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नामघरैया

अतुलानंद गोस्वामी

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :72
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6440
आईएसबीएन :978-81-237-3621

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नामघरैया असमिया के प्रसिद्धि उपन्यास का हिन्दी अनुवाद है। चरित्रप्रधान इस उपन्यास का नायक नामघरैया है, जो वैष्णव मंदिर नामघर का सेवक है....

Naamgharaiya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


नामघरैया असमिया के प्रसिद्ध उपन्यास का हिन्दी अनुवाद है। चरित्रप्रधान इस उपन्यास का नायक ‘नामघरैया’ है, जो वैष्णव मंदिर नामघर का सेवक है। वैष्णव परंपरा और मानवीय मूल्यों के वाहक नामघरैया के चरित्र में सन्निविष्ट सनातन मानवीय मूल्यबोध को उपन्यासकार ने शानदार ढंग से व्यक्त किया है। इस उपन्यास का नायक धार्मिक अवश्य है, पर धर्मभीरु नहीं। धर्मांध और नास्तिक—इन दोनों तरह के व्यक्तित्व से एक साथ बचा रह पाना, आज असंभव-सा काम है। परंतु नामघरैया हर अच्छे काम के लिए वंशीगोपाल (ईश्वर) को श्रेय देते हुए, और हर गलत काम के लिए वंशीगोपाल को फटकारते हुए, फजीहत करते हुए जिस तरह उससे रूठता है—वह एक अद्भुत चित्र उत्पन्न करता है। कुल मिलाकर कहा जाए कि यह उपन्यास सकारात्मक सोचों और धनात्मक परिणामों का खजाना है, जिसमें असमिया समाज, संस्कृति और लोकाचार एकत्र हो गए हैं। किसी बांझ महिला की वसीयत में उसकी वासभूमि पर ‘स्वास्थ्य केंद्र’ अथवा ‘बाल केंद्र’ की स्थापना लिखा होना चकित करता है। कुल मिलाकर यह उपन्यास एक ही साथ मानव मूल्य की व्याख्या भी करता है और असमिया जनपद के जीवनयापन का परिचय भी देता है।

भूमिका


सन् 1935 में जन्मे अतुलानंद गोस्वामी विगत चार दशकों से कहानियां लिखते रहे हैं। रचना-शैली की निजी विशिष्टता के कारण वे एक प्रतिष्ठित कहानीकार हैं। कहानीकार के रूप में उन्होंने कथावस्तु और वर्णन-शैली के क्षेत्रों में कोई नया प्रयोग नहीं किया। सरलता और निर्बाध भावावेग ही उनकी वर्णन-शैली की विशेषता है। उनकी कहानियों में सुगठित कथावस्तु एवं चरित्र, मूल्यों में द्वंद्व और विवेक अनवरत रूप से दृष्टिगोचर होते हैं। ‘हामदै पुलर जोन’, ‘पुलकेश बरुआ’, ‘बलीया हाती’ इत्यादि इत्यादि कहानियां असमिया पाठक जगत में अत्यंत लोकप्रिय हैं। तीन दशकों तक केवल कहानियां लिखकर यश कमाने के बाद अतुलानन्द गोस्वामी ने सन् 1990 में ‘नामघरिया’ (नामघरैया) शीर्षक उपन्यास लिखा। इस उपन्यास ने भी उनकी कहानियों की तरह ही लोकप्रियता प्राप्त की। इस उपन्यास की कथावस्तु पारंपरिक नहीं है। ‘नामघरैया’ अर्थात नामघर (शंकरदेव प्रवर्तित वैष्णव मंदिर) के सेवक के जीवन पर लिखित प्रथम असमिया उपन्यास है।

‘नामघरैया’ उपन्यास के माध्यम से उपन्यासकार ने आधुनिक परिवेश में जीवन की एक लुप्त लय को पुनर्प्रतिष्ठित करने की चेष्टा की है। संघर्षों के बीच से ‘नामघरैया’ की जो तस्वीर उभरती है उसका समाज जीवन या जातीय जीवन आज आधुनिकता के भंवरजाल में निःशेष हो चुका है। उपन्यास सबसे पहले किस्तों में पत्रिका में प्रकाशित हुआ था और प्रत्येक किस्त ने उस समाज-जीवन के एक-एक विशेष पक्ष का उद्घाटन किया, जिसकी रक्षा नामघरैया करता रहा है।

