कहानी संग्रह >> कोहरे से लिपे चेहरे कोहरे से लिपे चेहरेसूर्यकान्त नागर
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कहानी संग्रह, ये कहानियाँ प्रवाहमयी भाषा जिसमें कहीं कहीं व्यंग्य का मार्मिक और अनायास स्पर्श है-वर्णन, संवाद और चरित्रांकन तीनों में
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सूर्यकांत नागर उन कथाकारों में हैं जो आधुनिक संवेदना की जटितला और उसकी सहज अभिव्यक्ति के बीच पुल बनाते हैं। उनके रचनाकार की मार्मिकता मनुष्य के विशिष्ट स्वभाव और स्थितियों में उतरकर उन्हें पहचानने के गुणों में निहित है। वे अपनी कहानियों में इनके अंतर्संबंधों के प्रति व्यग्र दिखाई देते हैं।
उनकी चिंता के केंद्र में मनुष्यता है। मानवीय मूल्यों में उनकी गहरी आस्था है। अपनी कहानियों में मनुष्य के दोहरे और दोगलेपन को उजागर करने का वे कोई अवसर नहीं छोड़ते। दूसरों के द्वारा अपमानित होने के बजाय जब मध्यमवर्गीय मनुष्य स्वयं की नज़रों में लज्जित होता है तो अधिक ग्लानि का अनुभव करता है। संग्रह की ‘तमाचा’, ‘अँधेरे में उजास’, ‘एक और विभाजन’ तथा ‘अब अब और नहीं’ कहानियाँ इसी श्रेणी की हैं। नागर जी के पास एक सहज, प्रवाहमयी भाषा है, जिसमें कहीं-कहीं व्यंग्य का मार्मिक और अनायास स्पर्श है-वर्णन, संवाद और चरित्रांकन तीनों में।
सूर्यकांत नागर किसी विचारधारा में जकड़े लेखक नहीं हैं कि विचारधारा का सहारा लेकर वैतरणी पार कर लें। वे स्वाधीनता का मार्ग चुनते हुए अपनी राह स्वयं बनाते हैं। उनकी हर कहानी सौद्देश्य और उत्तरदायी है। कथा-कथन में वे सिद्ध हैं। कहानियों की नोकें भले उतनी उभरी दिखाई न दें, परंतु भीतरी चुभन प्रायः हर कहानी में मौजूद है। सादा तबियत और अंतर्मुखी नागर जी ने विविध विषयों में खूब लिखा है, लेकिन वे कभी भी अपने विशिष्ट होने का भान नहीं होने देते।
उनकी चिंता के केंद्र में मनुष्यता है। मानवीय मूल्यों में उनकी गहरी आस्था है। अपनी कहानियों में मनुष्य के दोहरे और दोगलेपन को उजागर करने का वे कोई अवसर नहीं छोड़ते। दूसरों के द्वारा अपमानित होने के बजाय जब मध्यमवर्गीय मनुष्य स्वयं की नज़रों में लज्जित होता है तो अधिक ग्लानि का अनुभव करता है। संग्रह की ‘तमाचा’, ‘अँधेरे में उजास’, ‘एक और विभाजन’ तथा ‘अब अब और नहीं’ कहानियाँ इसी श्रेणी की हैं। नागर जी के पास एक सहज, प्रवाहमयी भाषा है, जिसमें कहीं-कहीं व्यंग्य का मार्मिक और अनायास स्पर्श है-वर्णन, संवाद और चरित्रांकन तीनों में।
सूर्यकांत नागर किसी विचारधारा में जकड़े लेखक नहीं हैं कि विचारधारा का सहारा लेकर वैतरणी पार कर लें। वे स्वाधीनता का मार्ग चुनते हुए अपनी राह स्वयं बनाते हैं। उनकी हर कहानी सौद्देश्य और उत्तरदायी है। कथा-कथन में वे सिद्ध हैं। कहानियों की नोकें भले उतनी उभरी दिखाई न दें, परंतु भीतरी चुभन प्रायः हर कहानी में मौजूद है। सादा तबियत और अंतर्मुखी नागर जी ने विविध विषयों में खूब लिखा है, लेकिन वे कभी भी अपने विशिष्ट होने का भान नहीं होने देते।
तमाचा
जब से फोन आया है, परेशान हूँ। तय नहीं कर पा रहा कि फोनकर्ता के लिए ‘उसने’ जैसे अशालीन शब्द का प्रयोग करूँ या ‘उन्होंने’ जैसे सम्मानजनक शब्द का, लेकिन उनकी उम्र का खयाल कर ‘उसने’ शब्द के प्रयोग का मन नहीं हुआ। पचास के आसपास तो होंगे ही। यह मेरा अनुमान भर है। चार-पाँच बरस इधर–उधर भी हो सकते हैं। कुछ लोग बदन–चोर होते हैं। होते साठ के हैं, लगते पचास के हैं। कुछ वक्त से पहले बूढ़े हो जाते हैं। इनमें कुछ वक्त के मारे होते हैं, कुछ कुदरत के। वैसे भी मनुष्य होता क्या है, दिखता क्या है। कई बार जो दिखता है, होता नहीं। जो नहीं दिखता, वह होता हैः मनुष्य को जानना आसान नहीं है। अनुभवों का अक्षत भंडार होने पर भी आप धोखा खा सकते हैं। आदमी को करीब से जानने–समझने पर ही पता चलता है कि वह जितना बाहर है, उतना ही अंदर भी है या नहीं ?
