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पंच परमेश्वर तथा अन्य नाटक

चित्रा मुदगल

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 649
आईएसबीएन :9788170288879

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प्रेमचन्द्र की कहानियों की हिन्दी नाट्य रूपान्तर....

Panch Parmeshwar Tatha Anya Natak - A hindi Book by - Chitra Mudgal पंच परमेश्वर तथा अन्य नाटक - चित्रा मुदगल

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


प्रेमचन्द्र की इन कहानियों का चुनाव और नाट्य-रूपान्तर ‘व्यास सम्मान’ से सम्मानित हिन्दी की प्रतिष्ठित कथाकार चित्रा मुद्गल ने किया है। ‘आवाँ’ जैसे चर्चित उपन्यास की लेखिका होने के साथ-साथ वे ‘प्रसार-भारती’ बोर्ड की हिन्दी सलाहकार सदस्य भी हैं और दृश्य-श्रव्य माध्यम का समृद्ध अनुभव भी उनके पास है।
आशा है, प्रेमचन्द्र की कहानियों के इन नाट्य-रूपान्तरों का पाठकों के बीच स्वागत होगा।

घासवाली


स्थान: गाँव के बाहर खेत, भुलिया का घर, शहर जानेवाली सड़क, कचहरी का प्रांगण, चैन सिंह का घर।

पात्र


चैन सिंह : गाँव के बिगड़े हुए ठाकुर, भुलिया के सम्पर्क में आकर हृदय-परिवर्तन (35 वर्ष)
महावीर: सीधा-सादा निम्न वर्ग का युवक, भुलिया का पति (30 वर्ष)
भुलिया: निम्न वर्ग की सुन्दर श्रमशील स्त्री। स्वाभिमान से पूर्ण (25 वर्ष)
भुलिया की सास: पारम्परिक सास (55 वर्ष)
फतुआ: मेहनती मजूर (25 वर्ष)
धनुआ: मेहनती मजूर (30 वर्ष)
हल्कू: मेहनती मजूर (25 वर्ष)
कोचवान: कोचवान की भूमिका फतुआ निभा लेगा (40 वर्ष)
बूढ़ी काकी: मजूरिन (60 वर्ष)
वकील : धनुआ की भूमिका करनेवाला स्वर बदलकर (50 वर्ष)
पानवाला: रसिक पानवाला (40 वर्ष)


1


(गाँव से बाहर खेत में)
चैन सिंह: (क्रोध से) क्यों बे धनुआ, मस्ती कर रहा है ? अभी तो खेत का एक चौथाई काम भी पूरा नहीं हुआ, टांगें पसार लगे सुस्ताने ?
हराम की खाने की आदत जो पड़ गई है ! मजूरी काटो तो बिलबिलाने लगते हैं, सरकार रहम करें। इतने में तो एक जून की गुज़र नहीं होगी। क्यों ? गलत कह रहा हूँ मैं ?
धनुआ: (हाथ जोड़ आँखें झुकाए हुए) क्षमा करें मालिक ! फावड़ा उठाते करिहाँव में लोच चढ़ गई, सो तनिक कमर सीधी करने लगे...
चैन सिंह: (दाँत किटकिटाकर) चोप्प, मक्कर करने की ज़ररूत नहीं। तेरी शक्ल बड़ी चुगलखोर है। सब उगल देती है। उठ फावड़ा उठा...और तू फतुआ ! मुझे देखते ही बीड़ी फेंक ढेले कूटने लगा ?
फतुआ: न, नहीं मालिक!
चैन सिंह: अच्छा ! तो वो पड़ी सुलगती बीड़ी उठा और तनिक बुझा दे। जल्दी में फेंकते वक्त बुझाना भूल गया होगा। क्यों ?

फतुआ: म, माफ कर दो मालिक ! फिर कभी ऐसी गलती न होगी।
चैन सिंह: गलती न होगी ? होगी, सौ बार होगी। (कमर पर लात मारता है) हुँह ले, ले गलती का प्रसाद !
(दूसरे मजूर फावड़ा चलाने लगते हैं)
फतुआ: (चीखता है) आ ऽऽऽ मर गए मालिक, दया करो, कमर टूट गई ऽऽऽऽ रेऽऽ।
चैन सिंह: मेहनत नहीं होती तो मजूरी माँगने काहे आ मरता है मेरे पाँव पर ? पैसा बरसता है आसमान से ?
(खच्च, खच्च फावड़ा चलने की आवाजें)
फतुआ: न, नहीं मालिक (सिसकी भरता है)
चैन सिंह: (चेतावनी देते हुए) जा रहा हूँ, साँझ तक जुटे रहो सब। बीच में कभी भी आ सकता हूँ और किसी को भी मैंने काम छोड़ सुस्ताते पाया तो याद रखो, खाल खींच भूसा भर दूँगा। ये पिल्खू, फावड़ा चला, भकुआ-सा मेरी ओर काहे ताक रहा ?