‘नामघरैया’ एक चरित्रप्रधान उपन्यास है। वैष्णव परंपरा और मानवीय मूल्यों के वाहक नामघरैया के चरित्र में सन्निविष्ट सनातन मानवीय मूल्यबोध को उपन्यासकार ने सबसे ऊपर रखा है। उन्होंने नामघरैया में ऋषि-सुलभ त्याग और मानव प्रेम का आरोपण किया है। फिर भी, नामघरैया का चरित्र गगनचुंबी व्यक्तित्व नहीं पा सका है। इसका कारण यह है कि नामघरैया समाज-परिवर्तन की धारा में गुम हो गए विश्वास और मूल्यबोध को ही एक नए परिवेश में संप्रसारित करता है। क्रमशः परिवर्तित हो रही समाज-व्यवस्था में नामघरैया के विश्वास और मूल्य अप्रासंगिक हो जाने के कारण ही उपन्यास पाठकों को स्मरण दिलाता रहता है कि नामघरैया की सामाजिक स्थिति का महत्त्व नाममात्र का है। नए समाज में आध्यात्मिक नैतृत्व नामघरैया के हाथ में नहीं है। जिस समाज में धर्म का प्रभाव शिथिल पड़ता जा रहा है। उसमें नामघरैया के मूल्यबोध के प्रति लोगों के आकृष्ट होने का कोई कारण भी नहीं। जरूरत के समय लोग नामघरैया के पास आते, उसकी बातें सुनते, पर वही हंसी का पात्र भी बनता।

दैनन्दिन सभी घटनाएं और दृश्यमान चीजें, जगत के सभी प्रपंचों की व्याख्या नामघरैया ईश्वर के विश्वास के आधार पर करता है। उसका ईश्वर उसके विश्वासों का समुच्चय है। ईश्वर नामघरैया के लिए कोई अलौकिक कार्य नहीं करता। कहीं कोई घटना अलौकिक जैसी लगने पर भी उपन्यासकार उसकी तर्कसंगत व्याख्या के प्रति आग्रही नहीं दिखता। नामघर में वंशीगोपाल के साथ होने वाले वार्तालाप और ईश्वर की आवाज-असल में उपन्यास में नामघरैया की अपनी कल्पना के रूप में ही दिखाए गए हैं।
बुद्धिवादी उपन्यासकार का विश्वास है कि भगवान की आवाज यदि हमें सुननी है, तो नामघरैया की तरह ही सुननी होगी। लेकिन नामघरैया का ईश्वर और ईश्वर के न्याय के प्रति ही विश्वास अटल और सुनिश्चित नहीं है। नामघरैया के चारों ओर के संसार में घट रहे नए घटना-प्रवाह को वह वंशीगोपाल की इच्छा से घटने वाली घटना अथवा ईश्वर का न्याय मानने में कठिनाई का अनुभव करता है। कभी-कभी वंशीगोपाल की प्रस्तर-मूर्त को लक्ष्य कर नामघरैया की बातों से स्पष्ट है कि नामघरैया का ईश्वर के प्रति विश्वास यदा-कदा लड़खड़ा जाता है। मूर्ति के समक्ष साष्टांग प्रणाम करते समय भी नामघरैया गांव में घटने वाली घटनाओं की तर्कपुष्ट व्याख्या का ही अनुसंधान करता रहता है। ईश्वर की लीला मानकर घटनाओं में औचित्य नहीं देख पाता नामघरैया।

नामघरैया सबको भला पाता और किसी के प्रति ईर्ष्या-द्वेष को वह अपने हृदय में स्थान नहीं देता है। उसे जो मिल जाता है, उसी में संतुष्ट है और कुछ न मिलने पर भी कभी आपत्ति नहीं करता है। समाज के लिए कल्याणकर काम वह पर्दे के पीछे रहकर करता है और सफलता के लिए कोई स्वीकृति नहीं चाहता है। उसके चरित्र का सबसे उज्ज्ल गुण है—आत्मालोचना। जो नामघरैया अपने मामले में रीति-नीति और आचार-विचार के पालन में बड़ा कठोर है, वही बाहरी संसार में साधु और चोर के प्रति भी समदर्शिता रखता है। गांव के ही एक चोर के जेल जाने पर, परिवार में कमाऊ आदमी के अभाव में नामघरैया उसकी जीविका के लिए व्यस्त हो जाता है। नामघरैया बाखर को कारोबार करना सिखलाता है।

