बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - संघर्ष की ओर राम कथा - संघर्ष की ओरनरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास, तीसरा सोपान
"तुम्हारे स्तर की तो हो गई।" सीता मुस्कराकर पुनः अपने विषय पर लौट आईं, "भाई धर्मभृत्य, मैंने भी तुम्हारा परिहास नहीं किया था। वस्तुतः बात इतनी-सी है कि जैसे लंबे गंभीर विवेचन से ऊब पैदा होती है और बीच में लक्ष्मण की तथाकथित वाक्विदग्धता से मस्तिष्क को स्फूर्ति का अनुभव होता है..."
"भाभी!..."
सीता ने संकेत से ही लक्ष्मण को रोका और अपनी बात कहती गईं, "ठीक वैसे ही युद्धाच्छादित लंबी जीवन-पद्धति में संगीत तथा अन्य
सौन्दर्य-प्रधान विद्याएं जीवन को सरस बनाती हैं। हां, एक बात का ध्यान रखना पड़ता है कि उन विद्याओं का समुचित प्रयोग हो। वे हमारी दृष्टि अपने लक्ष्य से हटाएं नहीं, वरन् हमें उस ओर प्रेरित करती रहें।"
"यही तो..." मुखर के चेहरे पर तृप्ति का तेज था।
"फिर कहूं, मुझे कोई आपत्ति नहीं है। जैसा सब निर्णय करें, मैं उसके साथ हूं।" धर्मभृत्य बोला, "मैं अपनी सीमा स्वीकार कर लेता हूं। आश्रम में ऋषि-पद्धति की शिक्षा पाई है। वह भी बहुत योग्य जनों से नहीं। इतना मौलिक व्यक्तित्व मेरा है नहीं कि उस पद्धति में परिवर्तन की बात सोचूं। मैं तो शिक्षा के नाम पर अध्यात्म, व्याकरण तथा काव्यशास्त्र के विषय ही जानता हूं। राक्षसों के दमन और आतंक के कारण शस्त्र-शिक्षा को आवश्यकता अवश्य अनुभव करता रहा हूं। वह अब प्रायः पूरी हो गई है। मेरा आश्रम, आश्रम के स्थान पर युद्ध-शिविर हो गया है। मैं उसके आगे कुछ भी सोच नहीं पाता हूं।"
"देवि वैदेही क्षमा करें, मैं अनधिकृत हस्तक्षेप कर रहा हूं।" राम बोले, "धर्मभृत्य की सच्चाई और सत्य को स्वीकार करने की अद्भुत क्षमता की प्रशंसा करने का मन हुआ है। मेरी प्रशंसा उन तक पहुंचा दें।"
धर्मभृत्य ने संभ्रम से सिर झुका लिया।
"धर्मभृत्य में अनेक गुण हैं राम! वे धीरे-धीरे आपके सम्मुख प्रकट होंगे।" सीता मुस्कराईं, "देखो धर्मभृत्य परंपरागत आश्रम-शिक्षा से इस क्षेत्र का भला नहीं होगा अन्यथा कोई कारण नहीं था कि इतने आश्रमों के होते हुए भी, इतने ऋषियो-मुनियों की उपस्थिति में भी यह क्षेत्र जाग न पाता और इतना पिछड़ा रहता।"
"मैं दीदी से पूर्णतः सहमत हूं।" मुखर बोला।
"सहमत तो मैं भी हूं किंतु मैं कारणों का विश्लेषण नहीं कर पाता।" धर्मभृत्य धीरे से बोला।
"कारण मैं बताती हूं।" सीता बोलीं, "आश्रमों के आंदोलन बुद्धिजीवियों में ही सीमित रहे क्योंकि उन्होंने न जनसामान्य की आवश्यकताओं को समझा, न अपने जीवन से मिलाने का प्रयत्न किया। यही कारण है कि न वे राक्षसों के आतंक से स्वयं को मुक्त कर पाए और न जनसाधारण की जीवन-पद्धति और जीवन-स्तर में कोई सुधार कर पाए। ध्यान देकर देखो, जहां-जहां ऋषियों ने जनसामान्य के जीवन से अपने को जोड़ा, वहां अल्पकाल में ही चमत्कार होते दीख पड़े।"
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