सब साआऽऽऽ (आवाज़ भींच लेता है) कामचोर हैं, अरिया न लगे तो हिलक के न दें।
(चैन सिंह के जाते ही सारे मज़दूर इकट्ठे हो फिर हँसी-ठट्ठे में लग उसके जल्लादपने की बुराई कर अपना असंतोष व्यक्त करते हैं)
फतुआ: (गुस्से से) जल्लाद ने हुमक कर जो लात लगाई है करिहाँव (कमर) पे, मन तो हुआ, उलट उसके जड़ दे, पर...
धनुआ: हमारा बस चले तो फतुआ, मिट्टी का तेल उँड़ेल इसके महल-अटारी को तीली दिखा दें ! मानुख (मनुष्य) को मानुख नहीं समझता, जिनावर समझता है !
हल्कू: का कारोगे, पेट भरना है तो चैन सिंह जैसे राक्षस की गुलामी करनी ही पड़ेगी। चलो आओ, चिल्म सुलगाव तनिक ! इतनी जल्दी नहीं पलटने वाला राक्षस !
(सब हाँ-हाँ हल्कुआ ठीक कह रहा भैया, छोड़ा फावड़ा-खुरपी। सब हँसते हैं-‘पहली चिल्म ससुरे फतुआ को पकड़ाओ, उसे सेंक जो चाहिए।’)
(संगीत)
(दृश्यान्तर)


2


(सुबह। गाँव से बाहर खेतों में भुलिया घास छीलने गई है। खुरपी चलती है तो उसके हाथों की चूड़ियाँ खनकती है)
भुलिया: (घास छीलते हुए भुलिया लोकगीत गा रही है)
गोरी चली रे नैहरवा बलम सिसकी दै-दै रोवैं, बागन में रोवैं बगइचा में रोवैं, (दोहराव) देहरी पे सिर दै मारै बलम सिसकी दै-दै रोवैं...

(गीत की ताल के साथ-साथ भुलिया की चूड़ियाँ भी खनक रही हैं। सहसा किसी की आहट या उसकी नजर सामने उठती है)

(स्वत: चौंककर) अरे ! ये तो चैन सिंह चला आ रहा, औरतों को घेरनेवाला ! गनीमत इसी में है चट-पट झाबा उठाऊँ और भाग लूँ ! सुना है ये घास फब्तियाँ नहीं कसता, सीधे दबोचता है। (झाबा उठाने की ध्वनि और भागने की पद्चाप) भागूँ।
चैन सिंह: (लपककर भुलिया की कलाई धर लेता है) कहाँ भाग रही है भुलिया ?

(हाथ छुड़ाने की कोशिश में चूड़ियों की खनक)

भुलिया: (क्रोध से) मेरा हाथ छोड़ो मालिक !
चैन सिंह: (लार टपकाते हुए) तुझे क्या मुझ पर ज़रा भी दया नहीं आती भुलिया ?
भुलिया: मैंने कहा मेरा हाथ छोड़ो मालिक ? नहीं तो मैं चिल्लाऊँगी ?
चैन सिंह: (धूर्तता से) इतना अभिमान ! तेरे पति महावीर में ऐसे क्या सुर्खाब के पर लगे हैं ? ऐसा गबरू जवान भी तो नहीं, जाने तू कैसे रहती है उसके साथ !
भुलिया: (हाथ छुड़ाने की कोशिश कर) महावीर जैसा भी है, मेरा पति है।
चैन सिंह: हाँ, हाँ तेरा पति है, पर कभी-कभी मुझ पर भी तो दया...
भुलिया: (बात काटकर) मैं फिर कह रही, मेरा हाथ छोड दीजिए मालिक ?
चैन सिंह: नहीं छोड़ता ? छोड़ने के लिए नहीं पकड़ा है ?