अनेक संघर्षों ने नामघरैया के अंतरद्वन्द्व को तीव्रतर किया है, फलतः उसका चरित्र बड़ा आकर्षक हो गया है। कभी-कभी, ऐसे संघर्ष का भी चरित्र में सह-आस्तित्व है, जिसकी कोई व्याख्या नहीं। रीति-नीति और सनातन मानव-मूल्यों का सजग प्रहरी होने पर भी कभी-कभी वही रीति-नीति का उल्लंघन भी करता है। सभापति बनने पर पुरोहित जी को प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र का फर्श बुहारना और पोछना पड़ेगा, ऐसी समझ के कारण सभापति पद के लिए उनका नाम प्रस्तावित करने वाले परमा की धृष्टता के लिए वह कठोर भाषा में भर्त्सना करता है। वही आदमी डिंब के परिवार को लोक-लाज से बचाने के लिए ब्याह के एक दिन पहले लड़की के एक मुसलमान युवक के साथ भाग जाने पर एक मनगढ़ंत कहानी कहकर झूठ का सहारा भी लेता है। असल में नामघरैया मानव-मूल्यों को चिरंतन और अपरिवर्तनीय नहीं मानता। वह उनकी सापेक्षता का ही विश्वासी है। मनुष्य का कल्याण होने पर वह उनका समर्थन करता है और यदि कल्याण में बाधक हो, तो उन्हें त्याग भी सकता है। वह सरल और सीधा है, पर मूर्ख नहीं है। बाहरी दुनिया में आए परिवर्तन के बारे में वही सबसे कम जानता है, परन्तु वही सबसे आगे परिवर्तन के साथ अपने आपको मिला सकता है। कागज मिल बांस के मचान पर कैसे बैठाएगा, यह प्रश्न करके अपनी नासमझी का इजहार कर वह खुद को हास्यास्पद बनाता है, लेकिन कागज मिल से संबंधित एक दूसरी दिशा में वह दूरदर्शिता और व्यावहारिकता का परिचय भी देता है। कागज मिल बांसबाड़ियों को खत्म कर देगी, उसके बाद बांस की जड़ों को रोपने की आवश्यकता वह बड़ी गंभीरता से समझता है और उस काम में अग्रणी भूमिका निभाता है।

अतुलानन्द गोस्वामी कहानी कहने की कला जानते हैं, इसलिए आरंभ से ही नामघरैया की कहानी में पाठकों की रुचि और कौतूहल बनाए रख सके हैं। चरित्र-चित्रण के क्षेत्र में नामघरैया के अलावा और किसी का चरित्र स्पष्टता से उजागर होने लायक अंकित नहीं हुआ है। नामघरैया की विविध रेखाएं उद्भासित करने के लिए वर्णित घटनाओं-उपघटनाओं में आए चरित्र भी निस्संदेह कठपुतले नहीं हैं और सामूहिक रूप से वे सब किसी-न-किसी वातावरण की सृष्टि करते हैं।
‘नामघरैया’ की कथावस्तु आरंभ से ही किसी सुनिश्चित परंपरागत रीति को मानक मानकर नहीं चली है। अन्य पुरुष में वर्णित घटनाएं प्रत्येक अध्याय में स्वयं पूर्ण हैं और घटनाएं समग्र रूप में नए-पुराने के द्वंद्व में लुप्तप्राय हो रही समाज की सुश्रृंखलता और नए समाज के स्वरूप को ही प्रकट करती हैं। घटनाओं को इकट्ठा करने के लिए नामघरैया को केंद्र में रखा गया है, परंतु नामघरैया घटना प्रवाह की परिचालक शक्ति नहीं है, अथवा घटनाओं के प्रवाह को नामघरैया नियंत्रित नहीं करता। घटना प्रवाह या कथावस्तु का केंद्र नामघरैया है या गांव, इसके बारे में उपन्यासकार खुद भी अनिश्चित है। शीर्षक में उसने नामघरैया को ही केंद्र में रखने की इच्छा प्रकट की है, ऐसा निश्चित करने पर भी पाठक देखता है कि किसी-किसी अध्याय का घटना प्रवाह नामघरैया को केंद्र से बाहर किए हुए है।

