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राम कथा - दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6497
आईएसबीएन :21-216-0759-0

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, प्रथम सोपान

अहल्या पुनः एक बार संकुचित हो उठी। कितना अपमानित किया था उसे इन्द्र ने। यहां उपस्थित यह सारा समाज जानता है कि इन्द्र ने बलात् उसका भोग किया है। और जब यह समाज बिखरकर देश के विभिन्न भागों में फैल जाएगा-तब सारा देश इस बात को जान जाएगा...उसकी हथेलियां अनायास ही उठीं, और उसका चेहरा उनमें ढंक गया।

''संकुचित मत होओ अहल्या!'' गौतम ने कहा।

गौतम, अहल्या को उपस्थित ऋषि-समाज के निकट ले गए। ये देख रहे थे कि वातावरण पूरी तरह से स्तब्ध था। कोई किसी से कुछ नहीं कह रहा था। सबकी आंखें अहल्या पर टंगी हुई थीं और चेहरे भावशून्य हो रहे थे। इस घटना के प्रति उन लोगों की प्रतिक्रिया के विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता था...।

''उपस्थित तपस्वी-समाज!'' गौतम ने ऊंचे स्वर में कहना आरंभ किया, ''यह मेरी धर्मपत्नी अहल्या है। आप जानते हैं कि उस दुष्ट देवराज ने इसका अपमान किया है। इन्द्र का यह अपराध मेरी धर्मपत्नी के विरुद्ध नहीं मेरे विरुद्ध है। यह अपराध एक ओर पवित्र नारी-जाति का अपमान है, तो दूसरी ओर आश्रमों की पवित्रता तथा ऋषि-समाज की दुर्बलता का उपहास है। यदि नीच इन्द्र को इस अपराध का दंड नहीं दिया गया, तो आप मेरा विश्वास कीजिए, इस पृथ्वी पर किसी भी स्त्री का सतीत्व सुरक्षित नहीं रहेगा, कोई ऋषि सम्मानित नहीं रहेगा, कोई आश्रम पवित्र नहीं रहेगा।...तपस्वीगण! आप सब प्रबुद्ध, स्वतंत्र एवं न्यायपूर्ण बुद्धि से निर्णय लेने में समर्थ हैं। आपके सम्मुख मैं देवराज इन्द्र पर दुश्चरित्र होने का अभियोग लगाकर, आपसे प्रार्थना करता हूं कि आप इस विषय में न्याय करें और इन्द्र को देवराज, देव-संस्कृति के पूज्य तथा आर्य ऋषियों के संरक्षक के पद से पदच्युत कर दें...।''

जैसे ही गौतम ने अपनी बात पूरी कर, तपस्वी-समुदाय पर अपनी दृष्टि डाली उन्होंने पाया कि आधे लोग चुपचाप खिसक गए हैं, जैसे वहां कुछ हुआ ही न हो, या हुआ हो तो उन्होंने देखा-सुना न हो। राघव! ये वे लोग हैं, जो प्रत्येक स्थान पर अपना पल्ला बचाने के लिए तटस्थ, निर्विकार तथा उदासीन होने का अभिनय करते हैं। राह चलते, मार्ग में तमाशा देखने के लिए उत्सुक भीड़। जब तक तमाशा होता रहा, देखते रहे; और जैसे ही न्याय ने अपने पक्ष में कर्म का आह्वान स्वीकार किया, उनके कंधों पर दायित्व डालने का प्रयत्न किया, निर्विकार हो गए। यदि वे लोग वहां रुकते, अहल्या का पक्ष लेते तो वे कहीं इन्द्र का विरोध करते माने जाते। इतना साहस उनमें नहीं था कि स्वयं को झंझट में डालकर, वे न्याय का समर्थन करते...।

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    अनुक्रम

  1. प्रथम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. बारह
  24. तेरह

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