हास्य-व्यंग्य >> हरिशंकर परसाई संकलित रचनाएं हरिशंकर परसाई संकलित रचनाएंश्याम कश्यप
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हिन्दी क्षेत्र की जनता के सदियों के सुख-दुख, उत्कट आकांक्षाएं और परिहासपूर्ण जीवनानुभवों की अनुगूंज हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचनाओं में सुनाई देती है...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
हिन्दी क्षेत्र की जनता के सदियों के सुख-दुख, उत्कट आकांक्षाएं और परिहासपूर्ण जीवनानुभुवों की अनुगूंज हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचनाओं में सुनाई देती है। साधारण जन के जुझारू जीवन-संघर्ष की मार्मिक छवियों से परिपूर्ण उनकी रचनाओं आज हिन्दी संसार के गले का हार बनी हुई हैं और सशक्त व्यंग्य लेखन की परंपरा स्थापित कर सकी है तो इसका मूल कारण परसाई जी का जन सरोकार ही है। उनकी रचनाओं में जन जीवन के सभी क्षेत्रों प्रांतों, व्यवसायों और चरित्रों की बोली-बानी के दर्शन होते हैं। बतरस का ऐसा स्वाभाविक आनंद और विकृति पर सांघातिक प्रहार एक साथ शायद ही कहीं अन्यत्र देखने को मिले। हरिशंकर परसाईः संकलित रचनाएं पुस्तक उनकी ऐसी ही चुनिंदा व्यंग्य रचनाओं का संग्रह है।
हिन्दी व्यंग्य के प्रेरणा पुरुष हरिशंकर परसाई (1922-1995) के लिए लेखन कार्य सदा साधना की तरह रहा। उनकी पहली रचना पैसे का खेल सन् 1947 में प्रकाशित हुई। तब से वे निरंतर रचनाशील रहे, समय और समाज की विकृतियों को सदा गंभीरता से उकेरते रहे। छह खंडों में 2662 पृष्ठों की उनकी रचनावली प्रकाशित है।
संकलक श्याम कश्यप (1948) हिन्दी के जाने-माने रचनाकार हैं। लंबे समय तक पत्रकारिता एवं विश्वविद्यालय अध्यापन से जुड़े रहे। हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में उन्होंने कई महत्वपूर्ण कार्य किए हैं। उनकी कुछ प्रमुख कृतियां हैं गेरू से लिखा हुआ नाम (कविता संग्रह), मुठभेड़, साहित्य की समस्याएं और प्रगतिशील दृष्टिकोण, साहित्य और संस्कृति आदि।
हिन्दी व्यंग्य के प्रेरणा पुरुष हरिशंकर परसाई (1922-1995) के लिए लेखन कार्य सदा साधना की तरह रहा। उनकी पहली रचना पैसे का खेल सन् 1947 में प्रकाशित हुई। तब से वे निरंतर रचनाशील रहे, समय और समाज की विकृतियों को सदा गंभीरता से उकेरते रहे। छह खंडों में 2662 पृष्ठों की उनकी रचनावली प्रकाशित है।
संकलक श्याम कश्यप (1948) हिन्दी के जाने-माने रचनाकार हैं। लंबे समय तक पत्रकारिता एवं विश्वविद्यालय अध्यापन से जुड़े रहे। हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में उन्होंने कई महत्वपूर्ण कार्य किए हैं। उनकी कुछ प्रमुख कृतियां हैं गेरू से लिखा हुआ नाम (कविता संग्रह), मुठभेड़, साहित्य की समस्याएं और प्रगतिशील दृष्टिकोण, साहित्य और संस्कृति आदि।