फोन आने के बाद से अनुमानों, अटकलों और आशंकाओं के महासागर में गोते लगा रहा हूँ। लेकिन जैसे समुद्र में अनायास हाथ आई मछली फिसल जाती है, विचार भी फिसलते रहे। दरअसल, उनसे मेरा परिचय सतही ही रहा है, यदि उसे परिचय की संज्ञा दी जा सके। शुरू में तो मुझे उनका नाम भी ठीक से ज्ञात न था। एक मित्र के माध्यम से मैंने उनका नाम जाना था। कभी-कभार किसी समारोह या अन्यत्र उनसे आमना–सामना हो जाता था। वे बड़े आत्मीय भाव से, चेहरे पर मुस्कान बिखेरते हुए, नमस्कार करते थे। याद नहीं पड़ता, हमारे बीच कभी कोई औपचारिक ही सही, संवाद की स्थिति बनी हो। हाँ, नमस्कार का अवसर वे नहीं चूकते। कभी दूर से, कभी पास से। मैं भी उनके नमस्कार का प्रत्युत्तर सहजता से देने की कोशिश करता। लेकिन उस दिन उनका अचानक फोन आ गया तो मैं चौंका। बताया, वे मुझसे मिलना चाहते हैं। पूछा क्या कोई खास बात है ? उन्होंने इतना ही कहा, बस वैसे ही। मैंने दारोगा की ऊँचाई से जानना चाहा कि उन्हें मेरा नंबर कहाँ से मिला तो कहा कि नंबर और पता उन्होंने डायरेक्टरी से लिया है। सौजन्यतावश मुझे कहना पड़ा था, ‘आइए, स्वागत है।’
किसी दिन फोन करके आऊँगा, उन्होंने कहा था और फोन रख दिया था। परिचितों-अपरिचितों के ऐसे टेलीफोन आते रहते हैं। पूछने पर वे कारण भी बता देते हैं। लेकिन एक तो इन अल्प परिचित महाशय का फोन आना ही आश्चर्यजनक था, ऊपर से कारण न बताकर उन्होंने अपने आगमन को रहस्यमय बना दिया। सभ्यता का तकाजा है कि पूछने पर आप अपने आने का मतंव्य बताएँ। फिर न धन्यवाद, न आभार। ‘किसी दिन फोन करके आऊँगा’, कहा और धमकी देते किसी आंतकवादी की तरह फोन रख दिया।
उस फोन को भूल पाना संभव नहीं हुआ। वह निरंतर मेरा पीछा करता रहा। इस पीछे के पीछे शायद उनके चेहरे पर चिपकी वह मुस्कान थी जो मुलाकात के समय वे ओढ़ लेते थे। क्या निहितार्थ हो सकता है उस मुस्कान का ? उनके आने और उनकी मुस्कान का कोई अंतर्सबंध है ? दुआ-सलाम से बात आगे कभी बढ़ी नहीं, फिर अचानक ऐसा हो गया। जानते हों शायद कि छोटा–मोटा अफसर भी हूँ। कोई काम अटका हो दफ्तर में। लाइसेंस-परमिट का। या बेटे के लिए नौकरी चाहते हों। या बेटी के लिए योग्य वर की तलाश हो। चिंतित और परेशान पिता कहाँ-कहाँ नहीं भटकता। किस-किस के आगे माथा नहीं टेकता। या दलाली-वलाली का धंधा करते हो। घास डालने आ रहे हों मेरे सामने। अथवा चंदा-वसूली का मामला हो। हाथ फैलाए चंदा माँगने वालों की कोई कमी है क्या ? या फिर दुखड़ा रोकर उधार माँगना चाहते हों !