भारतीय दर्शन और असम की वैष्णव परंपरा में व्यक्ति के आर्थिक और राजनीतिक जीवन को स्वीकृति देने पर भी, वस्तुतः संयम और कठोर शासन को ही आदर्श मान लिया गया है। इंद्रिय-ग्राह्य दैहिक भोगविलास में आसक्त होना आदर्श नहीं है। नामघरैया कठोर अनुशासन और आत्मसंयम के आदर्श को सबसे ऊपर रखता है। त्याग, संयम और कठोर अनुशासन का मनोवैज्ञानिक उत्स तलाशने पर वैवाहिक या सांसारिक जीवन के प्रति संशय की भावना भी उद्घाटित हो सकती है, लेकिन लेखक ने वैसी कोई तलाश नहीं की। सांसारिक जीवन में उलझना एक जंजाल है और नामघरैया ने इस जंजाल से अपने को दूर रखा है। उपन्यासकार ने जानबूझकर ही नामघरैया के जन्म और परिवार के वृत्तान्त का प्रसंग टाल दिया है। किस गांव में नामघरैया जीवन-यापन करता है और आखिरी सांस छोड़ता है, वह गांव केवल घटना की पृष्ठभूमि ही नहीं है, गांव खुद भी लोगों की गतिविधियां बहुत हद तक नियंत्रित करता है। यह भी कह सकते हैं कि नामघरैया के कर्म और चिंतन का भी नियंत्रण गांव का जीवन करता है। गांव के साथ नामघरैया का भावनात्मक संबंध इतना गहरा है कि तीर्थयात्रा की तरह के कामों में भी नामघरैया गांव से दूर नहीं जा सका है।
नामघरैया ने भगवान या वंशीगोपाल को कभी भी बाहरी जगत में नहीं ढूँढ़ा। वंशीगोपाल के अन्वेषण में वह तो चिंतन और चेतना के समंदर में डुबकियां लगाता है। हाट में सुग्गे द्वारा निकाले गए कागज के टुकड़े को पढ़कर लोगों के भविष्य के बारे में भाग्य बताने वाले प्रवंचक को नामघरैया बेनकाब कर डालता है। वह कोई भी बात युक्तिपूर्वक सोचे-समझे बिना मान नहीं लेता। लेकिन, युग की परंपरा और मूल्यबोध अथवा सामाजिक आचार-विचार या संस्थाओं को वह व्यक्तिगत तर्क और युक्ति से ऊंचा स्थान देता है। लोगों के सुख-दुख के लिए वह लोगों को ही जिम्मेवार ठहराता है।

‘नामघरैया’ उपन्यास की रोचकता का एक कारण यह भी है कि घटनाओं का वर्णन प्रधानतः नामघरैया के नजरिए से किया गया है और उपन्यासकार ने अपनी टिप्पणी देने के लिए कहीं भी कथाप्रवाह में अवरोध आने नहीं दिया है। नामघरैया के नजरिए से वर्णन करने के कारण उपन्यासकार तत्युगीना असम और भारत के समाजजीवन को प्रभावित करने वाली आर्थिक, राजनीतिक इत्यादि घटनाओं को कहानी की धारा में सम्मिलित किए बिना ही रह गया है। नए परिवर्तनों ने असम के भीतरी गांवों को जितनी दूर तक प्रभावित किया है, ‘नामघरैया’ की कथा में परिवर्तन का समावेश उतनी ही दूर तक हुआ है। उन परिवर्तनों में बाढ़-पीड़ित लोगों की खेती में ट्रैक्टर से जुताई, कागज की मिल की स्थापना और गांव के एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के उद्घाटन के प्रसंग उल्लिखित हैं। इन परिवर्तनों के कारण ही पुराने आचार-विचार और मूल्यबोध का भी संकट उपस्थिति हुआ है। प्रेम और त्याग के आदर्श में विश्वास करने वाले लोग परिवर्तन की धारा में क्रमशः अल्पमत होते गए हैं और एक-दूसरे के सुख-दुख को मिल-बांटकर जीवन-यापन करने की सामाजिकता की धारा क्रमशः लुप्त होती गई है।
वैष्णव परंपरा और आदर्श का प्रभाव आधुनिक असमिया संस्कृति और सामाजिक जीवन पर, कम मात्रा में होने पर भी, विद्यमान है। ऐसी ही दिशा और दृष्टि से ‘नामघरैया’ की कथावस्तु गढ़ी गई है। निरक्षर होकर भी नामघरैया जाति-धर्म के व्यवधान को पार कर मानवता पर अपने विश्वास को स्थिर रख सका है और यह वैष्णव परंपरा में पले-बढ़े होने के कारण ही संभव हो पाया है।

उपन्यास की कथा के आरंभ के साथ-साथ एक गांव के नर-नारी, लड़के-लड़कियां, जवान-बूढ़े सब-के-सब दिन–प्रतिदिन के जीवन-संग्राम में उतर पड़ते हैं जिससे चित्रण बड़ा ही सजीव हो उठा है। लोगों की कथित भाषा के साथ उपन्यासकार का निविड़ परिचय नाटकीय परिस्थितियों और संवादों को सहज-स्वाभाविक स्वतःस्फूर्ति प्रदान करता है। नायक नामघरैया के इस प्रेम, उदारता, विवेक, सहानुभूति, निःस्वार्थता, सूक्ष्म हास्य-रस-बोध इत्यादि के कारण पाठक के मन में अंकित उसकी छवि सरलता से धूमिल होने वाली नहीं है। वस्तुतः ‘नामघरैया’ आधुनिक असमिया साहित्य का एक रोचक उपन्यास है।
आनन्द बरमुदै

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