भुलिया: (चिल्लाती है) अरे कोई सुनता है..
चैन सिंह: (डरकर) अच्छा, ठीक है, ठीक है, जाओ।
(भुलिया घास का झाबा लेकर दौड़ती है)
भुलिया: (हाँफते हुए अवरुद्ध कंठ से) हिम्मत देखो चैन सिंह की ! अगर हम इतने ग़रीब न होते, तो किसी की मजाल थी जो इस तरह हमारा अपमान करता ? (दाँत तरेरकर) महावीर को बता दूँ, तो इस ठाकुर चैन सिंह के खून का प्यासा हो जाएगा। फिर न जाने क्या हो !
(संगीत कोई लोकधुन)
(दृश्यान्तर)


3


(भुलिया का घर। सास उसे घास छीलने न जाने के लिए डाँट रही है।)
भुलिया की सास: (त्यौरियाँ चढ़ा) क्यों दुलहिन, सब तो घास छीलने गईं। तू अब तक नहीं गई ?
भुलिया: (सिर झुकाए हुए) मैं अकेली नहीं जाऊँगी।
सास: (बिगड़कर) अकेले क्या तुझे बाघ उठा ले जाएगा ?
भुलिया: सब मुझे छेड़ते हैं।
सास: (उबलकर) न तू औरों के साथ जाएगी, न अकेली जाएगी, तो फिर जाएगी कैसे ? साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहती कि मैं घास छीलने नहीं जाऊंगी।
भुलिया: ये बात नहीं अम्मा...
सास: सास तेरी अम्मा बन गई होती तो तू उसका कहा टालती ? सुन, यहाँ मेरे घर में रानी बनके निबाह न होगा। हमें चाम नहीं प्यारा, काम प्यारा है।
भुलिया: अम्मा...

सास: क्या अम्मा, हाँअ ? तू बडी़ सुन्दर है तो तेरी सुन्दरता को लेकर चाटूँ ? उठा झाबा, खुरपी और घास छील कर ला !
(बाहर से घोड़े़ के हिनहिनाने का स्वर, महावीर घोड़े को मल रहा है)
महावीर: अरे ओ भुलिया, आज घास लाने बहुत देर से जा रही ? तबीयत तो ठीक है तेरी ? अरे, तेरी आँखें काहे डबडबाई हुई हैं ? क्या हुआ भुलिया ?
भुलिया: कुछ नहीं ।
महावीर : (चिन्तित हो) कैसे कुछ नहीं, कुछ तो है। बोल न ! बताती क्यों नहीं ? किसी ने कुछ कहा ? अम्मा ने डाँटा ?
भुलिया: नहीं।
महावीर: तो फिर इतनी उदास क्यों हैं ? कल साँझ से ही तुझे कुछ उखड़ा-उखड़ा देख रहा हूँ।
भुलिया: कोई बात हो तो बताऊँ न ! जाने दे मुझे। आँख का क्या, आँख में कुछ पड़ गया होगा।
महावीर: (नि:श्वास भरकर) क्या करूं भुलिया ! मेरे ऊसर बंजर जीवन में तू गुलाब बनकर आई है। हम गरीबों के घर तेरी जैसी सुन्दर स्त्री आ जाए, तो ऊँचे महलों में खलबली मच जाती है !
भुलिया: (नाक सुड़ककर) बस, बस, तेरा घोड़ा न बिदक जाए !

महावीर: हां, भुलिया, इस घोड़े की ही तो चिन्ता है ! (घोड़े की पीठ को थपथपाता है। घोड़ा हिनहिनाता है) मेरा बस चलता तो तुझे आँखों में छिपा लेता, पर घोडे़ का भी तो पेट भरना ज़रूरी है। घास मोल लेकर खिलाएँ तो बारह आने रोज़ से कम न पड़े़गी। (लज्जित सा) कहने को कमाता हूँ, मगर मज़दूरी ही कितनी मिलती है ? मुश्किल से डेढ़-दो रुपए। जब से ये सत्यानाशी लारियाँ चलने लगी हैं न भुलिया, हम इक्केवालों की तो जैसे बधिया ही बैठ गई। (नि:श्वास भरकर) ऊपर से महाजन का कर्ज ! न मन हो तो रहने दे, देखी जाएगी।
भुलिया: (परेशान होकर) नहीं मैं जाती हूँ। घोड़ा खाएगा क्या ! जाना ही होगा।
(संगीत कोई लोकधुन)
(दृश्यान्तर)