मैं आशंकाओं से मुठभेड़ करता रहा। विचार-श्रृंखला थी कि पीछा छोड़ ही नहीं रही थी। जितना मैं उसकी पकड़ से बाहर आने की कोशिश करता, वह उतनी ही मजबूती से मुझे जकड़ लेती। सेमिनारों-समारोहों आदि के कारण उन्हें यह तो पता है कि मैं लिखने-पढ़ने वाला आदमी हूँ। संभव है, उन्होंने स्वैच्छिक सेवा-निवृत्ति ले ली हो और उम्र के इस पड़ाव पर आकर लिखने का शौक चर्राया हो। कह सकते हैं, नौकरी में बहुत व्यस्त रहा, अब फुरसत हुई तो थोड़ी साहित्य-सेवा कर लूँ। अपनी कोई रचना या पांडुलिपि लेकर आ रहें हो, जँचवाने-दिखाने या भूमिका लिखवाने। ऐसा हुआ तो माफी माँग लूँगा। नहीं है, मेरे पास समय। पहले ही बहुत परेशान हूँ। न ही मेरा मूड ठीक है, इन दिनों। हो सकता है, रचना प्रकाशन के लिए संपादक से सिफारिश कर देने की याचना लेकर आ रहे हों। नहीं जानते लोग कि एक आदर्श संपादक को केवल एक अच्छी रचना ही प्रभावित कर सकती है। उसके समक्ष रचना होती है, रचनाकार नहीं। यह भी संभव है कि अपनी कोई किताब लेकर आ रहे हो, भेंट करने या विमोचन करवाने। ऐसे अद्भुत रचनाकारों की कमी नहीं है इस धरा पर जो साहित्य में अपनी प्रथम पुस्तक के साथ ही सीधे पदार्पण करते हैं, भले ही इससे कभी किसी ने न उन्हें सुना हो, न पढ़ा हो। एक धूमकेतु की भाँति अवतरित होते हैं और अपने प्रकाश-पुंज से सबको चमत्कृत कर देते हैं। हो सकता है, धूमकेतु की भाँति किसी दिन आकर दरवाजे पर दस्तक दे दें।
...शायद सहज मिलने आ रहे हों ! पर यह तर्क स्वीकारने को मन नहीं हुआ। आजकल भला कौन किसी से यूँ ही मिलने आया है, बेमतलब ! किसे फुरसत है इस भाग-दौड़ भरी जिंदगी में। जो भी आता है, स्वार्थ के घोड़े पर सवार होकर आता है। मित्र को फोन करो तो वह भी पूछता है, ‘आज कैसे याद किया?’ परिचित के फोन आने पर पहले वे बच्चों और भाभीजी का हाल-चाल पूछते हैं, फिर धीमे से अपना कोई काम बता देते हैं। पड़ोसी मिश्राजी तो हमसे मात्र इसलिए मधुर संबंध बनाए हुए हैं कि जरूरत पड़ने पर वे हमारे फोन और वाहन-सुविधा का लाभ ले सकें। इसीलिए गाहे-बगाहे पकौड़ै, सिवइयाँ और खीर भेजते रहते हैं और कॉलोनी–भर में डंका पीटते रहते हैं कि मेहताजी से हमारे घरेलू संबंध है। इस पृष्ठभूमि के चलते मैं उत्सुक था जानने को कि आखिर महाशय मुझसे मिलना क्यों चाहते हैं। भय था कि कहीं ऐसा कुछ न कह या माँग बैठें कि मुश्किल में पड़ जाऊँ। मुझे अपनी कथित लेखकीय छवि की चिंता थी। वे मुझे साहित्यिक ईमानदारी और सामाजिक ईमानदारी में भेद न होने के संदर्भ में वक्तव्य देते सुन चुके थे। इससे तो बेहतर था, मैं उन्हें उस दिन फोन पर ही टाल देता।
एक दिन वे सचमुच आ धमके। सादी पोशाक। बाल उलझे हुए। पाँवों में चप्पल। फोन करके आने को कहा था, पर बिना फोन किए ही आ गए। अच्छा नहीं लगा। मैं कुछ कहता उसके पहले ही उन्होंने कहा, ‘‘क्षमा करें, फोन किए बगैर चला आया। दरअसल, मेरे यहाँ फोन की सुविधा नहीं है। उस दिन भी मैंने पब्लिक बूथ से फोन किया था। सोचा, चलता हूँ, मिल जाएँगे तो ठीक है, वरना अगले दिन ट्राई करूँगा।’
