कहानी संग्रह >> सत्यजित राय की कहानियां सत्यजित राय की कहानियांसत्यजित राय
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इस पुस्तक में सत्यजित राय की कलम से बारह कहानियों का एक गुलदस्ता प्रस्तुत है जिसमें मनुष्य के हर भाव के रंग के फूल हैं....
Satyajit Ray Ki Kahaniyan - A hindi book by Satyajit Ray
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सत्यजित राय भारतीय सिनेमा के जाने-माने व्यक्तित्व हैं और सिनेमा के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए उन्हें ‘दादा साहेब फाल्के’ पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया। एक सफल फिल्म निर्माता-निर्देशक,
पटकथा-लेखक होने के साथ-साथ वे एक साहित्यिक लेखक भी थे।
इस पुस्तक में सत्यजित राय की कलम से बारह कहानियों का एक गुलदस्ता प्रस्तुत है जिसमें मनुष्य के हर भाव के रंग के फूल हैं।
पटकथा-लेखक होने के साथ-साथ वे एक साहित्यिक लेखक भी थे।
इस पुस्तक में सत्यजित राय की कलम से बारह कहानियों का एक गुलदस्ता प्रस्तुत है जिसमें मनुष्य के हर भाव के रंग के फूल हैं।
प्रोफेसर हिजबिजबिज
मेरे साथ जो घटना घटी है, उस पर शायद ही कोई विश्वास करे। अपनी आँखों से देखे बिना बहुतेरे आदमी बहुत-सी बातों पर विश्वास नहीं करते। जैसे भूत। इतना जरूर है कि मैं भूत-प्रेत की कहानी लिखने नहीं बैठा हूँ। सच कहने में हर्ज ही क्या, इसे किस तरह की घटना कहूँ, यह बात खुद मैं ही नहीं जानता। मगर घटना घटी है और घटी है मेरे जीवन में ही। इसीलिए इसमें सचाई है और उसके सम्बन्ध में लिखना भी स्वाभाविक है।
पहले ही बता दूँ कि जिसके कारण यह घटना घटी थी, उसका असली नाम मुझे नहीं मालूम। उसने बताया था कि उसका कोई नाम है ही नहीं। इतना ही नहीं, नाम के बारे में उसने छोटा-मोटा एक भाषण भी दे डाला था-
‘‘नाम से क्या आता-जाता है साहब ? किसी जमाने में मेरा कोई नाम था। अब उसकी जरूरत नहीं है, इसलिए उसको मैंने त्याग दिया है। आप चूँकि आए, बातचीत की, अपना नाम बताया, इसलिए नाम का प्रश्न उठता है। यों यहाँ कोई नहीं आता, और न आने का मतलब है कि कोई मुझे नाम लेकर नहीं पुकारता है। जान-पहचान का कोई आदमी है ही नहीं, किसी से खत-किताबत नहीं। अखबारों में रचना नहीं छपवाता हूँ बैंक के चेक पर दस्तखत नहीं करना पड़ता है-फलस्वरूप नाम का कोई प्रश्न खड़ा होता ही नहीं। एक नौकर है, मगर वह भी गूँगा। गूँगा न होता तो भी वह मेरा नाम लेकर मुझे नहीं पुकारता, बल्कि मुझे ‘बाबू’ कहता। बस बात खत्म। अब सवाल यह पैदा होता है कि आप मुझे क्या कहकर पुकारिएगा। आप इसी पर सोच रहे हैं न ?’’