भूमिका
कवियों का निकष गद्य है। गद्य की कसौटी व्यंग्य। रामविलास शर्मा इसी अर्थ में व्यंग्य को ‘गद्य का कवित्व’ कहते थे। गद्य की सजीवता और शक्ति वे उसके हास्य-व्यंग्य में देखते थे। निराला के शब्दों में गद्य अगर ‘जीवन संग्राम की भाषा’ हैं, तो व्यंग्य इस संग्राम का सबसे शक्तिशाली शस्त्र ! हरिशंकर परसाई (1922-1995) के अचूक हाथों इस शस्त्र के इतने सटीक और शक्तिशाली प्रहार हुए हैं कि देश, दुनिया और समाज की विसंगति और विरूपता का कोई भी कोना और कोई भी क्षेत्र उसकी जद में आने से नहीं बचा है। इसीलिए लोग कहते हैं कि परसाईजी ने सारी जमीन छेंक ली है।
प्रेमचंद को हमारे स्वाधीनता आंदोलन के दौर का प्रतिनिधि लेखक माना जाता है। हरिशंकर परसाई ठीक इसी अर्थ में स्वातंत्र्योत्तर भारत के प्रतिनिधि लेखक हैं। मु्क्तिबोध की तरह फैंटेसी उनका सबसे प्रिय माध्यम है। वे बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के ठीक वैसे ही एक मात्र प्रतिनिधि कथाकार और गद्यलेखक हैं, जैसे कि मुक्तिबोध एकमात्र प्रतिनिधि कवि। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की देश और दुनिया की सभी उनकी घटनाओं, आंदोलनों, मनोवृत्तियों और महत्वपूर्ण चरित्रों के कलात्मक व्यंग्य–चित्र उनकी रचनाओं में मिल जाएंगे। चंद शाब्दिक रेखाओं से वे एक भरा-पूरा चित्र मूर्त्त कर देते हैं। उनकी भाषा की तरलता और उसका क्षिप्र प्रवाह इस चित्र को गतिशील बनाकर जीवंत कर देते हैं।
परसाईजी की रचनाओं में भारतेंदु-युगीन व्यक्तिगत निबंध की व्यापक स्वच्छंदता। और मन को बांध लेने वाली प्रेमचंद की किस्सागोई के एक साथ दर्शन होते हैं। कथात्मक विन्यास की विलक्षण सहजता और तीक्ष्ण वैचारिक तार्किकता, हास्य-व्यंग्य की धार पर चढ़कर किसी पैने नश्तर की तरह पाठक के मर्मस्थल तक पैठ जाती है, और उसे हददर्जा बेचैन और आंदोलित कर डालती है। उनकी मोहक शैली में विरोधी विचारधारा वाले पाठक को भी एकबारगी ‘कन्विन्स’ कर लेने की अद्भुत शक्ति है। जो उनके वैचारिक सहयात्री हैं, उन्हें तो उनकी रचनाएं शब्दों की दुनिया से उठाकर सीधे कर्म के क्षेत्र में ला खड़ा करने की गजब की क्षमता रखती हैं। यह असाधारण क्षमता और अभूतपूर्व शक्ति उन्हें मिली है उनकी विशिष्ट भाषा-शैली, मौलिक कलात्मक पद्धित और किसी भी परिघटना या चरित्र के द्वंद्वात्मक विश्लेषण में अपूर्व सिद्धि से। परसाई जैसा विलक्षण गद्य-शैलीकार-पिछली समूची सदी में कोई अन्य नजर नहीं आता, हिन्दी ही नहीं संभवतः सपूर्ण भारतीय साहित्य के समूचे परिदृश्य में।
किसी भी रचना में प्रवेश का माध्यम भाषा है। सबसे पहला, और शायद सबसे अंतिम भी। अन्य सब बातें बाद में, और दीगर। यही वह नाजुक क्षेत्र है जहां हर रचनाकार की कला को एक ‘लिटमस –टेस्ट’ से गुजरना पड़ता है। अपनी कलात्मक क्षमता और मौलिक प्रतिभा की अनिवार्य परीक्षा देनी पड़ती है। परसाईजी की भाषा विविध स्तरों और अनेक परतों के भीतर चलने वाली ‘करेंट’ की अंतर्धारा की तरह है।
