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राम कथा - संघर्ष की ओर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6499
आईएसबीएन :21-216-0761-2

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, तीसरा सोपान

सहसा राम की कल्पना में विराध आ खड़ा हुआ। उसने सीता को अपने हाथों में पकड़, उठाकर अपने कंधे पर डाल लिया...कैसे हो गए थे राम तब? शरीर की सारी ऊर्जा जैसे किसी ने खींच ली थी। हृदय डूबने लगा था। आंखों में अश्रु आ गए थे। कैसे हार बैठे थे राम! सीता के वियोग की संभावना मात्र से...और यदि कहीं सचमुच ही सीता का हरण हो गया? यह कुछ ऐसा असंभव तो नहीं...राम के शरीर को प्रत्येक शिरा झनझना उठी...नहीं! सीता का हरण हो गया तो राम का जीवित रहना कठिन हो जाएगा...क्या है यह? काम? अथवा संगति का बंधन-साहचर्य का प्रेम? राम कुछ भी निर्णय नहीं कर पाते...नहीं, यह मात्र काम नहीं है। काम तो एक सामान्य, आकारहीन भावना हैं; विशिष्ट में केन्द्रित होकर वही प्रेम हो जाता है। प्रेम में काम भी समाहित है-राम इसे अस्वीकार नहीं करते।...उन्हें मान लेना चाहिए कि सीता का प्रेम उनकी दुर्बलता बन गया है। उसी दुर्बलता के कारण उनसे प्रमाद हो गया था...तो?

भविष्य में उन्हें शत्रुओं से सीता की रक्षा के लिए अधिक सावधान रहना होगा; और ऐसे प्रमाद से अपनी रक्षा के लिए भी। राम न तो सीता के प्रति असावधान रह सकते हैं, न इस प्रेम के कारण प्रमाद का पाप कर सकते हैं...उन्हें अपनीं इस प्रवृत्ति से अतिरिक्त रूप में सावधान रहना पड़ेगा, और जो कुछ हुआ है, उसका प्रायश्चित भी करना होगा।

सहसा राम का एकांत-चिंतन भंग हो गया। उन्हें कई लोगों के एक साथ, अपनी कुटिया की ओर आने का-सा आभास हुआ। आने वालों की बातचीत का स्वर भी सम्मिलित और ऊंचा था। अधिकांश स्वर नारी कंठ के ही थे। वे अपनी कुटिया के बाहर निकल आए।

बस्ती की अनेक स्त्रियां उधर ही आ रही थीं। राम पर दृष्टि पड़ते ही उनका कोलाहल एक सम्मानजनक अनुशासनबद्ध मौन में बदल गया।

निकट आ, रुककर उन्होंने अभिवादन किया। सुधा उस भीड़ में से कुछ आगे बढ़ आई और बोली, "भद्र राम! हमारी कुछ समस्याएं हैं। उनके विषय में हम आपसे कुछ विचार-विमर्श करना चाहती हैं।"

राम मुस्कराए, "बात कुछ गंभीर मालूम होती है।"

"हमारे लिए तो गंभीर ही है।" राम की ठहरी हुई मुस्कान ने सुधा की उत्तेजना का हरण कर लिया था। उसका स्वर भी शांत हो गया, "इस समय आपके पास थोड़ा समय होगा?"

'"क्यों नहीं। बैठा काल्पनिक रूई धुन रहा था।" राम बोले, "कुटिया से अपने लिए एक-एक आसन उठा लीजिण और यहां बैठ जाइए।"

महिलाओं ने एक-एक आसन उठाया और अर्द्धवृत्ताकार पंक्तियों में बैठ गईं। राम का ध्यान उधर गए बिना नहीं रह सका। पिछले एक वर्ष के अध्ययन, सैनिक प्रशिक्षण, आर्थिक स्वतंत्रता तथा परिवेश में हुए विभिन्न परिवर्तनों के कारण इन महिलाओं में कितना अंतर आ गया था। जब पहली बार मार-पीट और रोने-धोने के स्वरों को सुनकर राम और सीता अनिन्द्य के घर गए थे तो यही सुधा कितनी भिन्न थी। तब तक वह गंदी धोती में लिपटी एकवस्त्रा सुधा, चेहरे पर निरुत्साह तथा हताशा लिए हुए अपनी आंखों में मृत्यु की छाया पाल रही थी। यही स्थिति अन्य महिलाओं की भी थी। किंतु, आज वे ही महिलाएं सादे किंतु स्वच्छ वस्त्रों में, चेहरों पर जीवन की सार्थकता का भाव लिए, आंखों में भविष्य के प्रति एक आस्था का पोषण करती, कितनी जीवंत लग रही थीं...अपनी समस्याओं को समझने की चेतना उनमें आ गई थी पूर्ण आत्मविश्वास के साथ वे उनका विश्लेषण करती हैं, वाद-विवाद करती हैं, और आज अपनी कोई समस्या लेकर स्वयं उनके पास आई हैं।...कितने अनुशासनबद्ध ढंग से अपना-अपना आसन उठा, पंक्ति में बैठी हैं। कोई व्यर्थ की बात नहीं, कोई कोलाहल नहीं...कितने दायित्वपूर्ण ढंग से चुपचाप बैठी हैं। इन्हीं मनुष्यों को उन राक्षसों ने कीचड़ में बिलबिलाते कीड़े बना रखा था...

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह

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