नेहरू बाल पुस्तकालय >> बुद्धिमान कछुआ बुद्धिमान कछुआबरकी इकबाल अहमद
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बुद्धिमान कछुए ने बिल्ली से कैसे छुटकारा पाया....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
बुद्धिमान कछुआ
चारों तरफ खेत ही खेत थे। इन खेतों का सिलसिला दूर-दूर तक फैला हुआ था।
उत्तर-पश्चिम में बहुत दूर मस्तपुरा की पहाड़ी श्रृंखला हल्के-हल्के
जामुनी रंग में बहुत सुंदर नजर आती थी। इन खेतों में कहीं-कहीं किसान भी
नजर आ जाते जो सिर झुकाए अपने काम में व्यस्त होते थे। मीलों तक फैले हुए
इन खेतों में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर चारों ओर अनगिनत पेड़ थे। इन पेड़ों को
देखकर लगता था जैसे खड़े-खड़े वे अपने चारों ओर फैले खेतों की रखवाली कर
रहे हों।
इन्हीं खेतों के बीच में बहुत दूर पहाड़ों से कोई दो कोस इधर एक जगह एक प्राकृतिक झील थी। झील बहुत ज्यादा बड़ी नहीं थी। उसका पानी हमेशा साफ और ताजा रहता था। झील के दक्षिण में दूर दलदली जमीन थी, इसलिए यहां खेती-बाड़ी नहीं होती थी। उत्तर का क्षेत्र कुछ दूर तक रेतीला और बंजर था। इसलिए यह क्षेत्र भी खेती के लिए बेकार ही था। कहने का मतलब यह कि चारों ओर फैले खेतों के बीच में यह पूरा क्षेत्र सूना और वीरान दिखाई देता था।
झील के किनारे बंजर जमीन की ओर एक बड़ा-सा पीपल का पेड़ था। पेड़ का कुछ भाग झील के ऊपर छतरी की तरह फैला हुआ था और कुछ भाग दलदली जमीन की ओर छाया किए हुए था। बचा हुआ भाग रेतीली जमीन की तरफ फैला हुआ था। जो भाग झील के ऊपर था, उसकी टहनियां झील के पानी से कुछ फुट ऊपर रही होंगी। दूर रहने वाले पक्षी भी उड़ते हुए इधर आ निकलते थे। झील के ऊपर वाली टहनियों पर कुछ देर आराम करते और फिर झील का ठंडा मीठा पानी पीकर उड़ जाते। किसान झील से दूर ही रहते क्योंकि दलदली जमीन खतरनाक भी हो सकती थी। वे अपने पालतू जानवरों को भी उधर नहीं जाने देते थे। यही कारण था कि झील और उसके आसपास का क्षेत्र सुनसान रहता था। इसी झील में बहुत दिनों से कछुओं का एक जोड़ा रहता था। मादा ने कई बार अंडे दिए, लेकिन अपने बच्चों को साथ लेकर झील में तैरने, झील के किनारे चलने, आसापास की हरियाली खाने और फिर झील के तल में जाकर उनके साथ खेलने की उसकी इच्छा एक सपना बनकर रह गयी थी।
मादा आज बहुत उदास थी। उदास तो नर कछुआ भी था, लेकिन वह अपनी भावनाओं को मन में ही छुपाए था। आज फिर दोनों ने मन को उदास करने वाला दृश्य देखा था। आज फिर उनके दिल के टुकड़े को वह दुष्ट झपटकर ले गयी थी। आज तो मादा की जान ही निकल गयी थी। उस दुष्ट ने उनके दिल के टुकड़े को तो झपटा ही था, नर कछुए पर भी छलांग लगाई थी। वह तो बस कछुए का सौभाग्य था कि वह किसी तरह झील में तैरने में सफल हो गया था। अगर नर कछुए को कुछ हो जाता तो मादा का तो जीवन ही बोझ बनकर रहा जाता। एक पल के लिए वह कांप कर रह गयी। मादा झील के किनारे रेतीले भाग में अंडे देती थी। वह अपने अंडों को रेत के नीचे पास-पास दबा देती। वह इन अंडों को इस तरह रेत के नीचे दबाती कि वे बिल्कुल गायब हो कर रह जाते। इस दौरान उसका अधिक समय अंडों के आसपास ही बीतता था। फिर कुछ दिनों के लिए वह अंडों के निकट आना छोड़ देती थी। वह झील के किनारे आकर बैठ जाती और अंडों