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राम कथा - युद्ध

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6498
आईएसबीएन :21-216-0764-7

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, सप्तम और अंतिम सोपान

"स्कंधावार के सैनिक कल की पराजय के पश्चात् से अपना स्थान छोड़-छोड़कर भागने लगे हैं।" महापार्श्व बोला, "लंका के सैनिक, विजय और विजयोपरांत लूट के अभ्यस्त हैं। पराजय की बेला में अपने स्वामी के लिए प्राण देने का पाठ उन्होंने नहीं पढ़ा है।"

"सेना-परित्याग।" रावण की आंखें आरक्त होने लगीं, "उन सबको मृत्यु-दंड दिया जाएगा।"

"मृत्यु-दंड देगा कौन?" महापार्श्व कुछ दुस्साहसी हो गया था, "हमारे पास लंका की रक्षा के लिए भी पर्याप्त सैनिक नहीं रह गए हैं। निर्वासित राजकुमार विभीषण के परिवार का पता भी आज तक हम इसीलिए नहीं पा सके हैं।" उसने रुककर रावण को देखा, "मुझे तो यह भी सूचना मिली है कि सामर्थ्यवान लोग लंका से निकल भागने के प्रयत्न में हैं। वे लोग अपने परिवारों को कहीं सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाने को उत्कंठित हो रहे हैं।"

कुछ क्षणों तक रावण चिंतित दिखा; फिर जैसे उसका क्रोध उसकी चिंता को पी गया। "तुम लोग अपनी इच्छा-अनिच्छा की बात कहो।"

"मैं अकेला ही, बिना एक भी सैनिक साथ लिए युद्ध के लिए प्रस्तुत हूं।" विरूपाक्ष बोला, "मुझे जाने की आज्ञा मिले तात!"

"और तुम लोग?"

"शरीर में रक्त की अंतिम बूंद तक मैं युद्ध करूंगा।" महोदर बोला। रावण की दृष्टि महापार्श्व की ओर उठ गई।

"जय-पराजय दोनों स्थितियों में अंतिम समय तक युद्ध करूंगा।" महापार्श्व सहज ढंग से बोला।

"तो फिर जाओ।" रावण उच्च स्वर में बोला, "बचे-खुचे सैनिकों को, अंगरक्षकों को और दंडधरों को साथ लो और लंका के एक-एक घर में जाकर सक्षम शरीर वाले युवकों को बलात सैनिक कर्म के लिए घसीट लाओ। आपत्ति अथवा विरोध करने वाले के लिए मृत्यु-दंड घोषित कर दो।" रावण रुककर बोला, "सैनिक संख्या कम लगे तो शस्त्र बल बढ़ाओ। सैनिकों को भी दिव्यास्त्र दो...। आज मात्र रक्षात्मक युद्ध हो। कल उनपर भयंकर आक्रमण करो। कल संध्या तक राम और लक्ष्मण का वध होना ही चाहिए। जाओ।"

अगले दिन प्रातः विरूपाक्ष सबसे पहले लंका से बाहर निकला।

आज के तीनों सेनापतियों को सेना एकत्रित करने के मार्ग मे आने वाली कठिनाइयों का आभास था, किंतु रावण को सूचना किसी ने भी नहीं दी थी।

वस्तुतः अब वह स्थिति नहीं रह गई थी कि लंका की सेना की ओर से युद्ध का आह्वान पाकर प्रत्येक घर का द्वार खुल जाता ओर प्रत्येक घर से युवक निकल-निकलकर महाराजाधिराज रावण की जय बोलते। पहले स्थिति और थी। युद्ध में जाने वाला सैनिक जानता था कि वह न केवल विजयी होकर सकुशल वापस घर लौटेगा, वरन् रजत तथा स्वर्ण मुद्राओं के साथ-साथ कुछ बहुमूल्य रत्न भी साथ लाएगा। भाग्य ने साथ दिया तो दो-चार सुंदर युवती दासियां भी साथ लाना बहुत कठिन नहीं था। किंतु अब स्थिति एकदम विपरीत थी। युद्ध में जाने वाला सैनिक जानता था कि वह मृत्यु के मुख में जा रहा है। उसके शव का भी घर लौटकर आना निश्चित नहीं है।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. तेरह
  13. चौदह
  14. पन्द्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह
  18. उन्नीस
  19. बीस
  20. इक्कीस
  21. बाईस
  22. तेईस
  23. चौबीस

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