यह भाषा सहज, सरल और अत्यंत धारदार तो है ही, इसमें विभिन्न प्रकार की वस्तुओं, स्थितियों, संबंधों और घटनाओं के यथार्थ वर्णन की भी अद्भुत क्षमता है। परसाईजी का गद्य विलक्षण ढंग से बोलता हुआ गद्य है। अत्यंत मुखर और साथ ही जिंदादिली से खिला हुआ प्रसन्न गद्य। बारीकनिगारी के फन के तो वे पूरे उस्ताद हैं बिंब–निर्माण और सघन ऐंद्रियता में वे हिन्दी के श्रेष्ठतम कवियों से होड़ लेते हैं।
वे अपनी भाषा का मजबूत किला छोटे-छोटे वाक्यों की नींव पर खड़ा करते हैं। ये वाक्य सरल होते हैं, और वाक्य-विन्यास सहज। फिर वे अपने विचार-धारात्मक और तार्किक नक्शे के अनुरूप अपने व्यंग्यात्मक लाघव के साथ शब्द-दर-शब्द वाक्यों के मीनार और कंगूरे उठाते चले जाते हैं। उनकी भाषा अपने नैसर्गिक सौंदर्य में इतनी भरी-पूरी है कि उसे किसी अतिरिक्त नक्काशी या लच्छेदार बेल-बूटों की जरूरत ही नहीं। उसकी सहज तेजस्विता किसी भड़कीली चमक-दमक या नकली पॉलिश की मोहताज नहीं। हिन्दीभाषी जन-साधारण और श्रेष्ठ रचनाकारों के बीच सदियों से निरंतर मंजती चली आ रही इस भाषा की दीप्ति अपने अकृत्रिम सौंदर्य से ही जगमग है। सामान्य बोलचाल की भाषा और भंगिया के साथ जन–जीवन के बीच से उठाए गए गद्य की जैसी शक्ति और जैसी कलात्मक वैविध्य परसाईजी की रचनाओं मे मिलता है, अन्यत्र दुर्लभ है। उनकी भाषा इसी बोलचाल के गद्य का साहित्यिक रूप है। वाक्य–विन्यास का चुस्त संयोजन और सहज गत्यात्मक लोच उनकी भाषा को सूक्ष्म चित्रांकन के बीच जीवंत गतिशीलता प्रदान करता है। इसीलिए, उनकी कही गई बातें, देखी गई बातों की तरह दृश्यमान हैं। इसीलिए, उनकी कही गई बातें, देखी गई बातों की तरह दृश्यमान हैं। प्रवाहपूर्ण स्वाभाविक संवादों के साथ ऐसी दृश्य-श्रव्य-क्षमता बहुत कम कथाकारों में मिलेगी।
उनकी भाषा की उल्लेखनीय विशेषत यह भी है कि उसमें हिन्दी गद्य के विकास की प्रायः सभी ऐतिहासिक मंजिलों की झलक मिल जाती है। उनकी कई रचनाओं से पुरानी हिन्दी की भूली-बिसरी शैलियों और आरंभिक गद्य का विस्मृत स्वाद एक बार फिर ताजा हो जाता है। ‘‘वैसे तो चौरासी वैष्णवन की लंबी वार्ता है। तिनकी कथा कहां ताई कहिए’’ जैसे वाक्यों से वल्लभ संप्रदाय के ग्रंथों के एकदम आरंभिक गद्य की याद आ जाती है, तो ‘‘हिन्दी कविता तो खतम नहीं हुई कवि ‘अचल अलबत्ता खतम होते भए’’ से लल्लू लाल जी के ‘प्रेमसागर’ की भाषा की। इसी तरह ‘‘ठूंठों ने भी नव-पल्लव पहन रखे हैं। तुम्हारे सामने की प्रौढ़ा नीम तक नवोढ़ा औरत से हाव-भाव कर रही है- और बहुत भद्दी लग रही है’’ और ‘‘शहर की राधा सहेली से कहती है-हे सखि, नल के मैले पानी में केंचुए और मेंढक आने लगे। मालूम होता है, सुहावनी मनभावनी वर्षा-ऋतु आ गई।’’