अन्ततः तय पाया कि मैं उन्हें प्रोफेसर हिजबिजबिज कहकर पुकारूँ। ऐसा क्यों हुआ, यह बात मैं बाद में बताऊंगा। पहले जरूरी है कि शुरू की कुछ बातें बता दूँ।
घटना गोपालपुर में घटी थी। उड़ीसा के गंजम जिले के बरहमपुर स्टेशन से दस मील दूर समुद्र के किनारे गोपालपुर नामक एक छोटा शहर है। पिछले तीन सालों से दफ्तर से छुट्टी नहीं मिल रही थी, क्योंकि काम का दवाब बहुत ज्यादा था। इस बार तीन सप्ताह की छुट्टी लेकर तय किया कि इस अनदेखी, परन्तु नाम से परिचित, जगह में जाऊँगा। दफ्तर के कामों के अलावा मैं एक और काम करता हूँ और वह है अनुवाद का काम। आज तक मेरे द्वारा अंग्रेजी से बंगला में अनुवादित सात जासूसी उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। प्रकाशक का कहना है कि उन उपन्यासों की खपत काफी तादात में हो रही है। बहुत-कुछ उसी के दबाव के कारण मुझे छुट्टी लेनी पड़ी। इन तीन सप्ताहों के बीच एक पूरी किताब के अनुवाद का कार्य-भार मेरे कंधे पर है।
इसके पहले मैं कभी गोपालपुर नहीं आया था। जगह का चुनाव अच्छा हुआ है, इसका पता मुझे पहले दिन ही चल गया। इतने एकान्त और मनोरम स्थान इसके पहले मैंने बहुत ही कम देखे हैं। एकान्त होने का एक दूसरा ही कारण है। यह अप्रैल का महीना है, अप्रैल सैलानियों के आने का मौसम नहीं होता। वायु-परिवर्तन के लिए आने वाले लोगों का झुँड अभी यहाँ नहीं पहुँचा है। मैं जिस होटल में आकर टिका हूँ वहाँ मेरे अतिरिक्त और एक व्यक्ति है- एक वृद्ध आर्मेनियम-नाम मिस्टर ऐराटुन। वे होटल के पश्चिमी छोर के एक कमरे में रहते हैं और मैं पूर्वी छोर के एक दूसरे कमरे में। होटल के लंबे बरामदे के ठीक नीचे से ही रेतीला मैदान शुरू हो जाता है। एक सौ गज की दूरी में फैली रेत पर समुद्र की लहरें आकर पछाड़ खाती रहती हैं। लाल केकड़े बीच-बीच में बरामदे पर चढ़कर चहल-कदमी करते रहते हैं। मैं डेक चेयर पर बैठा-बैठा दृश्यावलोकन और लेखन का कार्य करता रहता हूँ। शाम के वक्त दो घंटे के लिए काम करना बंद कर देता हूँ और रेत पर चहल-कदमी करने के लिए निकल जाता हूँ।
शुरू में दो दिन समुद्र के किनारे से होता हुआ मैं पच्छिम की ओर गया; तीसरे दिन सोचा, पूरब की तरफ भी जाना जरूरी है ! रेत पर पुराने जमाने के टूटे-फूटे घर अजीब जैसे दीखते हैं। मिस्टर ऐराटुन ने बताया था कि ये घर तीन-चार सौ साल पुराने हैं। किसी जमाने में गोपालपुर डचों की चौकी था। इन मकानों में से ज्यादातर उसी जमाने के हैं। दीवार की ईटें चिपटी और छोटी-छोटी हैं, दरवाजे और खिड़कियों के स्थान पर सिर्फ दरारें रह गई हैं और छत के नाम पर छावनी के बजाय खुली जगह ही ज्यादा है मैंने एक घर के अन्दर घुसकर देखा और वहाँ सन्नाटे का आलम पाया।
पूरब की तरफ कुछ दूर जाने पर देखा, एक जगह रेतीला भाग काफ़ी चौड़ा है, इसके फलस्वरूप शहर बहुत पीछे छूट गया है। करीब-करीब पूरी जगह लगभग सौ तिरछी पड़ी नावों से भरी हुई है। समझ गया कि मछुआरे इन्हीं नावों को लेकर समुद्र में मछली पकड़ने निकलते हैं। देखा, मछुआरे जहाँ-जहाँ जमा होकर अड्डेबाजी कर रहे हैं, उनके बच्चे पानी के पास जाकर केकड़े पकड़ रहे हैं, चार-पाँच सूअर इधर-उधर चक्कर लगा रहे हैं।
इसी बीच एक उलटी पड़ी नाव पर दो बंगाली सज्जन बैठे हुए नजर आए। एक आदमी की आँखों पर चश्मा है। वे अपने हाथ में पड़े अखबार को हवा के झोंके के बीच मोड़ने में परेशानी का अनुभव कर रहे हैं। दूसरे सज्जन अपने हाथों को छाती के पास रखकर अपलक समुद्र की ओर देखते हुए बीड़ी का कश ले रहे हैं। मैं ज्योंही उनके निकट पहुंचा, अखबार वाले सज्जन ने परिचय प्राप्त करने की मुद्रा में पूछा, ‘आप यहां नये-नये आए हैं ?’
