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राम कथा - संघर्ष की ओर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6499
आईएसबीएन :21-216-0761-2

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, तीसरा सोपान

"यह क्या?" अनेक कंठों से एक साथ प्रश्न फूटा।

"यह उन ऋषियों-मुनियों तथा सामान्य जन के कंकाल हैं, जो राक्षसों के हाथों मारे गए।" धर्मभृत्य का पीड़ा से भरा स्वर गूंजा, "नर-कंकालों का यह ढेर, आपको इस क्षेत्र में व्याप्त चरम आतंक की कथा सुनाएगा। इससे प्रकट होगा कि मुनि ज्ञानश्रेष्ठ क्यों नहीं बताता कि ऋषि शरभंग के आत्मदाह का कारण क्या है? यह वह ढेर है, जो इस क्षेत्र के समस्त बुद्धिजीवियों को स्मरण कराता रहता है कि उन्हें अपने आततायियों के विरुद्ध अपनी जिह्वा पर एक शब्द भी नहीं लाना है।"

सीता ने अपनी आंखें हल्के से बन्द कर लीं और माथे को अपनी अंगुलियों से धीरे-धीरे दबाती हुई बोली, "हम लोग शेष चर्चा, इस ढेर से कुछ दूर जाकर न कर लें?"

"ठीक है।" राम बोले, "हम चलते-चलते भी चर्चा कर सकते हैं।"

वे लोग चले तो धर्मभृत्य ने एक-एक चेहरे को ध्यान से देखा। सीता ने अस्थियों के उस ढेर को देखकर थोड़ी दुर्बलता दिखाई थी; कितु इस समय वे पर्याप्त संभल गई लग रही थीं। चेहरे पर आवेश भी था और आंखों में करुणा भी। लक्ष्मण बहुत क्षुब्ध लग रहे थे। उनकी मुट्ठी उनके धनुष पर पूरी तरह कसी हुई थी। मुखर एक क्षण के लिए बहुत उद्वेलित लगता था और दूसरे ही क्षण वह लक्ष्मण का मुख निहारकर उल्लसित हो उठता था। राम की आंखों में अथाह गहराई थी। उन आंखों के भाव शायद शब्दों में प्रकट नहीं हो सकते थे-करुणा, क्रोध, ओज, तेज, पीड़ा, जिज्ञासा, वितृष्णा...जाने क्या-क्या था, उन आंखों में। साथ चलने वाली भीड़ के चेहरे पर भी धर्मभृत्य को कुछ-कुछ क्षोभ ही दिखाई पड़ा-हां कुछ लोग बहुत भयभीत भी लग रहे थे।

"इसका क्या अर्थ है?" राम धर्मभृत्य को देख रहे थे।

"आर्य! ठीक-ठीक कहना बहुत मुश्किल है।" धर्मभृत्य ने अपनी बात आरंभ की, "कुछ लोगों का कहना है कि राक्षस लोग हत्याए कर मांस रहित अथवा मांस सहित हड्डियां यहां डाल जाते हैं। एक मत है कि मांस का भक्षण कर, अपना आत्मबल बढ़ाने तथा लोगों को आतंकित करने के लिए राक्षस ये अस्थियां डाल जाते हैं। एक अन्य मत है कि राक्षस शवों अथवा कंकालों को यहां छिपा जाते हैं। इधर के आश्रमवासियों का कहना है कि ये अस्थियां ऋषि यहां एकत्रित करते रहते हैं, ताकि उन्हें देखकर जन-सामान्य के मन में राक्षसों के विरुद्ध आक्रोश बढ़े...। किंतु, मैं मानता हूं कि इनमें से कोई भी मत सत्य नहीं है।"

"सत्य क्या है?" लक्ष्मण के स्वर में क्रुद्ध नाग की-सी फुंकार थी।

"राक्षसों को अस्थियां छिपाने की आवश्यकता नहीं है : वे किसी से भयभीत नहीं हैं।" धर्मभृत्य बोला, "उन्हें एकत्र कर, अपना आत्मबल बढ़ाने की भी आवश्यकता उन्हें नही है, उनका आत्मबल वैसे ही बहुत बढ़ा हुआ है। ऋषियों-मुनियों में इतना साहस ही नहीं है कि वे शवों अथवा अस्थियों को एकत्र कर, जन-सामान्य में आक्रोश भड़काते। ऐसा करना होता तो यह ढेर, मार्ग से हटकर, पेड़ों की ओट में न होकर, किसी आश्रम के मुख्यद्वार अथवा उसके केन्द्र में सभा-स्थान पर होता...।"

"सत्य क्या है?" लक्ष्मण पुनः फुंकारे।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह

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