- जैसे प्रयोगों से पुरानी शैली के ऋतु-वर्णन की स्मृति ताजा हो जाती है। अगले ही वाक्य में राधा के श्याम नहीं आए वगैरह प्राइवेट वाक्य’ बोलने की ‘सूचना’ देकर वे व्यंग्य को वांछित दिशा में ले जाते हैं। जब ‘छायावादी संस्कार’ से उनका ‘मन मत्त मयूर होकर अनुप्रास साधने’ लगता है तो वे लिखते हैं ‘वे उमड़ते-घुमड़ते मेघ, ये झिलमिलाते तारे, यह हँसती चांदनी, ये मुस्कराते फूल ! जैसे ‘कारागार निवास स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है’ लिखकर वे मैथिलीशरण गुप्त और अटल बिहारी वाजपेयी की एक साथ टांग खींचते हैं, वैसे ही संतों की भी अपनी छेड़खानी से नहीं बख्शतेः ‘दास कबीर जनत से ओढ़ी धोबिन को नहि दीन्हीं चदरिया !’ भारतेंदु-युग और छायावद से लेकर ठेठ आज तक की हमारी भाषा के जितने भी रूपऔर शैलियां हो सकती हैं, परसाईजी के गद्य में उन सभी का स्वाद मिल जाता है। चौरासी वैष्णवों की कथा, बैताल पचीसी, सिंहासन बत्तीसी, पंचतंत्र, किस्सा चार दरवेश, किस्सा हातिमताई, तोता-मैना और ‘प्रेमसागर’ की भाषा और शैलियों से लेकर भक्त कवियों की भाषा और रीतिकालीन शैलियों तक- सबका अंदाज–ए-बयां परसाईजी के गद्य –संग्रहालय में बखूबी सुरक्षित है। ‘रानी केतकी की कहानी’ की तर्ज पर तो उन्होंने एक समूचा व्यंग्य उपन्यास ‘रानी नागफनी की कहानी’ ही रच दिया है।
परसाईजी की अलग-अलग रचनाओं में ही नहीं, किसी एक रचना में भी भाषा, भाव और भंगिया के प्रसंगानुकूल विभिन्न रूप और अनेक स्तर देखे जा सकते हैं। प्रसंग बदलते ही उनकी भाषा-शैली में जिस सहजता से वांछित परिवर्तन आते-जाते हैं, और उससे एक निश्चित व्यंग्य –उद्देश्य की भी पूर्ति होती है, उनकी यह कला, चकित कर देने वाली है। अगर ‘आना-जाना तो लगा ही रहता है। आया है, सो जाएगा-राजा रंक फकीर’ में सूफियाना अंदाज है, तो यहाँ ठेठ सड़क–छाप दवाफरोश की यह बाकी अदा भी दर्शनीय हैः‘‘ निंदा में विटामिन और प्रोटीन होते हैं। निंदा खून साफ करती है, पाचन-क्रिया ठीक करती है, बल और स्फूर्ति देती है। निंदा से मांसपेशिया पुष्ट होती हैं। निंदा पायरिया का तो शर्तिया इलाज है।’’
आगे ‘संतों का प्रसंग आने पर शब्द वाक्य-संयोजन और शैली –सभी कुछ एकदम बदल जाता हैः‘‘संतो को परनिंदा की मनाही होती है, इसलिए वे स्वनिंदा करके स्वास्थ्य अच्छा रखते हैं। मो सम कौन कुटिल खल कामी- यह संत की विनय और आत्मस्वीकृति नहीं है, टॉनिक है। संत बड़ा काइंयां होता है। हम समझते हैं, वह आत्मस्वीकृति कर रहा है, पर वास्तव में वह विटामिन और प्रोटीन खा रहा है।’’ एक अन्य रचना में वे ‘‘पैसे में बड़ा विटामिन होता है’’ लिखकर ताकत की जगह ‘विटामिन’ शब्द से वांछित प्रभाव पैदा कर देते हैं, जैसे बुढापे में बालों की सफेदी के लिए ‘सिर पर कासं फूल उठा’ या कमजोरी के लिए ‘टाईफाइड ने सारी बादाम उतार दी।’ जब वे लिखते हैं कि ‘उनकी बहू आई और बिना कुछ कहे, दही-बड़े डालकर झम्म से लौट गई’ तो इस ‘झम्म से’ लौट जाने से ही झम्म-झम्म पायल बजाती हुई नईनवेली बहू द्वारा तेजी से थाली में दही-बड़े डालकर लौटने की समूची क्रिया साकार होजाती है। एक सजीव और गतिशील बिंब मूर्त्त हो जाता है। जब वे लिखते हैं कि ‘मौसी टर्राई’ या ‘अश्रुपात होने लगा’ तो मौसी सचमुच टर्राती हुई सुन पड़ती है और आंसुओं की झड़ी लगी नजर आती है। ‘टर्राई’ जैसे देशज और ‘अश्रुपात’ जैसे तत्सम शब्दों के बिना न तो यह प्रभाव ही उत्पन्न किया जा सकता था और न ही इच्छित व्यंग्य।
हिन्दी की बोलियों, विशेष रूप से बुंदेली शब्दों के प्रयोग से भी परसाईजी की भाषा में एक विलक्षण चमक पैदा हो जाती है। एक ओर यदि ‘बड़ा मट्ठर आदमी है, मेरी बड़ी किरकिरी हुई, ‘लड़के मुंहजोरी करने लगे हैं और ‘अलाली आ गई, या मेरी दंतौड़ी बंध गई’ जैसे तद्भव शब्दों के प्रयोग से वे अपनी भाषा में ‘फोर्स’ पैदा करते हैं, तो दूसरी ओर ‘पूर्व में भगवान भुवन भास्कर उदित हो रहे थे’ और ‘पश्चिम में भगवान अंशुमाली अस्ताचलगामी हो रहे हैं’ या ‘वन के पशु-पक्षी खग मृग और लता-वल्लरी चकित हैं’ जैसे वाक्यों में पुरानी शैली और तत्सम शब्दों के विशिष्ट पद-क्रम –संयोजन से व्यंग्य–सृष्टि करते हैं। इसी तरह ‘राम का दुख और मेरा’ शीर्षक रचना में एक ‘शिरच्छेद’ शब्द से ही अपेक्षित प्रभाव पैदा कर दिया गया हैः ‘पर्वत चाहे बूंदों का आघात कितना ही सहे, लक्ष्मण बर्दाश्त नहीं करते। वे बाण मारकर बादलों को भगा देते या मकान –मालिक का ही शिरच्छेद कर देते।’
ऐसे ही ‘मखमल की म्यान’ के इस अंश में आखिरी वाक्य और उसमें भी ‘संपुट’शब्द के बिना यह प्रभाव पैदा नहीं किया जा सकता थाः समारोह भवन में पहुंचते ही उन्होंने कुहनी तक हाथ जोड़े, नाक को कुहनियों की सीध में किया और सिर झुकाया। एक क्षण में मशीन की तरह यह तो गया। वे उसी मुद्रा में मंच पर आए। कुहनी तक हाथों की कैसी अद्भुत संपुट थी वह’। इस छोटे-से अंश में भी सूक्ष्म अवलोकन की क्षमता और बिंब–निर्माण का कौशल अलग से दर्शनीय है। एक ही वाक्य में ‘मुख–कमल जैसे तत्सम और ‘टेटरी’ जैसे ठेठ तद्भव शब्दों के एक साथ प्रयोग का विलक्षण लाघव और अद्भुत संतुलन यहां देखा जा सकता हैः ‘‘एक वक्त ऐसा आएगा जब माईक मुख कमल में घुसकर टेटरी बंद कर देगा।’’ यह परसाई जी की कला का ही कमाल है कि वे शंकर के ‘कंठ का रंग ‘हब्बे-मामूल’ और नामवर सिंह की ‘अदा’ में कोई ‘साम्य’ एक साथ दिखा सकते हैं, जहां हिन्दी-उर्दू विवाद की कोई गुंजाइश नहीं। इसी तरह ‘‘संपादकों द्वारा दुरदुराया गया उदीयमान लेखक’’ में दुरदुराया’ और ‘उदीयमान’ बड़ी आसानी से आस-पास खप जाते हैं।
