बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - युद्ध राम कथा - युद्धनरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास, सप्तम और अंतिम सोपान
इससे पहले कि दूसरा कोई कटु उत्तर देता, उन्हें लगा कि उन्होंने दूर कहीं बहुत सारी ध्वनियां सुनी हैं। शब्द बहुत ही धीमा था; किंतु जैसे सहस्त्रों शब्द एक साथ हो रहे थे। वे दोनों ही सावधान हो गए। कैसा शब्द है यह? उन्होंने अंधेरे में आंखें फाड़-फाड़कर देखने का प्रयत्न किया। अपनी उल्काएं उठा-उठाकर देखा-किंतु कुछ भी स्पष्ट नहीं हुआ। पर था कुछ न कुछ अवश्य। कोई बहुत बड़ी हलचल...
एक भागता हुआ प्राचीर की सीढ़ियां उतर गया और उसने अपने अधिकारी को सूचना दी। अधिकारी को अपनी नींद में यह विघ्न प्रिय नहीं लगा।
"क्या बात है?" उसने आधी आंखें खोलकर बुरा-सा मुंह बनाया, लगता है तुम्हें वृत्ति आवश्यकता में अधिक मिलने लगी है।
"नहीं प्रभु!" संतरी ने हाथ जोड़ दिए, "सागर-तट पर बड़ी हलचल है, जैसे सहस्रों लोग कुछ कर रहे हों।"
"ठीक है। ठीक है।" अधिकारी ने अप्रसन्नता में अपना हाथ झटका, "वहां तट-सुरक्षा वाले कुछ कर रहे होंगे। तुम्हारे पेट में क्यों मरोड़ उठ रहे हैं। जाओ, अपना काम करो।"
"नहीं नायक।" संतरी टला नहीं, "तट-चौकी पर इतने लोग कभी नहीं होते।"
"तो हमारी सेनाएँ युद्ध के लिए जा रही होंगी।" नायक उठने के लिए तैयार नहीं था।
"नायक।" संतरी पुनः बोला, "हमारी सेना होती तो हमारे तोरण से निकलकर गई होतीं। वह तो बाहर से आई कोई सेना लगती है।" इस बार नायक उछलकर खड़ा हो गया, "कहीं वानरों को लेकर राम ही तो नही आ गया...। "
वह भागता हुआ आया और परकोटे पर चढ़ गया। उसने देखा : संतरी की सूचना ठीक थी, वे सहस्रों नहीं लक्ष-लक्ष लोग थे और अंधकार में सागर की लहर के समान बढ़कर खाली धरती पर फैलते जा रहे थे...अनेक स्थानों पर उल्काएं भी जल उठी थीं-कदाचित् वे अपने शिविर स्थापित कर रहे थे..."
"लगता है वही आ गया।" नायक का मुख भय से पीला पड़ गया, "अच्छा-भला शांति से जीवन कट रहा था, पर हमारा यह राक्षस राज...।"
"नायक।" संतरी बोला, "अधिकारियों को सूचना भेजनी चाहिए।"
"भेजी। भेजो।" नायक बोला, "मैं तो लुट गया।"
"क्या हुआ नायक?" दूसरे संतरी ने पूछा।
"होना क्या है रे। मैं लुट गया।" नायक जैसे अपने आपसे कहा रहा था, "एक वानर आया था तो क्या नहीं हुआ था? अब वानर-सेना आई है तो क्या होगा? नगर घिर जाएगा। न कोई नगर में आ सकेगा, न बाहर जा सकेगा। नगर की व्यवस्था भंग हो जाएगी। दंगे होंगे, लूट-मार होगी। मेरे भवन के पास तो वे कंगले श्रमिक वानर रहते हैं, अकसर पाते ही मेरा घर लूट होंगे। मैंने तो नया-नया विवाह किया है रे...।"
संतरियों का धैर्य समाप्त हो गया था। वे सूचना देने के लिए दोनो ओर दौड़ पड़े थे।
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