उनकी पोशाक तथा फोन न होने की जानकारी ने मुझे और भी असमंजस में डाल दिया। निश्चित ही मामला पैसे-कौड़ी का होगा। मैं और सावधान हो गया। मन ही मन मैंने दो-एक बहाने गढ़ लिए। वे कुछ देर इधर-उधर की बातें करते रहे। यह भी कि मेरा लिखा उन्होंने काफी कुछ पढ़ा है। मेरी तीन-चार कृतियों के नाम भी गिना दिए। लगा, वह बिंदु आ गया है जहाँ प्रशंसा का पुल बाँधते हुए वे अपने असली मंतव्य पर आ जाएँगे। यह तो जानते ही होंगे कि तारीफ किसे बुरी लगती है। कुछ लोगों की तो यह कमजोरी होती है। चने के पेड़ पर चढ़ाकर उनसे कोई भी काम करवाया जा सकता है। हर क्षण मेरी बेचैनी आशंका बढ़ती जा रही थी। लेकिन वे निस्पृह भाव से बोले जा रहे थे। कुछ देर के लिए वे रुके। फिर विनम्र भाव से बोले, ‘‘बोले, ‘‘सर, मैं आपसे एक प्रार्थना करना चाहता हूँ, यदि आप अन्यथा न लें।’’
मेरे हृदय की धड़कन एकाएक तेज हो गई। वह क्षण आ गया जिसका भय था। मैं कुछ कहता उसके पहले ही उन्होंने कहा, ‘‘मैंने सुना है, आपके बेटे का गुर्दा खराब हो गया है और उपचार के लिए आपने उसे चेन्नई भेजा हुआ है।’’
मैं फिर चौंका। इन्हें कैसे खबर हो गई ? मैंने यह बात अभी तक लगभग गुप्त रखी हुई थी। दो-तीन नजदीकी रिश्तेदारों को ही पता था। शायद उन्हीं में से किसी ने बताया हो। गुर्दे में दोष का पता कुछ दिनों पूर्व ही चला था। डॉक्टरों का कहना था, शायद उपचार से लाभ हो जाए। वरना गुर्दा प्रत्यारोपित करना पड़ेगा। मुझे यूँ हतप्रभ व दुखी देख वे बोले, ‘‘ईश्वर करे, आपका बेटा ठीक हो जाए।
फोन आने के बाद से अनुमानों, अटकलों और आशंकाओं के महासागर में गोते लगा रहा हूँ। लेकिन जैसे समुद्र में अनायास हाथ आई मछली फिसल जाती है, विचार भी फिसलते रहे। दरअसल, उनसे मेरा परिचय सतही ही रहा है, यदि उसे परिचय की संज्ञा दी जा सके। शुरू में तो मुझे उनका नाम भी ठीक से ज्ञात न था। एक मित्र के माध्यम से मैंने उनका नाम जाना था। कभी-कभार किसी समारोह या अन्यत्र उनसे आमना–सामना हो जाता था। वे बड़े आत्मीय भाव से, चेहरे पर मुस्कान बिखेरते हुए, नमस्कार करते थे। याद नहीं पड़ता, हमारे बीच कभी कोई औपचारिक ही सही, संवाद की स्थिति बनी हो। हाँ, नमस्कार का अवसर वे नहीं चूकते। कभी दूर से, कभी पास से। मैं भी उनके नमस्कार का प्रत्युत्तर सहजता से देने की कोशिश करता। लेकिन उस दिन उनका अचानक फोन आ गया तो मैं चौंका। बताया, वे मुझसे मिलना चाहते हैं। पूछा क्या कोई खास बात है ? उन्होंने इतना ही कहा, बस वैसे ही। मैंने दारोगा की ऊँचाई से जानना चाहा कि उन्हें मेरा नंबर कहाँ से मिला तो कहा कि नंबर और पता उन्होंने डायरेक्टरी से लिया है। सौजन्यतावश मुझे कहना पड़ा था, ‘आइए, स्वागत है।’