परसाईजी अपनी भाषा में कहीं तद्भव-तत्सम के मेल से तो कहीं तत्सम हिन्दी के साथ उर्दू-फ़ारसी के मेल से और कहीं हिन्दी-अंग्रेजी शब्दों के मेल में व्यंग्य–सृष्टि करते हैं। हिन्दी–अंग्रेजी शब्दों के मेल का उदारण इन दो वाक्यों में देखा जा सकता हैः बढ़ी दाढ़ी ड्रेन पाइप और ‘सो ह्वाट’ वालों से यह (सामाजिक परिवर्तन-सं.) नहीं हो रहा है। चुस्त कपड़े, हेयर स्टाइल ‘ओ वंडरफुल’ वालियों से भी यह नहीं हो रहा है। इसी तर ‘जैनेन्द्र स्ट्रिप्टीज करा चुके थे’, उर्वशी ने कामायनी वगैरह को ‘राइट ऑफ कर दिया’ था और ‘तृप्त आदमी आउट ऑफ स्टाक होता जा रहा है’ या ‘उसके पास दोषों का केटलॉग है’ आदि। उनकी रचनाओं में ‘बिरदर, ही लब्ड मी भेरी मच’ जैसी ‘हृदय विदारक’ अंग्रेजी (बकौल परसाई अगर अंग्रेज सुन लेते तो बहुत पहले ही भारत छोड़कर भाग खड़े होते) की व्यंग्यात्मक मिसाल और हिन्दी आंदोलनकारियों की तर्ज पर ‘हार्ट फेल’ के लिए ‘असफल हृदय’ या क्रिकेट की ‘वाइड बॉल’ के लिए ‘चौड़ी गेंद’ जैसे अनुवादों के हास्यास्पद उदाहरण भी मिल जाएंगे जो व्यंग्य–सृष्टि में सहायक नजर आते हैं। वे टकपते हुए कमरे को ‘किसी ऋतुशाला का नपनाघट’ बताते हैं, तो ‘वैष्णव की फिसलन’ में हूबहू महाजनी दस्तावेज की भाषा उतार लेते हैं। ‘‘दस्तावेज लिख दी रामलाल वल्द श्यामलाल ने भगवान विष्णु वल्द नामालूम को ऐसा जो की...।’’ इसी तरह ‘पुलिस के रग्घे’ से लेकर कोर्ट के ‘क्रॉस एक्जामिनेशन’ और ‘ऐवीडेंस ऐक्ट’ तक की बारीकियों के वे पूरे जानकार नज़र आते हैं।
प्रेमचंद को हमारे स्वाधीनता आंदोलन के दौर का प्रतिनिधि लेखक माना जाता है। हरिशंकर परसाई ठीक इसी अर्थ में स्वातंत्र्योत्तर भारत के प्रतिनिधि लेखक हैं। मु्क्तिबोध की तरह फैंटेसी उनका सबसे प्रिय माध्यम है। वे बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के ठीक वैसे ही एक मात्र प्रतिनिधि कथाकार और गद्यलेखक हैं, जैसे कि मुक्तिबोध एकमात्र प्रतिनिधि कवि। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की देश और दुनिया की सभी उनकी घटनाओं, आंदोलनों, मनोवृत्तियों और महत्वपूर्ण चरित्रों के कलात्मक व्यंग्य–चित्र उनकी रचनाओं में मिल जाएंगे। चंद शाब्दिक रेखाओं से वे एक भरा-पूरा चित्र मूर्त्त कर देते हैं। उनकी भाषा की तरलता और उसका क्षिप्र प्रवाह इस चित्र को गतिशील बनाकर जीवंत कर देते हैं।
