बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - युद्ध राम कथा - युद्धनरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास, सप्तम और अंतिम सोपान
मंत्रियों के आने तक रावण क्रोध से फूंकारता हुआ टहलता रहा। उसने एक बार भी न मंदोदरी को देखा, और न माल्यवान की ओर। मंत्रियों सहित प्रहस्त ने प्रवेश कर अभिवादन किया तो रावण ने कठोर स्वर में पूछा, "क्या कार्य है?"
"महाराजाधिराज। युद्ध संबंधित चर्चा..."
"युद्ध के लिए प्रस्तुत हो?" रावण ने प्रहस्त को बात पूरी नहीं करने दी।
"जी।"
"तो व्यूह रचना करो।" रावण बोला, "और लंका से निकल भागने वाले लोगों का तत्काल वध करो। नगर में घबराहट फैलाने अथवा लूट-पाट मचाने वालों को कूरतापूर्वक मृत्युदंड दो।" रावण ने एक दृष्टि मंदोदरी पर डाली, "विभीषण के प्रासाद को सेना अपने अवरोध में ले लें। उसकी पत्नी सरमा और पुत्री कला पर सैनिक संतरी दृष्टि रखें।" रावण तनिक रुककर बोला, "लंका की सुरक्षा के लिए नए आदेश दिए जाएं। पूर्वी द्वार की रक्षा स्वयं मामा प्रहस्त करें। दक्षिणी द्वार पर महा-पराक्रमी महापार्श्व को नियुक्त किया जाए; पश्चिमी द्वार पर युवराज इन्द्रजीत मेघनाद रहेंगे। उत्तरी द्वार पर महोदर रहेंगे; मैं भी उत्तरी द्वार पर ही जाऊंगा। नगर के केन्द्र में स्थित सैनिक मुख्यालय में अन्य राक्षस सेनापतियों के साथ विरुपाक्ष रहेंगे...जाओ।"
मंत्री अभिवादन कर चले गए। रावण ने कठोर दृष्टि माल्यवान और मंदोदरी पर डाली और स्वयं भी कक्ष से निकल गया।
"यह अपने पाप के हाथों मारा जाएगा।" माल्यवान ने कहा। "मैं क्या करूं नाना!" मंदोदरी का स्वर आर्द्र हो उठा, "मैं न राम की विजय की कामना कर विधवा होना चाहती हूं, न राक्षसराज की विजय की इच्छा कर सीता उन्हें सौंप सदा के लिए अनाथ होना चाहती हूं।"
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