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राम कथा - अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :170
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6496
आईएसबीएन :81-216-0760-4

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, दूसरा सोपान

राम देख रहे थे : लक्ष्मण, गुह, निषाद रानी, सुमंत तथा चित्ररथ से विदा ले रहे थे। उनका कहा, दूरी के कारण राम सुन नहीं पा रहे थे, किंतु उनके चेहरे के भावों से स्पष्ट था कि वे परिहास की मुद्रा में थे, और सब पर ही कोई-न-कोई कटाक्ष कर रहे थे।

निषाद रानी से विदा लेती हुई सीता, भावुक हो उठी थीं। उनका सहज विनोदी मन इस समय करुणा से भरा हुआ था। निषाद रानी का आलिंगन प्रगाढ़ तथा ममतापूर्ण था। उनकी आँखो में अश्रु झलमला आए थे। सुमंत को सीता ने अपने श्वसुर के-से सम्मान के साथ प्रणाम किया था। सुमंत की आँखों से धाराप्रवाह अश्रु बह रहे थे। राम को लग रहा था-सुमंत अभी वृद्ध सम्राट् के ही समान संज्ञा-शून्य होकर गिर पड़ेंगे। सीता ने बहुत अच्छा किया कि वह आगे बढ़ गई। सुमंत को संभलने का अवसर मिल गया। सुयज्ञ और चित्ररथ को सीता ने तटस्थ सम्मान के साथ प्रणाम किया और गुह को प्रणाम करते हुए, वह फिर विनोदमयी हो गई थीं। उन्होंने गुह पर फिर कोई कटाक्ष किया और भोले जेठ गुह, अनुजवधू के परिहास और जेठ की मर्यादा में बंधे, कसमसाए से मुस्कराकर रह गए।

लक्ष्मण के हाथ का अवलंब लेकर सीता नाव में बैठ गई।

''अच्छा मित्र! विदा।'' राम ने हाथ जोड़ दिए। निषाद रानी के पास आकर वह रुके, ''भाभी! अपना ध्यान रखना और निषादराज पर अंकुश। गुह बहुत जल्दी आवेश में आ जाते हैं।''

निषाद रानी के मुख-मंडल पर वक्र मुस्कान उठी, ''वह स्त्री का अंकुश मानेंगे क्या! तुम्हारे ही भाई हैं।''

''न वह स्त्री का अंकुश मानें, न आप पुरुष का बंधन मानें; किंतु बुद्धि, विवेक, संतुलन और प्रेम की मर्यादा तो सब ही मानेंगे। अपने इन्हीं गुणों का उपयोग करना। आपकी प्रजा भाग्यवान है कि उन्हें आप जैसी रानी मिली...।''

निषाद रानी हँस पड़ी, ''देखती हूँ, लक्ष्मण ने तुमसे सीखा ही नहीं कुछ सिखाया भी है। तुम भी चापलूसी करना सीख गए देवर!''

राम हँसते हुए आगे बढ़ गए। सुमंत के सम्मुख जाकर वह गंभीर हो गए, ''सुमंत काका! मेरी मां का ध्यान रखना।''

वह रुके नहीं। उन्हें भय था, सुमंत कहीं फिर से भावुक न हो उठें। सुयज्ञ तथा चित्ररथ को बारी-बारी गले लगाकर बोले, ''सजग और सावधान रहना।''

नौकारूढ़ होकर, हाथ के संकेत से राम ने नाविक को चलने का आदेश दिया। बिना एक भी शब्द उच्चारित किए, नाविक चल पड़े। हाथों के संकेत से ही विदा दी और स्वीकार की गई।

क्रमशः नाव किनारे से दूर, गहरे पानी की ओर बढ़ रही थी। तट पर खड़े हुए सुमंत, सुयज्ञ और चित्ररथ, गुह, निषाद रानी और निषाद सैनिक शनैः-शनैः दूर होते जा रहे थे। उनकी मुद्राओं से स्पष्ट था कि वह तब तक वहीं खड़े रहेंगे, जब तक उनको नाव दिखाई देती रहेगी।

राम, सीता और लक्ष्मण की आँखें भी किनारे पर ही लगी रहीं। केवल नाविकों ने ही अपना ध्यान तत्काल किनारे से हटाकर जल-धारा पर केन्द्रित कर लिया था।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पंद्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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