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राम कथा - संघर्ष की ओर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6499
आईएसबीएन :21-216-0761-2

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, तीसरा सोपान

लक्ष्मण के आवेश को टालने के लिए सतर्क राम का अपना स्वर आवेशपूर्ण हो उठा, "यह एक पक्ष है। इसका दूसरा पक्ष राक्षस-संस्कृति और चिंतन है। क्या आप यह नहीं मानते कि इस समय स्वार्थजीवी ज्ञानी, विज्ञानी और बुद्धिजीवी ही राक्षस-संस्कृति के मूल में हैं? उन्होंने समस्त मानवीय ज्ञान-विज्ञान, चिंतन-मनन इत्यादि को समाज-निरपेक्ष तथा स्वार्थ-सापेक्ष कर रखा है। यदि आप भी उसी मार्ग पर चलकर अपनी एकांत साधना को बौद्धिक ऊंचाइयों तक ले जाना चाहते हैं, तो उसका कोई लाभ नहीं है। शक्ति चाहे शारीरिक हो, चाहे बौद्धिक, जब समाज और मानवता-निरपेक्ष हो जाती है, न्याय-अन्याय का विचार छोड़, असमर्थ के विरुद्ध, समर्थ के पक्ष में खड़ी हो जाती है, तो वह राक्षसी शक्ति है। क्या आपने ऐसे बुद्धि-ज्ञान के विकास के लिए यह आश्रम बना रखा है?" राम तीखी आंखों से मुनि को देख रहे थे। मुनि को लग रहा था कि वे राम के सम्मुख दृष्टि उठा नहीं पा रहे हैं।

मौन के एक अंतराल के पश्चात् आनन्द सागर धीरे से बोले, "मैंने कभी इस पक्ष पर विचार नहीं किया।"

राम का स्वर शांत हुआ, "सोचकर देखिए मुनि आनन्द सागर! बुद्धि और श्रम यदि असंपृक्त दिशाओं में बढ़ेंगे, ज्ञानी जन समाज से कटकर अपने में सीमित हो जाएंगे तो क्या वे परस्पर शत्रु नहीं हो जाएंगे? बुद्धि श्रम से घृणा नहीं करने लगेगी? ज्ञानी जन अज्ञ समाज को हीन भाव से नहीं देखेंगे? और ऐसे में वे उनके शोषण का साधन बनकर स्वयं राक्षस नहीं हो जाएंगे?"

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह

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