बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - युद्ध राम कथा - युद्धनरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास, सप्तम और अंतिम सोपान
"क्या है तुम्हारे मन में अविंध्य?" विभीषण बात स्पष्ट कर लेना चाहते थे।
"इस स्थिति में लंका के सामने दो ही विकल्प हैं, पीड़ा...रावण के हाथों या राम के हाथों..."
अविंध्य के मन में भी वही है...विभीषण सोच रहे थे।
"और हमें ये दोनों ही स्वीकार नहीं हैं।"
"तो?"
"हम रावण से कोई समझौता नहीं कर सकते।" अविंध्य का स्वर निश्चयात्मक था, "क्योंकि हम जैसे तिरस्कृत और अपमानित सामान्यजन, जिन्हें महाराजाधिराज अपना विरोधी मानते हैं-से राक्षसराज कोई समझौता नहीं करेंगे। पर...शायद राम से आपका समझौता हो जाए।"
विभीषण ने चकित होकर अविंध्य की ओर देखा। वे अपनी समस्या में ऐसे उलझ गए थे कि उनका ध्यान इस ओर गया ही नहीं था। पर अविंध्य ने ठीक ही सोचा था...
"और पीछे?" विभीषण कुछ सोचते हुए बोले, "राम से समझौता
हुआ तो हमें रावण के विरुद्ध लड़ना पड़ सकता है। युद्ध-क्षेत्र में मेरे हाथों रावण के किसी प्रियजन का वध हो सकता है। ऐसी स्थिति में मेरा परिवार?"
"पीछे मैं हूं। हमारा संगठन है। सहायक हैं।" अविंध्य ने उत्तर दिया, "और कुछ नहीं हो सका तो रानी और राजकुमारी के लिए अज्ञातवास की व्यवस्था तो हम कर ही सकते हैं।"
"तो मैं निश्चिंत हो जाऊं।"
"इस ओर से निश्चित ही रहिए।"
"तो फिर हमारे लिए किसी अच्छी नौका का प्रबन्ध कर दो और कोई गुप्त अज्ञात घाट... अच्छे माझी..."
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