‘हां...दो दिन...’
‘साहबी होटल में टिके हैं ?’
मैंने मुस्कराकर कहा, ‘आप लोग यहीं रहते हैं ?’
अब वे अखबार को संभालने में सफल हो गए। बोले, ‘मैं यहीं रहता हूँ। छब्बीस वर्षों से गोपालपुर में ही। ‘न्यू बेंगॉली मेरा ही होटल है। तब हाँ, घनश्याम बाबू आपकी ही तरह चेंज में आए हैं।’
मैंने कहा ‘अच्छा’ और बातचीत का सिलसिला खत्म कर आगे बढ़ने लगा, तभी भला आदमी एक दूसरा ही सवाल पूछ बैठा, ‘उधर कहां जा रहे हैं ?’
यूँ ही ज़रा घूमूँगा और क्या ?
क्यों ?’
भारी मुसीबत में फँसा ! क्यों ? घूमने जा रहा हूँ, यह भी उनसे कहना होगा ?
तब तक वे खड़े हो चुके थे। रोशनी आहिस्ता-आहिस्ता फीकी पड़ती जा रही है। आसमान के उत्तरी-पश्चिमी हिस्से में मेघ का एक स्याह चकत्ता आहिस्ता-आहिस्ता फैलाता जा रहा। आँधी आएगी क्या ?
भले आदमी ने कहा, ‘एकाध साल पहले कुछ कहा नहीं जा सकता था। उस समय ऐसी हालत थी कि जहां मर्जी हो, आदमी घूम-फिर सकता था। पिछले सितंबर से पूरब की तरफ, मछुआरों की बस्ती से एकाध मील दूर, एक आदमी डेरा-डंडी डाले बैठ गया है। इन टूटे-फूटे मकानों को देख रहे हैं न, ठीक वैसा ही एक मकान है। मैंने उस मकान को नहीं देखा है। यहाँ के पोस्टमास्टर महापात्र ने बताया कि उसने देखा है।’
मैंने कहा, ‘साधु-संन्यासी टाइप के आदमी हैं क्या ?’
‘बिल्कुल नहीं।’
‘फिर ?’
‘वे क्या हैं, मालूम नहीं। महापात्र ने बताया है कि मकान के टूटे-फूटे हिस्से को तिरपाल से ढँक रखा है। अन्दर क्या करते हैं, किसी को भी इसका पता नहीं। तब हां, छत के एक छेद से बैंगनी रंग का धुआं निकलता हुआ दिखाई पड़ा है। मकान मैंने नहीं देखा है, लेकिन उस आदमी को दो बार देख चुका हूँ। मैं इसी जगह बैठा हुआ था वह मेरे सामने से पैदल जा रहा था। हरदिया कोट-पतलून पहने था। दाढ़ी-मूंछ नहीं हैं, लेकिन सिर पर घने बाल हैं। चहलकदमी करता हुआ मन ही मन कुछ बुड़बुड़ा रहा था। यहां तक कि कई बार ज़ोरों से हँसते हुए भी देखा। मैंने बातें की मगर उसने जवाब नहीं दिया। या तो अभद्र है या फिर पागल। शायद अभद्र और पागल दोनों। उसके पास एक नौकर भी है। वह सवेरे के वक्त बाजार में दिखाई पड़ता है। इतना हट्टा-कट्टा कोई दूसरा आदमी मैंने नहीं देखा है, साहब। उसके सिर के बाल छोटे-छोटे हैं, लंबा-चौड़ा चेहरा। बहुत-कुछ इस सूअर के जैसा। या तो वह गूंगा है या फिर मुंह बन्द किए रहता है। सामान खरीदने के समय भी जबान से शब्द नहीं निकलता है। दुकानदार को हाथ के इशारे से बता देता है। मालिक चाहे जैसा हो, लेकिन वैसा नौकर जिस घर में है, वहाँ न जाना क्या अक्लमंदी का काम नहीं है ?’