से बच्चों के निकलने की प्रतीक्षा करती। जब कोई बच्चा उन अंडों से निकलता तो वह उसे प्यार से झील की तरफ बुलाती ताकि वह झील के गहरे पानी में आकर सुरक्षित हो जाए। आज उसके लिए बड़ी खुशी का दिन था। उसका पहला बच्चा अंडे से निकला था। वह उसे देख-देख खुश हो रही थी, मगर यह खुशी ज्यादा देर न रह सकी। वह अपने बच्चे को पुचकार कर झील की ओर बुला रही थी कि एकाएक जंगली बिल्ली दौड़ती हुई आयी और बच्चे को अपने मुँह में दबाकर भागती चली गयी। फिर कुछ दूर जाकर वह कछुए के बच्चे को खाने लगी। मादा तो डर के मारे झील में कूद गयी। मगर नर कछुआ, जो जमीन पर बैठा हुआ था सब कुछ अपनी आँखों से देखता रहा। फिर वह मादा सतह पर दिखाई दी तो नर ने उसे अपनी ओर बुला लिया और वह दर्दनाक दृश्य उसे भी दिखाया। दोनों अपने लाडले की इस तरह मौत पर बहुत रोये। फिर नर कछुए ने मादा को तसल्ली देते हुए कहा था, ‘‘चुप हो जा...सब्र कर....चुप हो जा.....जब दूसरे बच्चे निकलेंगे तो हम उन्हें झील में छुपा देंगे। उन्हें बाहर नहीं निकलने देंगे। उन्हें अपनी झील की सैर करायेंगे और जब वे खूब बड़े हो जायेंगे, तब उन्हें अपने साथ बाहर लायेंगे और....और उन्हें.....’’
नर कछुआ इसी तरह मादा को तसल्ली देता रहा।
इस हादसे के बाद तीन दिन दुख में बीत गये। चौथे दिन उन्होंने देखा कि उनका एक दूसरा बच्चा खोल तोड़ने के बाद अपने ऊपर की रेत हटाकर बाहर निकलकर अंगड़ाई ले रहा है। नर और मादा दोनों खुश होकर उसे देखने लगे। मादा प्यार से दो कदम आगे बढ़ गयी और फिर बच्चे को पुचकार कर अपनी ओर बुलाने लगी। बच्चा मादा की आवाज सुनकर अपनी आंखों को मटकाता हुआ धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ने लगा। अभी वह झील से दो-तीन फुट दूर ही था कि वही जंगली बिल्ली फिर कहीं से मौत की आंधी की तरह आ पहुंची और पलक झपकते ही बच्चे को उठाकर ले गयी। मादा की दर्द भरी चीख निकल गयी। इस तरह हर दूसरे-तीसरे दिन अंडों से बच्चे निकलते रहे और जंगली बिल्ली का पेट भरने के काम आते रहे।
इन्हीं खेतों के बीच में बहुत दूर पहाड़ों से कोई दो कोस इधर एक जगह एक प्राकृतिक झील थी। झील बहुत ज्यादा बड़ी नहीं थी। उसका पानी हमेशा साफ और ताजा रहता था। झील के दक्षिण में दूर दलदली जमीन थी, इसलिए यहां खेती-बाड़ी नहीं होती थी। उत्तर का क्षेत्र कुछ दूर तक रेतीला और बंजर था। इसलिए यह क्षेत्र भी खेती के लिए बेकार ही था। कहने का मतलब यह कि चारों ओर फैले खेतों के बीच में यह पूरा क्षेत्र सूना और वीरान दिखाई देता था।
झील के किनारे बंजर जमीन की ओर एक बड़ा-सा पीपल का पेड़ था। पेड़ का कुछ भाग झील के ऊपर छतरी की तरह फैला हुआ था और कुछ भाग दलदली जमीन की ओर छाया किए हुए था। बचा हुआ भाग रेतीली जमीन की तरफ फैला हुआ था। जो भाग झील के ऊपर था, उसकी टहनियां झील के पानी से कुछ फुट ऊपर रही होंगी। दूर रहने वाले पक्षी भी उड़ते हुए इधर आ निकलते थे। झील के ऊपर वाली टहनियों पर कुछ देर आराम करते और फिर झील का ठंडा मीठा पानी पीकर उड़ जाते। किसान झील से दूर ही रहते क्योंकि दलदली जमीन खतरनाक भी हो सकती थी। वे अपने पालतू जानवरों को भी उधर नहीं जाने देते थे। यही कारण था कि झील और उसके आसपास का क्षेत्र सुनसान रहता था। इसी झील में बहुत दिनों से कछुओं का एक जोड़ा रहता था। मादा ने कई बार अंडे दिए, लेकिन अपने बच्चों को साथ लेकर झील में तैरने, झील के किनारे चलने, आसापास की हरियाली खाने और फिर झील के तल में जाकर उनके साथ खेलने की उसकी इच्छा एक सपना बनकर रह गयी थी।