परसाईजी की रचनाओं में भारतेंदु-युगीन व्यक्तिगत निबंध की व्यापक स्वच्छंदता। और मन को बांध लेने वाली प्रेमचंद की किस्सागोई के एक साथ दर्शन होते हैं। कथात्मक विन्यास की विलक्षण सहजता और तीक्ष्ण वैचारिक तार्किकता, हास्य-व्यंग्य की धार पर चढ़कर किसी पैने नश्तर की तरह पाठक के मर्मस्थल तक पैठ जाती है, और उसे हददर्जा बेचैन और आंदोलित कर डालती है। उनकी मोहक शैली में विरोधी विचारधारा वाले पाठक को भी एकबारगी ‘कन्विन्स’ कर लेने की अद्भुत शक्ति है। जो उनके वैचारिक सहयात्री हैं, उन्हें तो उनकी रचनाएं शब्दों की दुनिया से उठाकर सीधे कर्म के क्षेत्र में ला खड़ा करने की गजब की क्षमता रखती हैं। यह असाधारण क्षमता और अभूतपूर्व शक्ति उन्हें मिली है उनकी विशिष्ट भाषा-शैली, मौलिक कलात्मक पद्धित और किसी भी परिघटना या चरित्र के द्वंद्वात्मक विश्लेषण में अपूर्व सिद्धि से। परसाई जैसा विलक्षण गद्य-शैलीकार-पिछली समूची सदी में कोई अन्य नजर नहीं आता, हिन्दी ही नहीं संभवतः सपूर्ण भारतीय साहित्य के समूचे परिदृश्य में।
किसी भी रचना में प्रवेश का माध्यम भाषा है। सबसे पहला, और शायद सबसे अंतिम भी। अन्य सब बातें बाद में, और दीगर। यही वह नाजुक क्षेत्र है जहां हर रचनाकार की कला को एक ‘लिटमस –टेस्ट’ से गुजरना पड़ता है। अपनी कलात्मक क्षमता और मौलिक प्रतिभा की अनिवार्य परीक्षा देनी पड़ती है। परसाईजी की भाषा विविध स्तरों और अनेक परतों के भीतर चलने वाली ‘करेंट’ की अंतर्धारा की तरह है।
यह भाषा सहज, सरल और अत्यंत धारदार तो है ही, इसमें विभिन्न प्रकार की वस्तुओं, स्थितियों, संबंधों और घटनाओं के यथार्थ वर्णन की भी अद्भुत क्षमता है। परसाईजी का गद्य विलक्षण ढंग से बोलता हुआ गद्य है। अत्यंत मुखर और साथ ही जिंदादिली से खिला हुआ प्रसन्न गद्य। बारीकनिगारी के फन के तो वे पूरे उस्ताद हैं बिंब–निर्माण और सघन ऐंद्रियता में वे हिन्दी के श्रेष्ठतम कवियों से होड़ लेते हैं।
वे अपनी भाषा का मजबूत किला छोटे-छोटे वाक्यों की नींव पर खड़ा करते हैं। ये वाक्य सरल होते हैं, और वाक्य-विन्यास सहज। फिर वे अपने विचार-धारात्मक और तार्किक नक्शे के अनुरूप अपने व्यंग्यात्मक लाघव के साथ शब्द-दर-शब्द वाक्यों के मीनार और कंगूरे उठाते चले जाते हैं। उनकी भाषा अपने नैसर्गिक सौंदर्य में इतनी भरी-पूरी है कि उसे किसी अतिरिक्त नक्काशी या लच्छेदार बेल-बूटों की जरूरत ही नहीं। उसकी सहज तेजस्विता किसी भड़कीली चमक-दमक या नकली पॉलिश की मोहताज नहीं। हिन्दीभाषी जन-साधारण और श्रेष्ठ रचनाकारों के बीच सदियों से निरंतर मंजती चली आ रही इस भाषा की दीप्ति अपने अकृत्रिम सौंदर्य से ही जगमग है। सामान्य बोलचाल की भाषा और भंगिया के साथ जन–जीवन के बीच से उठाए गए गद्य की जैसी शक्ति और जैसी कलात्मक वैविध्य परसाईजी की रचनाओं मे मिलता है, अन्यत्र दुर्लभ है। उनकी भाषा इसी बोलचाल के गद्य का साहित्यिक रूप है। वाक्य–विन्यास का चुस्त संयोजन और सहज गत्यात्मक लोच उनकी भाषा को सूक्ष्म चित्रांकन के बीच जीवंत गतिशीलता प्रदान करता है। इसीलिए, उनकी कही गई बातें, देखी गई बातों की तरह दृश्यमान हैं। इसीलिए, उनकी कही गई बातें, देखी गई बातों की तरह दृश्यमान हैं। प्रवाहपूर्ण स्वाभाविक संवादों के साथ ऐसी दृश्य-श्रव्य-क्षमता बहुत कम कथाकारों में मिलेगी।