घनश्याम बाबू भी तब तक उठकर खड़े हो चुके थे। बीड़ी को रेत पर फेंक कर बोले, ‘‘चलिए साहब।’ दोनों आदमी जब होटल की ओर रवाना होने लगे तो मैंनेजर बाबू ने बताया कि उनका नाम राधा विनोद चाटुर्ज्या है। इसके साथ ही उन्होंने अपने होटल में आने का अनुरोध भी किया।
जासूसी उपन्यासों का अनुवाद करते-करते रहस्य के प्रति मेरे मन में जो एक स्वाभाविक आकर्षण पैदा हो गया है, यह बात ‘न्यू बेंगाली होटल’ के मैंनेजर साहब को मालूम नहीं थी। मैंने घर लौटने की बात सोची ही नहीं, बल्कि पूरब की तरफ ही बढ़ता गया।
अभी भाटे का समय है। समुद्र का पानी पीछे की ओर चला गया है। ज्वार भी बहुत कम आ रहे हैं। किनारे के जिस स्थान पर लहरें झाग उगल रही हैं, वहाँ कुछ कौवे फुदक रहे हैं, फेनों का अम्बार सरसराता हुआ आगे बढ़ता है और फिर पीछे हट जाता है। उसके तुरंत बाद फेन के बुदबुदों को चोंच मारकर कौवे जैसे कुछ चीज खाने लगते हैं। मछुआरों के गाँव को पार करने के बाद लगभग दस मिनटों तक मैं आगे की ओर चलता गया। भीगे रेत पर एक चलती हुई लाल चादर देखकर शुरू में मैं अचकचा उठा। निकट जाने पर पता चला कि यह केकड़ों का दल है जो पानी हट जाने के कारण झुँड बनाकर अपने निवास-स्थान की ओर लौटा जा रहा है।
और पांच मिनटों तक चलने के बाद उस मकान पर नज़र पड़ी। तिरपाल के घेरे की बात पहले सुन चुका था, इसलिए पहचानने में असुविधा नहीं हुई। लेकिन निकट जाने पर देखा, वहाँ सिर्फ तिरपाल ही नहीं है—बांस, लकड़ी, के तख्ते, जंग लगा कॉरगेटेड टीन, यहां तक कि पेस्ट बोर्ड के टुकड़े भी मकान की मरम्मत के काम में लाए गए हैं। देखकर लगा, अगर छत को भेदकर बरसात का पानी अंदर नहीं गिरता है तो किसी आदमी के लिए इस मकान में रहना असंभव नहीं है। मगर वह आदमी है कहाँ ?
कुछ देर तक वहाँ खड़े रहने के बाद मुझे लगा, वह आदमी अगर अधपगला है और उसके पास सचमुच ही एक विशालकाय नौकर है, तो मैं जिस तीव्र कौतूहल के साथ इस मकान की ओर देख रहा हूँ, मेरा यह देखना बुद्धिमानी का काम नहीं है। इससे तो अच्छा यही होगा कि यहाँ से थोड़ी दूर हटकर अनमनेपन के साथ चहल-कदमी करता रहूँ इतनी दूर जब आ ही चुका हूं तो फिर उसे बिना देखे कैसे चला जाऊँ ?
मैं यह सब सोच ही रहा था कि एकाएक ऐसा लगा जैसे घर के सामने के दरवाज़े की दरार के पीछे अँधेरे में कोई चीज हिल-डुल रही है। उसके बाद एक नाटा जैसा आदमी बाहर आया। यह समझने में देर नहीं लगी कि यही आदमी इस मकान का मालिक है। और यही अँधेरे से फ़ायदा उठाकर कुछ देर से मुझ पर निगरानी रख रहा था।
‘आपके हाथ में छह उंगलियाँ देख रहा हूं। हीं ! हीं !’ अचानक महीन आवाज सुनाई दी।
बात सही है। मेरे हाथ में अँगूठे के पास एक ज़्यादा उँगली मेरे जन्म से ही है और जिससे मैं कोई काम नहीं लेता हूं। लेकिन इस आदमी ने इतनी दूर से इसे कैसे देख लिया ?
जब वह बिलकुल पास चला आया तो देखा, उसके हाथ में पुराने ज़माने की एक आँख से देखी जाने वाली दूरबीन है और उसी से वह बेझिझक मेरा अध्ययन कर रहा था।’
‘दूसरी उंगली अवश्य ही अंगूठा है। है न ? हीं ! हीं !’
इस आदमी के गले की आवाज़ अत्यन्त महीन है। इतनी उम्र के किसी आदमी की आवाज इस तरह की मैंने कभी सुनी नहीं थी।
‘आइए बाहर क्यों खड़े हैं ?’
