लोगों की राय

बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - संघर्ष की ओर

राम कथा - संघर्ष की ओर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6499
आईएसबीएन :21-216-0761-2

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

137 पाठक हैं

राम कथा पर आधारित उपन्यास, तीसरा सोपान

"कहो राम!"

"यदि साधारण जन की न्यायप्रियता, बुद्धि तथा शक्ति में आपका विश्वास नहीं है, तो आप उनके निकट कैसे जा सकते हैं? और यदि आपका आंदोलन, जनसाधारण तक नहीं पहुंचेगा तो वह सफल कैसे होगा?" राम बोले, "ऋषिवर, आप मेरी बात को अन्यथा न लें तो कहना चाहूंगा-आंदोलन, अभियान, अथवा संघर्ष केवल इस कारण सफल नहीं होते, क्योंकि वे जन-सामान्य पर विश्वास नहीं कर पाते और इसलिए वे सीमित तथा साम्प्रदायिक होकर रह जाते हैं।"

"क्या कहते हो राम?" इस बार चकित होने की बारी सुतीक्ष्ण की थी, "तुम समझते हो कि जन-सामान्य, न्याय-अन्याय के उच्च सिद्धांतों को समझता है?"

साधारण पढ़ा-लिखा अथवा अनपढ़ व्यक्ति नीतिशास्त्र की शास्त्रीयता अथवा दार्शनिकता को चाहे न समझे, किंतु न्याय और अन्याय को केवल वही समझता है।" राम का स्वर कुछ अधिक दृढ़ हो आया था, "क्योंकि वह स्वार्थ को छोड़कर सोचता है। आपके कृत्यों का न्यायोचित होना भी जनसामान्य ही सिद्ध करेगा। यदि जनसामान्य आपके संघर्ष में आपका साथ नहीं देता, यदि उसकी सहानुभूति आपके साथ नहीं है तो निश्चित रूप से आपका संघर्ष न्यायोचित नहीं हो सकता...।"

"बीच में बोलने के लिए मुझे क्षमा करें।" सहसा लक्ष्मण बोले, "बहुत देर से गुरु अगस्त्य की चर्चा करना चाह रहा हूं। वे आपके गुरु हैं, क्या वे जनसामान्य में अपनी गहरी आस्था के बिना ही विंध्याचल पार कर दक्षिण के अपरिचित वानरयूथों के बीच आकर बस गए थे?"

राम, सीता और मुखर तीनों के चेहरों पर लक्ष्मण के अनुमोदन का भाव था। सुतीक्ष्ण अपने विचारों में उलझे, देर तक मौन बैठे रहे। क्रमशः अपनी उलझन में से निकलते हुए बोले, "लगता है, सचमुच ही मैं अपने गुरु की आत्मा को पहचान नहीं पाया। जिस मानवीय विश्वास के बल पर वे अपरिचित लोगों में धंसते चले गए, उसे मैं कभी ग्रहण नहीं कर पाया। जब कभी उन्होंने इस प्रकार का संकेत भी किया, मैं उसे उनकी सनक समझकर उपेक्षा कर गया। किंतु..."

"वह विश्वास उनकी सनक नहीं, कर्म का मूल मंत्र है।" राम धीरे से बोले, "इसीलिए तो मैं उनसे मिलने के लिए इतना लालायित हूं। मुझे ऐसा लगता है, आर्य कुलपति! कि जो ऋषि चिंतक, राजनेता अथवा किसी भी प्रकार का संगठनकर्ता जनसामान्य पर विश्वास नहीं कर पाता वह जनसाधारण से ही नहीं, सत्य से भी कटता जाता है, और अंततः अपने झूठ में घिरकर, अंधकार में विलीन हो जाता है।"

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book