4


(खुरपी से घास छीलने की, ‘खच्च, ‘खच्च’ के साथ चूड़ियों की खनक, दूर खेत में पुर चलने की आवाज़)
भुलिया: (प्रसन्न हो स्वत:) यहाँ इतनी हरी-हरी घास ! इतनी गझिन ! आधा घण्टे में तो मेरा झाबा भर जाएगा। किसी सूखे मैदान में दोपहरी तक छिलाई करती रहूँगी, तब भी झाबा खाली छूट जाएगा, पता नहीं यह किसके खेत की मेड़ है ? जिसकी भी हो यहीं बैठकर छील लूँगी।
(अचानक किसी के चमरौधे की चर्रमर्र होती है)
(चौंकन्नी होकर) चैन सिंह ! हे मैय्या !
चैन सिंह: डर मत, डर मत ! भगवान जानता है। मैं तुझसे कुछ न बोलूँगा। जितनी घास चाहे छील ले। मेरा ही खेत है।
(भुलिया के हाथ ठिठके रह जाते हैं)
छिलती क्यों नहीं ? हाथ क्यों रोक लिए ? मैं तुझसे कुछ कहूँगा थोड़े़ ही। बल्कि यहीं रोज चली आया कर। बदले में मैं छील दूँगा।

भूला, तू मुझसे इतना डरती क्यों है ? क्या तू समझती है, मैं आज भी तुझे सताने आया हूँ, ईश्वर जानता है, कल भी तुझे सताने के लिए मैंने तेरा हाथ नहीं पकड़ा था। तुझे देखकर आप ही आप हाथ बढ़ गए। कुछ सुध ही नहीं रही। तू चली गई भूला, तो मैं वहीं बैठकर घंटों रोता रहा। जी में आता था, अपना हाथ काट डालूँ। कभी लगता था, जहर खा लूँ। विश्वास कर भूला, तभी से मैं तुझे ढूँढ़ रहा हूँ।
भुलिया: (स्वत:) कितना नाटक कर रहा है !
चैन सिंह: आज तू इस रास्ते चली आई ? मैं सारा हार (खेतों का इलाका) छानता हुआ यहां आया हूँ। मैं तेरे सामने हूँ। अब जो सज़ा तेरे जी में आए, दे दे। तू सिर भी काट लेगी तो मैं चूँ न करूँगा। भूला, मानता हूँ, मैं शोहदा था। लुच्चा था। पर जब से तुझे देखा है, मेरे मन की सारी खोट मिट गई। बड़ा भाग्यवान है महावीर, जो ऐसी देवी जैसी पत्नी उसे मिली।
भुलिया: (रूखे स्वर में) तो तुम मुझसे क्या चाहते हो ?
चैन सिंह : तेरी दया।

भुलिया: तुमसे एक बात कहूँ ? बुरा तो न मानोगे ?
चैन सिंह : न मानूँगा !
भुलिया : तुम्हारा विवाह हो गया ?
चैन सिंह: (दबी ज़बान से) ब्याह तो हो गया, लेकिन ब्याह क्या है, खिलवाड़ है।
भुलिया: फिर भी, अगर मेरा पति तुम्हारी औरत से इसी तरह बातें करता, तो तुम्हें कैसा लगता ? तुम उसकी गर्दन काटने को तैयार हो जाते कि नहीं ? बोलो ? महावीर ग़रीब है, तो उसकी देह में लट्टू नहीं ? उसकी मान-मर्यादा नहीं है ? रंग-रूप तुम्हें भाता है। क्या घाट के किनारे मुझसे कहीं अधिक सुन्दर औरतें नहीं घूमा करतीं ? मैं उनके तलुवों की बराबरी भी नहीं कर सकती। तुम उनमें से किसी से क्यों नहीं दया माँगते ? मुझसे दया मांगते हो ? इसलिए न कि मैं ग़रीब हूँ ?
चैन सिंह : नहीं भुलिया, यह बात नहीं है !