उसकी बात सुनकर मुझे आश्चर्य हुआ। राधाविनोद बाबू की बातों से इस आदमी के बारे में मैंने कुछ और ही धारणा बनाई थी। लेकिन अब देखने में आया कि बहुत खुशमिज़ाज है औऱ व्यवहार में अत्यन्त शालीन।
अभी वह मुझसे दसेक हाथ की दूरी पर है। शाम के धुंधलके में उसे साफ-साफ देख नहीं पा रही था, हालांकि देखने की इच्छा प्रबल थी। इसीलिए उसके अनुरोध को भी ठुकराया नहीं।
‘ज़रा सावधानी से, आप लम्बे आदमी हैं और मेरा दरवाज़ा छोटा......
झुककर अपने सिर को बचाते हुए मैंने उसके निवास स्थान में प्रवेश किया। एक पुरानी सोंधी गंध के साथ समुद्र की नमी से भरी एक गंध तथा एक अजनबी गंध मिल-जुलकर इस पंचमेली पैबन्ददार मकान से सामंजस्य स्थापित कर रही है।
पहले ही बता दूँ कि जिसके कारण यह घटना घटी थी, उसका असली नाम मुझे नहीं मालूम। उसने बताया था कि उसका कोई नाम है ही नहीं। इतना ही नहीं, नाम के बारे में उसने छोटा-मोटा एक भाषण भी दे डाला था-
‘‘नाम से क्या आता-जाता है साहब ? किसी जमाने में मेरा कोई नाम था। अब उसकी जरूरत नहीं है, इसलिए उसको मैंने त्याग दिया है। आप चूँकि आए, बातचीत की, अपना नाम बताया, इसलिए नाम का प्रश्न उठता है। यों यहाँ कोई नहीं आता, और न आने का मतलब है कि कोई मुझे नाम लेकर नहीं पुकारता है। जान-पहचान का कोई आदमी है ही नहीं, किसी से खत-किताबत नहीं। अखबारों में रचना नहीं छपवाता हूँ बैंक के चेक पर दस्तखत नहीं करना पड़ता है-फलस्वरूप नाम का कोई प्रश्न खड़ा होता ही नहीं। एक नौकर है, मगर वह भी गूँगा। गूँगा न होता तो भी वह मेरा नाम लेकर मुझे नहीं पुकारता, बल्कि मुझे ‘बाबू’ कहता। बस बात खत्म। अब सवाल यह पैदा होता है कि आप मुझे क्या कहकर पुकारिएगा। आप इसी पर सोच रहे हैं न ?’’
अन्ततः तय पाया कि मैं उन्हें प्रोफेसर हिजबिजबिज कहकर पुकारूँ। ऐसा क्यों हुआ, यह बात मैं बाद में बताऊंगा। पहले जरूरी है कि शुरू की कुछ बातें बता दूँ।
घटना गोपालपुर में घटी थी। उड़ीसा के गंजम जिले के बरहमपुर स्टेशन से दस मील दूर समुद्र के किनारे गोपालपुर नामक एक छोटा शहर है। पिछले तीन सालों से दफ्तर से छुट्टी नहीं मिल रही थी, क्योंकि काम का दवाब बहुत ज्यादा था। इस बार तीन सप्ताह की छुट्टी लेकर तय किया कि इस अनदेखी, परन्तु नाम से परिचित, जगह में जाऊँगा। दफ्तर के कामों के अलावा मैं एक और काम करता हूँ और वह है अनुवाद का काम। आज तक मेरे द्वारा अंग्रेजी से बंगला में अनुवादित सात जासूसी उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। प्रकाशक का कहना है कि उन उपन्यासों की खपत काफी तादात में हो रही है। बहुत-कुछ उसी के दबाव के कारण मुझे छुट्टी लेनी पड़ी। इन तीन सप्ताहों के बीच एक पूरी किताब के अनुवाद का कार्य-भार मेरे कंधे पर है।