किसी दिन फोन करके आऊँगा, उन्होंने कहा था और फोन रख दिया था। परिचितों-अपरिचितों के ऐसे टेलीफोन आते रहते हैं। पूछने पर वे कारण भी बता देते हैं। लेकिन एक तो इन अल्प परिचित महाशय का फोन आना ही आश्चर्यजनक था, ऊपर से कारण न बताकर उन्होंने अपने आगमन को रहस्यमय बना दिया। सभ्यता का तकाजा है कि पूछने पर आप अपने आने का मतंव्य बताएँ। फिर न धन्यवाद, न आभार। ‘किसी दिन फोन करके आऊँगा’, कहा और धमकी देते किसी आंतकवादी की तरह फोन रख दिया।
उस फोन को भूल पाना संभव नहीं हुआ। वह निरंतर मेरा पीछा करता रहा। इस पीछे के पीछे शायद उनके चेहरे पर चिपकी वह मुस्कान थी जो मुलाकात के समय वे ओढ़ लेते थे। क्या निहितार्थ हो सकता है उस मुस्कान का ? उनके आने और उनकी मुस्कान का कोई अंतर्सबंध है ? दुआ-सलाम से बात आगे कभी बढ़ी नहीं, फिर अचानक ऐसा हो गया। जानते हों शायद कि छोटा–मोटा अफसर भी हूँ। कोई काम अटका हो दफ्तर में। लाइसेंस-परमिट का। या बेटे के लिए नौकरी चाहते हों। या बेटी के लिए योग्य वर की तलाश हो। चिंतित और परेशान पिता कहाँ-कहाँ नहीं भटकता। किस-किस के आगे माथा नहीं टेकता। या दलाली-वलाली का धंधा करते हो। घास डालने आ रहे हों मेरे सामने। अथवा चंदा-वसूली का मामला हो। हाथ फैलाए चंदा माँगने वालों की कोई कमी है क्या ? या फिर दुखड़ा रोकर उधार माँगना चाहते हों !
मैं आशंकाओं से मुठभेड़ करता रहा। विचार-श्रृंखला थी कि पीछा छोड़ ही नहीं रही थी। जितना मैं उसकी पकड़ से बाहर आने की कोशिश करता, वह उतनी ही मजबूती से मुझे जकड़ लेती। सेमिनारों-समारोहों आदि के कारण उन्हें यह तो पता है कि मैं लिखने-पढ़ने वाला आदमी हूँ। संभव है, उन्होंने स्वैच्छिक सेवा-निवृत्ति ले ली हो और उम्र के इस पड़ाव पर आकर लिखने का शौक चर्राया हो। कह सकते हैं, नौकरी में बहुत व्यस्त रहा, अब फुरसत हुई तो थोड़ी साहित्य-सेवा कर लूँ। अपनी कोई रचना या पांडुलिपि लेकर आ रहें हो, जँचवाने-दिखाने या भूमिका लिखवाने। ऐसा हुआ तो माफी माँग लूँगा। नहीं है, मेरे पास समय। पहले ही बहुत परेशान हूँ। न ही मेरा मूड ठीक है, इन दिनों। हो सकता है, रचना प्रकाशन के लिए संपादक से सिफारिश कर देने की याचना लेकर आ रहे हों। नहीं जानते लोग कि एक आदर्श संपादक को केवल एक अच्छी रचना ही प्रभावित कर सकती है। उसके समक्ष रचना होती है, रचनाकार नहीं। यह भी संभव है कि अपनी कोई किताब लेकर आ रहे हो, भेंट करने या विमोचन करवाने। ऐसे अद्भुत रचनाकारों की कमी नहीं है इस धरा पर जो साहित्य में अपनी प्रथम पुस्तक के साथ ही सीधे पदार्पण करते हैं, भले ही इससे कभी किसी ने न उन्हें सुना हो, न पढ़ा हो। एक धूमकेतु की भाँति अवतरित होते हैं और अपने प्रकाश-पुंज से सबको चमत्कृत कर देते हैं। हो सकता है, धूमकेतु की भाँति किसी दिन आकर दरवाजे पर दस्तक दे दें।