भुलिया: यही बात है। गरीब की औरत ज़रा-सी घुड़की-धमकी या ज़रा-सी लालच में फँसकर तुम्हारी मुट्ठी में आ जाएगी। कितना सस्ता सौदा है। ठाकुर हो न, ऐसा सस्ता सौदा भला क्यों छोड़ने लगे ?
चैन सिंह: (लज्जित होकर) मैं सच कहता हूँ, इसमें ऊँच-नीच, अमीर-ग़रीब की बात नहीं है। सब आदमी बराबर है। मैं तेरे चरणों में सिर रखने को तैयार हूँ।
भुलिया: (क्षुब्ध होकर) इसलिए न कि जानते हो मैं कुछ नहीं कर सकती ? जाकर किसी उच्च कुल की औरत के चरणों में सिर रखो, तो मालूम हो जाएगा कि चरणों पर सिर रखने का क्या फल मिलता है। यह सिर, तुम्हारी गर्दन पर न रहेगा।
चैन सिंह: मुझे गलत मत समझ भुलिया ! मैं अब वैसा नहीं हूँ.
भुलिया: (बात काटकर) तुम जैसे भी हो, अपने घर में रहो। मेरा पति कभी किसी दूसरी मेहरिया की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखता। संजोग की बात है। मैं तनिक सुन्दर हूँ। अगर काली कलूटी भी होती, तब भी वह मुझे इसी तरह रखता। मुझे विश्वास है। तुम मेरे रूप के दीवाने हो न ? आज तुझे माता निकल आए, मैं कानी हो जाऊँ, तो तुम मेरी ओर ताकोगे भी नहीं। बोलो, झूठ कहती हूँ ?

चैन सिंह: (आत्मग्लानि से) ठीक ही कहती हो भुलिया !
भुलिया: लेकिन मेरी एक नहीं, दोनों आँखें फूट जाएँ, तब भी वह मुझे इसी तरह रखेगा। मुझे उठाएगा, बिठाएगा, खिलाएगा। और तुम चाहते हो मैं ऐसे आदमी के साथ कपट करूँ ? जाओ, अब मुझे कभी न छेड़ना, वरना अच्छा न होगा।
(संगीत-कोई लोकधुन)
(दृश्यान्तर)


5


(खेतों में पुर चल रहा है। नालियों में पानी बहने की ध्वनि)
चैन सिंह: (स्वत:) पुर चल रहा है मगर क्यारियों में तो पानी जा ही नहीं रहा है ? सूखी पड़ी हुई है ? ओ ऽऽऽ इधर की नाली कटी हुई है। बूढी काकी को बिठाया था देखभाल के लिए, सो लगता है, उनका ध्यान ही नहीं ? हुँअ, पहले पानी बचाऊँ, नाली बाँधना होगा (बैठकर मिट्टी थोपते हैं, छप, ‘छप’, ‘छप’,)
अब ठीक है। (कल-कल, पानी की ध्वनि) बूढ़ी काकी को ढूँढूँ। वोऽऽ वहाँ बैठी है ! (पानी की कल-कल) अरे काकी तू यहां बैठी हुई है, और इधर, सारा पानी क्यारियों में न जाकर बाहर....बहा जा रहा था ?
बूढ़ी काकी: (घबराकर) अ, अभी खुल गई होगी नाली मालिक। कुछ देर पहले, मैं देख आई थी मालिक ! गलती हो गई। छिमा कर दो। अब आगे से ऐसी भूल न होगी ! न होगी।
चैन सिंह: तू, इतनी घबड़ा क्यों रही है काकी ? नाली मैंने बाँध दी।

बूढी काकी: तुमने खुद बाँध दी नाली ?
चैन सिंह: हाँअ, बाध दी। अच्छा यह बताओ। तुम्हारे बुढ़ऊ कई दिन से नहीं दिखाई दिए। कहीं काम पर जाते हैं या नहीं ?
बूढ़ी काकी: (गद्गद हो) आजकल तो खाली ही बैठे हैं मालिक ! कहीं काम नहीं लगता।
चैन सिंह: (नम्र भाव से) तो हमारे यहाँ लगा दो। थोड़ा शासन (जूट) रखा है। उसे आकर काट दिया करे।
बूढ़ी काकी: जुग-जुग जिओ मालिक !
(कंठ अवरुद्ध हो आता है)
(संगीत-कोई लोकधुन)
(दृश्यान्तर)