इसके पहले मैं कभी गोपालपुर नहीं आया था। जगह का चुनाव अच्छा हुआ है, इसका पता मुझे पहले दिन ही चल गया। इतने एकान्त और मनोरम स्थान इसके पहले मैंने बहुत ही कम देखे हैं। एकान्त होने का एक दूसरा ही कारण है। यह अप्रैल का महीना है, अप्रैल सैलानियों के आने का मौसम नहीं होता। वायु-परिवर्तन के लिए आने वाले लोगों का झुँड अभी यहाँ नहीं पहुँचा है। मैं जिस होटल में आकर टिका हूँ वहाँ मेरे अतिरिक्त और एक व्यक्ति है- एक वृद्ध आर्मेनियम-नाम मिस्टर ऐराटुन। वे होटल के पश्चिमी छोर के एक कमरे में रहते हैं और मैं पूर्वी छोर के एक दूसरे कमरे में। होटल के लंबे बरामदे के ठीक नीचे से ही रेतीला मैदान शुरू हो जाता है। एक सौ गज की दूरी में फैली रेत पर समुद्र की लहरें आकर पछाड़ खाती रहती हैं। लाल केकड़े बीच-बीच में बरामदे पर चढ़कर चहल-कदमी करते रहते हैं। मैं डेक चेयर पर बैठा-बैठा दृश्यावलोकन और लेखन का कार्य करता रहता हूँ। शाम के वक्त दो घंटे के लिए काम करना बंद कर देता हूँ और रेत पर चहल-कदमी करने के लिए निकल जाता हूँ।
शुरू में दो दिन समुद्र के किनारे से होता हुआ मैं पच्छिम की ओर गया; तीसरे दिन सोचा, पूरब की तरफ भी जाना जरूरी है ! रेत पर पुराने जमाने के टूटे-फूटे घर अजीब जैसे दीखते हैं। मिस्टर ऐराटुन ने बताया था कि ये घर तीन-चार सौ साल पुराने हैं। किसी जमाने में गोपालपुर डचों की चौकी था। इन मकानों में से ज्यादातर उसी जमाने के हैं। दीवार की ईटें चिपटी और छोटी-छोटी हैं, दरवाजे और खिड़कियों के स्थान पर सिर्फ दरारें रह गई हैं और छत के नाम पर छावनी के बजाय खुली जगह ही ज्यादा है मैंने एक घर के अन्दर घुसकर देखा और वहाँ सन्नाटे का आलम पाया।
पूरब की तरफ कुछ दूर जाने पर देखा, एक जगह रेतीला भाग काफ़ी चौड़ा है, इसके फलस्वरूप शहर बहुत पीछे छूट गया है। करीब-करीब पूरी जगह लगभग सौ तिरछी पड़ी नावों से भरी हुई है। समझ गया कि मछुआरे इन्हीं नावों को लेकर समुद्र में मछली पकड़ने निकलते हैं। देखा, मछुआरे जहाँ-जहाँ जमा होकर अड्डेबाजी कर रहे हैं, उनके बच्चे पानी के पास जाकर केकड़े पकड़ रहे हैं, चार-पाँच सूअर इधर-उधर चक्कर लगा रहे हैं।
इसी बीच एक उलटी पड़ी नाव पर दो बंगाली सज्जन बैठे हुए नजर आए। एक आदमी की आँखों पर चश्मा है। वे अपने हाथ में पड़े अखबार को हवा के झोंके के बीच मोड़ने में परेशानी का अनुभव कर रहे हैं। दूसरे सज्जन अपने हाथों को छाती के पास रखकर अपलक समुद्र की ओर देखते हुए बीड़ी का कश ले रहे हैं। मैं ज्योंही उनके निकट पहुंचा, अखबार वाले सज्जन ने परिचय प्राप्त करने की मुद्रा में पूछा, ‘आप यहां नये-नये आए हैं ?’
‘हां...दो दिन...’
‘साहबी होटल में टिके हैं ?’
मैंने मुस्कराकर कहा, ‘आप लोग यहीं रहते हैं ?’
अब वे अखबार को संभालने में सफल हो गए। बोले, ‘मैं यहीं रहता हूँ। छब्बीस वर्षों से गोपालपुर में ही। ‘न्यू बेंगॉली मेरा ही होटल है। तब हाँ, घनश्याम बाबू आपकी ही तरह चेंज में आए हैं।’
मैंने कहा ‘अच्छा’ और बातचीत का सिलसिला खत्म कर आगे बढ़ने लगा, तभी भला आदमी एक दूसरा ही सवाल पूछ बैठा, ‘उधर कहां जा रहे हैं ?’
यूँ ही ज़रा घूमूँगा और क्या ?
क्यों ?’
भारी मुसीबत में फँसा ! क्यों ? घूमने जा रहा हूँ, यह भी उनसे कहना होगा ?
