से) गोमती ने मेरे साथ विश्वासघात किया है सरकार...
कहानीकारः (कुटिलता से) हाँ-हाँ, मैंने बहुत कुछ सुना है। गलती सरासर तुम्हारी है गंगू ! तुमसे तो मैंने पहले ही कहां था गंगू; लेकिन तुम माने ही नहीं। अब सब्र करो। सब्र के अलावा उपाय ही क्या है...घर की जमा पूँजी भी समेट ले गई या कुछ छोड़ गई।
गंगूः (रुधें गले से) सरकार, ऐसा न कहिए, गोमती ने धेले-भर की चीज नहीं छूई, जो कुछ अपना था, उसे भी छोड़ गई। जाने उसने मुझमें क्या बुराई देखी क्या कमी देखी ? मैं उसके ? योग्य न था और क्या कहूँ बाबूजी ! वह पढ़ी-लिखी थी, मैं करिया अक्षर भैंस बराबर। मेरे साथ इतने दिन रही, यही बहुत है। कुछ दिन और उसके साथ रह जाता तो कायदे का आदमी बन जाता। (दीर्घ निःश्वास छोड़)

कहानीकारः (ऊपर से नीचे तक घूरते हुए) हुँअ ! नज़र आ रहा है।
गंगू : (अपनी रौ में) अब, अब उसके गुणों का आपसे कहाँ तक बखान करूँ हजूर ! औरों के लिए गोमती चाहे जो कुछ रही हो, मेरे लिए तो किसी देवता का आशीर्वाद थी। बहते आँसू पोंछकर मैं फिर कहूँगा, जाने मुझसे ऐसी क्या गलती हो गई सरकार...
कहानीकारः (व्यंग्य से) तो, तुम्हारे घर से गोमती कुछ ले नहीं गई ?
गंगूः कहा न बाबूजी, धेले की भी चीज नहीं छूई उसने।
कहानीकार : और तुमसे प्रेम भी बहुत गहरा करती थी ?
गंगूः अब आपसे क्या कहूँ सरकार उसका प्रेम तो मरते दम तक न भूलूँगा। भूल ही नहीं सकता !
कहानीकारः फिर भी तुम्हारी प्राणप्यारी तुम्हें छोड़कर चली गई हूँ ?
गंगूः (भोलेपन से) यही तो अचरज है, बाबूजी कुछ समझ में नहीं आ रहा। हर समय दिमाग चक्कर- घिन्नी सा घूमता रहता है ! आँसू पोंछते हुए।

कहानीकारः त्रिया-चरित्र का नाम सुना है कभी ?
गंगू : (नाक सुड़ककर) सरकार, ऐसा न कहिए। मेरी गर्दन पर कोई छुरी रख दे तो भी मैं उसका जस गाऊँगा। मेरी गोमती ऐसी नहीं है। चरित्र उसका बहुत ऊँचा है।

कहानीकार : इतना विश्वास है उस पर, तो जाओ, टिसुए बहाना छोड़ो और उसे ढूँढ़ निकालो।
गंगू : (आत्मविश्वास से) हाँ, मालिक हाँ। आपने भली कही। जाऊँगा, जरूर-जरूर जाऊँगा। जब तक उसे ढूँढ न लाऊँगा, चैन न आएगा। बस, मुझे इतना मालूम हो जाए, कहाँ है गोमती ! फिर तो मैं उसे ले ही आऊँगा। और बाबू जी, मेरा जी कहता है, गोमती आएगी जरूर। मैं अगर उसके बिना नहीं रह पा रहा हूँ तो वह भी मेरे बिना नहीं रह पाएगी। (स्वतः बुदबदाते हुए) जाता हूँ, महीने-दो महीने जंगल-पहाड़ की धूल छानूँगा। जीता रहा तो फिर आपके दर्शन करूँगा बाबूजी ! जानता हूँ, मन ही मन आप मेरे लिए चिन्तित हैं ! आप चिढ़ नहीं रहे-चिन्ता कर रहे हैं मेरे बाबूजी चिन्ता कर रहे हैं !
(संगीत-लोकधनु)


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