...शायद सहज मिलने आ रहे हों ! पर यह तर्क स्वीकारने को मन नहीं हुआ। आजकल भला कौन किसी से यूँ ही मिलने आया है, बेमतलब ! किसे फुरसत है इस भाग-दौड़ भरी जिंदगी में। जो भी आता है, स्वार्थ के घोड़े पर सवार होकर आता है। मित्र को फोन करो तो वह भी पूछता है, ‘आज कैसे याद किया?’ परिचित के फोन आने पर पहले वे बच्चों और भाभीजी का हाल-चाल पूछते हैं, फिर धीमे से अपना कोई काम बता देते हैं। पड़ोसी मिश्राजी तो हमसे मात्र इसलिए मधुर संबंध बनाए हुए हैं कि जरूरत पड़ने पर वे हमारे फोन और वाहन-सुविधा का लाभ ले सकें। इसीलिए गाहे-बगाहे पकौड़ै, सिवइयाँ और खीर भेजते रहते हैं और कॉलोनी–भर में डंका पीटते रहते हैं कि मेहताजी से हमारे घरेलू संबंध है। इस पृष्ठभूमि के चलते मैं उत्सुक था जानने को कि आखिर महाशय मुझसे मिलना क्यों चाहते हैं। भय था कि कहीं ऐसा कुछ न कह या माँग बैठें कि मुश्किल में पड़ जाऊँ। मुझे अपनी कथित लेखकीय छवि की चिंता थी। वे मुझे साहित्यिक ईमानदारी और सामाजिक ईमानदारी में भेद न होने के संदर्भ में वक्तव्य देते सुन चुके थे। इससे तो बेहतर था, मैं उन्हें उस दिन फोन पर ही टाल देता।
एक दिन वे सचमुच आ धमके। सादी पोशाक। बाल उलझे हुए। पाँवों में चप्पल। फोन करके आने को कहा था, पर बिना फोन किए ही आ गए। अच्छा नहीं लगा। मैं कुछ कहता उसके पहले ही उन्होंने कहा, ‘‘क्षमा करें, फोन किए बगैर चला आया। दरअसल, मेरे यहाँ फोन की सुविधा नहीं है। उस दिन भी मैंने पब्लिक बूथ से फोन किया था। सोचा, चलता हूँ, मिल जाएँगे तो ठीक है, वरना अगले दिन ट्राई करूँगा।’
उनकी पोशाक तथा फोन न होने की जानकारी ने मुझे और भी असमंजस में डाल दिया। निश्चित ही मामला पैसे-कौड़ी का होगा। मैं और सावधान हो गया। मन ही मन मैंने दो-एक बहाने गढ़ लिए। वे कुछ देर इधर-उधर की बातें करते रहे। यह भी कि मेरा लिखा उन्होंने काफी कुछ पढ़ा है। मेरी तीन-चार कृतियों के नाम भी गिना दिए। लगा, वह बिंदु आ गया है जहाँ प्रशंसा का पुल बाँधते हुए वे अपने असली मंतव्य पर आ जाएँगे। यह तो जानते ही होंगे कि तारीफ किसे बुरी लगती है। कुछ लोगों की तो यह कमजोरी होती है। चने के पेड़ पर चढ़ाकर उनसे कोई भी काम करवाया जा सकता है। हर क्षण मेरी बेचैनी आशंका बढ़ती जा रही थी। लेकिन वे निस्पृह भाव से बोले जा रहे थे। कुछ देर के लिए वे रुके। फिर विनम्र भाव से बोले, ‘‘बोले, ‘‘सर, मैं आपसे एक प्रार्थना करना चाहता हूँ, यदि आप अन्यथा न लें।’’
मेरे हृदय की धड़कन एकाएक तेज हो गई। वह क्षण आ गया जिसका भय था। मैं कुछ कहता उसके पहले ही उन्होंने कहा, ‘‘मैंने सुना है, आपके बेटे का गुर्दा खराब हो गया है और उपचार के लिए आपने उसे चेन्नई भेजा हुआ है।’’
मैं फिर चौंका। इन्हें कैसे खबर हो गई ? मैंने यह बात अभी तक लगभग गुप्त रखी हुई थी। दो-तीन नजदीकी रिश्तेदारों को ही पता था। शायद उन्हीं में से किसी ने बताया हो। गुर्दे में दोष का पता कुछ दिनों पूर्व ही चला था। डॉक्टरों का कहना था, शायद उपचार से लाभ हो जाए। वरना गुर्दा प्रत्यारोपित करना पड़ेगा। मुझे यूँ हतप्रभ व दुखी देख वे बोले, ‘‘ईश्वर करे, आपका बेटा ठीक हो जाए।
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लोगों की राय
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