मादा आज बहुत उदास थी। उदास तो नर कछुआ भी था, लेकिन वह अपनी भावनाओं को मन में ही छुपाए था। आज फिर दोनों ने मन को उदास करने वाला दृश्य देखा था। आज फिर उनके दिल के टुकड़े को वह दुष्ट झपटकर ले गयी थी। आज तो मादा की जान ही निकल गयी थी। उस दुष्ट ने उनके दिल के टुकड़े को तो झपटा ही था, नर कछुए पर भी छलांग लगाई थी। वह तो बस कछुए का सौभाग्य था कि वह किसी तरह झील में तैरने में सफल हो गया था। अगर नर कछुए को कुछ हो जाता तो मादा का तो जीवन ही बोझ बनकर रहा जाता। एक पल के लिए वह कांप कर रह गयी। मादा झील के किनारे रेतीले भाग में अंडे देती थी। वह अपने अंडों को रेत के नीचे पास-पास दबा देती। वह इन अंडों को इस तरह रेत के नीचे दबाती कि वे बिल्कुल गायब हो कर रह जाते। इस दौरान उसका अधिक समय अंडों के आसपास ही बीतता था। फिर कुछ दिनों के लिए वह अंडों के निकट आना छोड़ देती थी। वह झील के किनारे आकर बैठ जाती और अंडों से बच्चों के निकलने की प्रतीक्षा करती। जब कोई बच्चा उन अंडों से निकलता तो वह उसे प्यार से झील की तरफ बुलाती ताकि वह झील के गहरे पानी में आकर सुरक्षित हो जाए। आज उसके लिए बड़ी खुशी का दिन था। उसका पहला बच्चा अंडे से निकला था। वह उसे देख-देख खुश हो रही थी, मगर यह खुशी ज्यादा देर न रह सकी। वह अपने बच्चे को पुचकार कर झील की ओर बुला रही थी कि एकाएक जंगली बिल्ली दौड़ती हुई आयी और बच्चे को अपने मुँह में दबाकर भागती चली गयी। फिर कुछ दूर जाकर वह कछुए के बच्चे को खाने लगी। मादा तो डर के मारे झील में कूद गयी। मगर नर कछुआ, जो जमीन पर बैठा हुआ था सब कुछ अपनी आँखों से देखता रहा। फिर वह मादा सतह पर दिखाई दी तो नर ने उसे अपनी ओर बुला लिया और वह दर्दनाक दृश्य उसे भी दिखाया। दोनों अपने लाडले की इस तरह मौत पर बहुत रोये। फिर नर कछुए ने मादा को तसल्ली देते हुए कहा था, ‘‘चुप हो जा...सब्र कर....चुप हो जा.....जब दूसरे बच्चे निकलेंगे तो हम उन्हें झील में छुपा देंगे। उन्हें बाहर नहीं निकलने देंगे। उन्हें अपनी झील की सैर करायेंगे और जब वे खूब बड़े हो जायेंगे, तब उन्हें अपने साथ बाहर लायेंगे और....और उन्हें.....’’
नर कछुआ इसी तरह मादा को तसल्ली देता रहा।
इस हादसे के बाद तीन दिन दुख में बीत गये। चौथे दिन उन्होंने देखा कि उनका एक दूसरा बच्चा खोल तोड़ने के बाद अपने ऊपर की रेत हटाकर बाहर निकलकर अंगड़ाई ले रहा है। नर और मादा दोनों खुश होकर उसे देखने लगे। मादा प्यार से दो कदम आगे बढ़ गयी और फिर बच्चे को पुचकार कर अपनी ओर बुलाने लगी। बच्चा मादा की आवाज सुनकर अपनी आंखों को मटकाता हुआ धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ने लगा। अभी वह झील से दो-तीन फुट दूर ही था कि वही जंगली बिल्ली फिर कहीं से मौत की आंधी की तरह आ पहुंची और पलक झपकते ही बच्चे को उठाकर ले गयी। मादा की दर्द भरी चीख निकल गयी। इस तरह हर दूसरे-तीसरे दिन अंडों से बच्चे निकलते रहे और जंगली बिल्ली का पेट भरने के काम आते रहे।
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