तब तक वे खड़े हो चुके थे। रोशनी आहिस्ता-आहिस्ता फीकी पड़ती जा रही है। आसमान के उत्तरी-पश्चिमी हिस्से में मेघ का एक स्याह चकत्ता आहिस्ता-आहिस्ता फैलाता जा रहा। आँधी आएगी क्या ?
भले आदमी ने कहा, ‘एकाध साल पहले कुछ कहा नहीं जा सकता था। उस समय ऐसी हालत थी कि जहां मर्जी हो, आदमी घूम-फिर सकता था। पिछले सितंबर से पूरब की तरफ, मछुआरों की बस्ती से एकाध मील दूर, एक आदमी डेरा-डंडी डाले बैठ गया है। इन टूटे-फूटे मकानों को देख रहे हैं न, ठीक वैसा ही एक मकान है। मैंने उस मकान को नहीं देखा है। यहाँ के पोस्टमास्टर महापात्र ने बताया कि उसने देखा है।’
मैंने कहा, ‘साधु-संन्यासी टाइप के आदमी हैं क्या ?’
‘बिल्कुल नहीं।’
‘फिर ?’
‘वे क्या हैं, मालूम नहीं। महापात्र ने बताया है कि मकान के टूटे-फूटे हिस्से को तिरपाल से ढँक रखा है। अन्दर क्या करते हैं, किसी को भी इसका पता नहीं। तब हां, छत के एक छेद से बैंगनी रंग का धुआं निकलता हुआ दिखाई पड़ा है। मकान मैंने नहीं देखा है, लेकिन उस आदमी को दो बार देख चुका हूँ। मैं इसी जगह बैठा हुआ था वह मेरे सामने से पैदल जा रहा था। हरदिया कोट-पतलून पहने था। दाढ़ी-मूंछ नहीं हैं, लेकिन सिर पर घने बाल हैं। चहलकदमी करता हुआ मन ही मन कुछ बुड़बुड़ा रहा था। यहां तक कि कई बार ज़ोरों से हँसते हुए भी देखा। मैंने बातें की मगर उसने जवाब नहीं दिया। या तो अभद्र है या फिर पागल। शायद अभद्र और पागल दोनों। उसके पास एक नौकर भी है। वह सवेरे के वक्त बाजार में दिखाई पड़ता है। इतना हट्टा-कट्टा कोई दूसरा आदमी मैंने नहीं देखा है, साहब। उसके सिर के बाल छोटे-छोटे हैं, लंबा-चौड़ा चेहरा। बहुत-कुछ इस सूअर के जैसा। या तो वह गूंगा है या फिर मुंह बन्द किए रहता है। सामान खरीदने के समय भी जबान से शब्द नहीं निकलता है। दुकानदार को हाथ के इशारे से बता देता है। मालिक चाहे जैसा हो, लेकिन वैसा नौकर जिस घर में है, वहाँ न जाना क्या अक्लमंदी का काम नहीं है ?’
घनश्याम बाबू भी तब तक उठकर खड़े हो चुके थे। बीड़ी को रेत पर फेंक कर बोले, ‘‘चलिए साहब।’ दोनों आदमी जब होटल की ओर रवाना होने लगे तो मैंनेजर बाबू ने बताया कि उनका नाम राधा विनोद चाटुर्ज्या है। इसके साथ ही उन्होंने अपने होटल में आने का अनुरोध भी किया।
जासूसी उपन्यासों का अनुवाद करते-करते रहस्य के प्रति मेरे मन में जो एक स्वाभाविक आकर्षण पैदा हो गया है, यह बात ‘न्यू बेंगाली होटल’ के मैंनेजर साहब को मालूम नहीं थी। मैंने घर लौटने की बात सोची ही नहीं, बल्कि पूरब की तरफ ही बढ़ता गया।
अभी भाटे का समय है। समुद्र का पानी पीछे की ओर चला गया है। ज्वार भी बहुत कम आ रहे हैं। किनारे के जिस स्थान पर लहरें झाग उगल रही हैं, वहाँ कुछ कौवे फुदक रहे हैं, फेनों का अम्बार सरसराता हुआ आगे बढ़ता है और फिर पीछे हट जाता है। उसके तुरंत बाद फेन के बुदबुदों को चोंच मारकर कौवे जैसे कुछ चीज खाने लगते हैं। मछुआरों के गाँव को पार करने के बाद लगभग दस मिनटों तक मैं आगे की ओर चलता गया। भीगे रेत पर एक चलती हुई लाल चादर देखकर शुरू में मैं अचकचा उठा। निकट जाने पर पता चला कि यह केकड़ों का दल है जो पानी हट जाने के कारण झुँड बनाकर अपने निवास-स्थान की ओर लौटा जा रहा है।
और पांच मिनटों तक चलने के बाद उस मकान पर नज़र पड़ी। तिरपाल के घेरे की बात पहले सुन चुका था, इसलिए पहचानने में असुविधा नहीं हुई। लेकिन निकट जाने पर देखा, वहाँ सिर्फ तिरपाल ही नहीं है—बांस, लकड़ी, के तख्ते, जंग लगा कॉरगेटेड टीन, यहां तक कि पेस्ट बोर्ड के टुकड़े भी मकान की मरम्मत के काम में लाए गए हैं। देखकर लगा, अगर छत को भेदकर बरसात का पानी अंदर नहीं गिरता है तो किसी आदमी के लिए इस मकान में रहना असंभव नहीं है। मगर वह आदमी है कहाँ ?
