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राम कथा - युद्ध

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6498
आईएसबीएन :21-216-0764-7

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, सप्तम और अंतिम सोपान

राम, हनुमान, नल तथा नील नगरी के बाहर ही ठहर गए। विभीषण अकेले ही नगरी में गए और थोड़ी देर में राक्षस व्यापारियों, जिन्हें एकत्रित भीड़ ने 'सागर' कहा था, के मुखिया को लेकर लौटे। मुखिया का परिधान तथा आभूषण बहुमूल्य थे किंतु उसका चेहरा कुछ अधिक ही म्लान था। भय, थकान और घबराहट के स्पष्ट लक्षण उसके चेहरे से व्यक्त हो रहे थे। राम ने उठकर उसका स्वागत किया।

उसने एक भीत दृष्टि आस-पास घिर आई उस भीड़ पर डाली, जिसने स्वतः ही स्वयं को राम की सेना घोषित कर दिया था।

"इनसे आप भयभीत न हों।" राम ने आश्वासन दिया, "ये लोग आपको हानि नहीं पहुंचाएंगे।"

हानि!" सागर प्रमुख ने अपने होंठों पर जीभ फेरी, "कल से इन्होंने हमें ऐसा घेर रखा है कि हम घर से बाहर झांक तक नहीं सकते, राजकुमार विभीषण अभयदान नहीं देते तो मैं यहां आने का साहस ही नहीं कर सकता था।"

"आप लोगों ने इन्हें घर से निकाल दिया था, इन्होंने तो आपको घर में बंदी ही किया है।" राम बोले, "पर आप चिंता न करें, राक्षसराज विभीषण के अभयदान की रक्षा होगी।"

सागर-प्रमुख कुछ नहीं बोला। मुख में जैसे कोई तिक्त-सा स्वाद लिए बैठा रहा।

"सागर-प्रमुख।" राम शांत तथा स्थिर स्वर में बोले, "आपको एक विशेष प्रयोजन से बुलाया गया है।"

"कहिए।" वह निर्जीव-से स्वर में बोला।

"आप जानते हैं कि यह सेना, किस प्रयोजन से यहां आई है?"

"जी। कुछ आभास तो है।" "हमें सागर पार कर लंका पहुंचना है।" राम बोले, "सागर पार करने में आप हमारी सहायता कर सकेंगे?"

सागर-प्रमुख ने अत्यन्त चिंतित दृष्टि से राम को देखा : मन में आई बात कहे या न कहे?...

"कहिए! जो आपके मन में हो, निःसंकोच कहिए।" राम का स्वर और भी कोमल हो गया, "लंकापति विभीषण ने आपको अभय दिया है।"

"हम सैनिक नहीं हैं आर्य राम।" सागर-प्रमुख बोला, "जाति से राक्षस हैं, अतः आपके शत्रु-पक्ष...।"

"यह आपकी भ्रांति है।" राम ने उसकी बात बीच में ही काट दी, "हमारा विरोध रावण के क्रूर शासन तथा उसे लिए उत्तरदायी लोगों से है। राक्षस प्रजा से हमारा कोई विरोध नहीं है, अन्यथा विभीषण मुझे भाई के समान प्रिय कैसे होते?"

"यह तो ठीक है।" सागर-प्रमुख का स्वर अब भी संकुचित था, "हम व्यापारी लोग हैं। हम युद्धों में किसी एक अथवा दूसरी सेना का पक्ष नहीं ले सकते।"

"यदि रावण ने तुमसे यही अनुरोध किया होता, तो तुम क्या करते?" विभीषण कुछ उग्र स्वर से बोले, "तुम उसके सम्मुख भी व्यापारियों की निष्पक्षता की चर्चा करते?"

सागर-प्रमुख का चेहरा और भी निरीह हो गया।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. तेरह
  13. चौदह
  14. पन्द्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह
  18. उन्नीस
  19. बीस
  20. इक्कीस
  21. बाईस
  22. तेईस
  23. चौबीस

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