6


(चैन सिंह को खेतों पर आता देख मजूरों में बदहवासी)
फतुआ: (घबराकर) ओ रे धनुआ ! उधर देख, मालिक चले आ रहे हैं ।
धनुआ: (परेशान होकर) अब तो मुसीबत हो गई फतुआ! मालिक पूंछेंगे, और दो मजूर कहां गए तो क्या जवाब देंगे ? बोल दें, बेर तोड़ने गए हैं तो समझो आज ही मजूरी गई। उनके साथ-साथ हमें भी गाली सुनने पड़े़गी ?
फतुआ: जाने कहाँ से राक्षस फट पड़ता है!
(चमरौधे की चर्रमर्र पास आती है)
धनुआ: (मुँह पर उँगली रख) सीऽऽ चुप, मालिक आ गए।
फतुआ: (मन ही मन) जय, जय, जय हनुमान गोसाई, कृपा करो...
धनुआ: प्रणाम मालिक !

चैन सिंह : (नम्र स्वर में) प्रणाम ! बुधना और हल्कू दिखाई नहीं पड़ रहे धनुआ ?
धनुआ: (हकबकाकर) जी, जी मालिक, वे लोग...
चैन सिंह: (खुश होकर) अरे ! वे वे उधर से आ रहे हैं दोनों ! हल्कू ! बुधना ! बढे़ आओ, बढ़े़ आओ। अरे ठिठक काहे रहे। आओ भाई। धनुआ का काम कैसा चल रहा है ?
धनुआ: बराबर चल रहा है मालिक ? (मन ही मन) आफत से उबारो देवी मैय्या !
चैन सिंह: (हँसकर) हल्कू, धोती में क्या छिपा रखा है तुम लोगों ने ?
हल्कू : (कांपते स्वर में) ब, ब, बेर मालिक !
चैन सिंह: तो तुम लोग बेर तोड़ने गए थे ? देखें ? कैसे बेर हैं ? लाओ ज़रा मुझे भी खिलाओ। कुएँवाले पेड़ के हैं ? उसके बेर तो बड़े मीठे होते हैं !

हल्कू : लीजिए, मालिक !
चैन सिंह: पके, पके बेर सब मैं लूँगा। जरा एक आदमी लपक कर घर से थोड़ा सा नमक तो ले आओ !
हल्कू : नमक बुधना के पास है, पर आप तो मालिक...?
चैन सिंह: है तो निकालो, उसी में से मैं भी ले लूंगा थोड़ा। नमक में क्या है। आओ, तुम सब लोग भी बैठकर बेर खाओ।
(कचर, कचर बेर खाने की ध्वनि)
हल्कू : (मन ही मन) ये क्या गज़ब देख रहा हूँ मैं ? किसी ने जादू-टोना कर दिया है का मालिक पर ?
चैन सिंह : हल्कू, तुम बेर नहीं खा रहे ? क्या सोच रहे हो ?
हल्कू :खा, खा रहा हूँ मालिक ! आज जान बकस दो मालिक ! बड़ी भूख लगी थी। नहीं तो काम छोड़ के बेर खाने न जाते।
चैन सिंह : (बेर खाते हुए नरमी से) तो इसमें बुराई क्या है हल्कू ? मैंने भी तो बेर खाए। एकाध घंटे का हरज हुआ, यही न ? देखो, तुम लोग चाहोगे तो घंटे भर काम, आधा घंटे में निपटा दोगे। न चाहोगे, तो दिन-भर में घंटे-भर का भी काम न होगा।
अच्छा, अब तुम लोग काम करो, मैं चलता हूँ।
(संगीत-कोई लोकधुन)
(दृश्यान्तर)


7


फतुआ: (प्रसन्न होकर) मालिक तो एकदम बदल गए ?
हल्कू: समझ में नहीं आ रहा फतुआ, मालिक सचमुच बदल गए, हैं या ये, भी उनकी कोई चाल है ?
धनुआ: चाल होती तो वे हमारा नमक खाते ? हमारे संग बैठ के बेर खाते ? भ्रष्ट न हो गए होते ? जब उन्होंने काम की ज़िम्मेवारी हमारे ऊपर छोड़ दी, तो हमारा भी धरम है, कोई कौर-कसर न उठा रखें। आदमी पहचाना।
फतुआ: मालिक, हमें मानुख समझे तो हमारा भी काम में मन लगता है धनुआ ! हम भी जी लगा के काम करेंगे।
(संगीत-कोई मीठी लोकधुन)
(दृश्यान्तर)



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