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राम कथा - अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :170
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6496
आईएसबीएन :81-216-0760-4

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, दूसरा सोपान

अश्विन कराहता हुआ, पृथ्वी पर लुढ़क गया। ''बोल!''

अश्विन ने होंठों को गीला किया और बोला, ''मैंने बनाया है।''

''किसने सिखाया?''

''लक्ष्मण ने!''

''क्यों बनाया?''

''आत्म-रक्षा के लिए।''

''आत्म-रक्षा!'' राक्षस की आँखें लाल हो गईं ''किससे करेगा अपनी रक्षा? हमसे? हमारा विरोध करेगा? हमसे युद्ध करेगा?''

अश्विन कुछ नहीं बोला। राक्षस ने एक करारा चांटा उसके गाल पर लगाया, ''बोल! किससे करेगा आत्म-रक्षा?''

मुख से रक्त बहने लगा। उसे बोलना पड़ा, ''वन्य पशुओं से।'' राक्षस हँसा, ''तेरे पास लौह फल वाले बाण भी हैं?''

''नहीं।''

''लक्ष्मण ने दिए नहीं?''

''अभी लक्ष्य-बेध में सक्षम नहीं हूँ। प्रशिक्षण पूरा नहीं हुआ।''

''कितने लोग सीख रहे हैं?'' राक्षस ने पूछा।

''बीस।''

''किस हाथ से धनुष पकड़ते हो?'' राक्षस हँस रहा था।

''दाएं हाथ से।''

राक्षस आगे बढ़ा। उसने अपना परशु उठाया और जोरदार प्रहार किया। परशु सचमुच धारदार था। अश्विन की दाहिनी भुजा, शरीर से कटकर पृथक जा गिरी। अश्विन एक कराह के साथ पृथ्वी पर लोट

गया। उसके कंधे से निरंतर रक्त बहता जा रहा था।

राक्षस ने छत से धनुष उतारा और अश्विन की कटी हुई बांह उठाई, ''तुम्हारा धनुष ले जा रहा हूँ आत्म-रक्षा के लिए और बांह ले जा रहा हूँ, अपने भोजन के लिए।''

अश्विन कुछ नहीं बोला! वह संज्ञाशून्य हो चुका था। संकल्प मुनि प्रातः स्नान के लिए कुटिया से बाहर निकले। किवाड़ भिड़ाए और मुड़े। उषा होने में अभी थोड़ा विलंब था; किंतु मंदाकिनी तक जाने में उन्हें कुछ समय लगेगा। फिर हवन के समय तक उन्हें लौटना भी था। उन्होंने तेजी से कदम बढ़ाए।

उनका तेजी से उठा हुआ पग, किसी चीज में अटका और अपने ही जोर में आगे बढ़ता हुआ उनका शरीर पृथ्वी पर आ रहा। असावधानी में इस प्रकार गिर पड़ने से माथा एक पत्थर से टकराया और रक्त बहने लगा। हथेलियों में कंकड़ियां और कांटे एक साथ चुभे थे। घुटने भी छिल गए थे। नाक की नोक पर भी पर्याप्त जलन थी।

किसी प्रकार अपने शरीर को संभालकर उठे और गिरने का कारण खोजने के लिए दृष्टि घुमाई : सामने दो राक्षस, एक मोटी-सी रस्सी को लपेट रहे थे।...पहले भी कई बार मुनि के साथ ऐसी दुर्घटनाएं हो चुकी थीं। यह राक्षसों का खेल था, उनकी इच्छा थी, उनकी आवश्यकता थी, अथवा उनका रोग था। धन, शारीरिक बल एवं संगठन; और प्रायः सैनिक संरक्षण ने उन्हें इतना उच्छृंखल और मदांध बना दिया था कि उनसे किसी प्रकार के शिष्ट अथवा संस्कृत व्यवहार की अपेक्षा ही नहीं की जा सकती थी। वे निरीह लोगों को अकारण भी परेशान कर सकते थे और सकारण भी। उनसे कुछ पूछना व्यर्थ था। अपनी पीड़ा और अपमान को पी जाना ही मुनि के लिए एकमात्र उपाय था।

''क्यों आज हवन-शवन नहीं करोगे?'' एक राक्षस ने पूछा।

मुनि ने उसे क्रोध से देखा, और फिर स्वयं को सहज बनाते हुए बोले, ''नहाने जा रहा हूँ। आकर करूंगा।''

''नहीं। पहले हवन करो।'' दूसरा राक्षस बोला, ''नहाना तो बाद में भी हो सकता है।''

''नहीं। ऐसा संभव नहीं है।'' मुनि ने उत्तर दिया।

''संभव तो हम बना देंगे।''

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पंद्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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