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कृष्ण की आत्मकथा - दुरभिसंधि

मनु शर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6449
आईएसबीएन :81-7315-266-7

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‘कृष्ण की आत्मकथा’ का दूसरा भाग

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Krishna ki Atmakatha - Durabhisandhi - A hindi book by Manu Sharma

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कृष्ण के अनगिनत आयाम हैं। दूसरे उपन्यासों में कृष्ण के किसी विशिष्ट आयाम को लिया गया है। किन्तु आठ खण्डों में विभक्त इस औपन्यासिक श्रृंखला ‘कृष्ण की आत्मकथा’ में कृष्ण को उनकी संपूर्णता और समग्रता में उकेरने का सफल प्रयास किया गया है। किसी भी भाषा में कृष्णचरित को लेकर इतने विशाल और प्रशस्त कैनवस का प्रयोग नहीं किया गया है।
यथार्थ कहा जाए तो ‘कृष्ण की आत्मकथा’ एक उपनिषदीय ग्रन्थ है। श्रृंखला के आठ खण्ड इस प्रकार है :

नारद की भविष्यवाणी
दुरभिसंधि
द्वारका की स्थापना
लाक्षागृह
खांडव दाह
राजसूय यज्ञ
संघर्ष
प्रलय

मेरी अस्मिता दौड़ती रही, दौड़ती रही। नियति की अँगुली पकड़कर आगे बढ़ती गई- उस क्षितिज की ओर, जहाँ धरती और आकाश मिलते हैं। नियति भी मुझे उसी ओर संकेत करती रही; पर मुझे आजतक वह स्थान नहीं मिला और शायद नहीं मिलेगा। फिर भी मैं दौड़ता ही रहूँगा; क्योंकि यही मेरा कर्म है। मैने युद्ध में मोहग्रस्त अर्जुन से ही यह नहीं कहा था, अपितु जीवन में बारंबार स्वयं से भी कहता रहा हूँ- "कर्मण्येवाधिकारस्ते"।

वस्तुतः क्षितिज मेरा गंतव्य नहीं, मेरे गंतव्य का आदर्श है। आदर्श कभी पाया नहीं जाता। यदि पा लिया जाता तो वह आदर्श नहीं। इसीलिए न पाने की निश्चिंतता के साथ भी कर्म में अटल आस्था ही मुझे दौड़ाए लिए जा रही है। यही मेरे जीवन की कला है। इसे लोग ‘लीला’ भी कहा सकते हैं; क्योंकि वे मुझे भगवान मानते हैं।... और भगवान का कर्म ही तो लीला है।

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