कुछ देर तक वहाँ खड़े रहने के बाद मुझे लगा, वह आदमी अगर अधपगला है और उसके पास सचमुच ही एक विशालकाय नौकर है, तो मैं जिस तीव्र कौतूहल के साथ इस मकान की ओर देख रहा हूँ, मेरा यह देखना बुद्धिमानी का काम नहीं है। इससे तो अच्छा यही होगा कि यहाँ से थोड़ी दूर हटकर अनमनेपन के साथ चहल-कदमी करता रहूँ इतनी दूर जब आ ही चुका हूं तो फिर उसे बिना देखे कैसे चला जाऊँ ?
मैं यह सब सोच ही रहा था कि एकाएक ऐसा लगा जैसे घर के सामने के दरवाज़े की दरार के पीछे अँधेरे में कोई चीज हिल-डुल रही है। उसके बाद एक नाटा जैसा आदमी बाहर आया। यह समझने में देर नहीं लगी कि यही आदमी इस मकान का मालिक है। और यही अँधेरे से फ़ायदा उठाकर कुछ देर से मुझ पर निगरानी रख रहा था।
‘आपके हाथ में छह उंगलियाँ देख रहा हूं। हीं ! हीं !’ अचानक महीन आवाज सुनाई दी।
बात सही है। मेरे हाथ में अँगूठे के पास एक ज़्यादा उँगली मेरे जन्म से ही है और जिससे मैं कोई काम नहीं लेता हूं। लेकिन इस आदमी ने इतनी दूर से इसे कैसे देख लिया ?
जब वह बिलकुल पास चला आया तो देखा, उसके हाथ में पुराने ज़माने की एक आँख से देखी जाने वाली दूरबीन है और उसी से वह बेझिझक मेरा अध्ययन कर रहा था।’
‘दूसरी उंगली अवश्य ही अंगूठा है। है न ? हीं ! हीं !’
इस आदमी के गले की आवाज़ अत्यन्त महीन है। इतनी उम्र के किसी आदमी की आवाज इस तरह की मैंने कभी सुनी नहीं थी।
‘आइए बाहर क्यों खड़े हैं ?’
उसकी बात सुनकर मुझे आश्चर्य हुआ। राधाविनोद बाबू की बातों से इस आदमी के बारे में मैंने कुछ और ही धारणा बनाई थी। लेकिन अब देखने में आया कि बहुत खुशमिज़ाज है औऱ व्यवहार में अत्यन्त शालीन।
अभी वह मुझसे दसेक हाथ की दूरी पर है। शाम के धुंधलके में उसे साफ-साफ देख नहीं पा रही था, हालांकि देखने की इच्छा प्रबल थी। इसीलिए उसके अनुरोध को भी ठुकराया नहीं।
‘ज़रा सावधानी से, आप लम्बे आदमी हैं और मेरा दरवाज़ा छोटा......
झुककर अपने सिर को बचाते हुए मैंने उसके निवास स्थान में प्रवेश किया। एक पुरानी सोंधी गंध के साथ समुद्र की नमी से भरी एक गंध तथा एक अजनबी गंध मिल-जुलकर इस पंचमेली पैबन्ददार मकान से सामंजस्य स्थापित कर रही है।
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