उनकी भाषा की उल्लेखनीय विशेषत यह भी है कि उसमें हिन्दी गद्य के विकास की प्रायः सभी ऐतिहासिक मंजिलों की झलक मिल जाती है। उनकी कई रचनाओं से पुरानी हिन्दी की भूली-बिसरी शैलियों और आरंभिक गद्य का विस्मृत स्वाद एक बार फिर ताजा हो जाता है। ‘‘वैसे तो चौरासी वैष्णवन की लंबी वार्ता है। तिनकी कथा कहां ताई कहिए’’ जैसे वाक्यों से वल्लभ संप्रदाय के ग्रंथों के एकदम आरंभिक गद्य की याद आ जाती है, तो ‘‘हिन्दी कविता तो खतम नहीं हुई कवि ‘अचल अलबत्ता खतम होते भए’’ से लल्लू लाल जी के ‘प्रेमसागर’ की भाषा की। इसी तरह ‘‘ठूंठों ने भी नव-पल्लव पहन रखे हैं। तुम्हारे सामने की प्रौढ़ा नीम तक नवोढ़ा औरत से हाव-भाव कर रही है- और बहुत भद्दी लग रही है’’ और ‘‘शहर की राधा सहेली से कहती है-हे सखि, नल के मैले पानी में केंचुए और मेंढक आने लगे। मालूम होता है, सुहावनी मनभावनी वर्षा-ऋतु आ गई।’’- जैसे प्रयोगों से पुरानी शैली के ऋतु-वर्णन की स्मृति ताजा हो जाती है। अगले ही वाक्य में राधा के श्याम नहीं आए वगैरह प्राइवेट वाक्य’ बोलने की ‘सूचना’ देकर वे व्यंग्य को वांछित दिशा में ले जाते हैं। जब ‘छायावादी संस्कार’ से उनका ‘मन मत्त मयूर होकर अनुप्रास साधने’ लगता है तो वे लिखते हैं ‘वे उमड़ते-घुमड़ते मेघ, ये झिलमिलाते तारे, यह हँसती चांदनी, ये मुस्कराते फूल ! जैसे ‘कारागार निवास स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है’ लिखकर वे मैथिलीशरण गुप्त और अटल बिहारी वाजपेयी की एक साथ टांग खींचते हैं, वैसे ही संतों की भी अपनी छेड़खानी से नहीं बख्शतेः ‘दास कबीर जनत से ओढ़ी धोबिन को नहि दीन्हीं चदरिया !’ भारतेंदु-युग और छायावद से लेकर ठेठ आज तक की हमारी भाषा के जितने भी रूपऔर शैलियां हो सकती हैं, परसाईजी के गद्य में उन सभी का स्वाद मिल जाता है। चौरासी वैष्णवों की कथा, बैताल पचीसी, सिंहासन बत्तीसी, पंचतंत्र, किस्सा चार दरवेश, किस्सा हातिमताई, तोता-मैना और ‘प्रेमसागर’ की भाषा और शैलियों से लेकर भक्त कवियों की भाषा और रीतिकालीन शैलियों तक- सबका अंदाज–ए-बयां परसाईजी के गद्य –संग्रहालय में बखूबी सुरक्षित है। ‘रानी केतकी की कहानी’ की तर्ज पर तो उन्होंने एक समूचा व्यंग्य उपन्यास ‘रानी नागफनी की कहानी’ ही रच दिया है।
परसाईजी की अलग-अलग रचनाओं में ही नहीं, किसी एक रचना में भी भाषा, भाव और भंगिया के प्रसंगानुकूल विभिन्न रूप और अनेक स्तर देखे जा सकते हैं। प्रसंग बदलते ही उनकी भाषा-शैली में जिस सहजता से वांछित परिवर्तन आते-जाते हैं, और उससे एक निश्चित व्यंग्य –उद्देश्य की भी पूर्ति होती है, उनकी यह कला, चकित कर देने वाली है। अगर ‘आना-जाना तो लगा ही रहता है। आया है, सो जाएगा-राजा रंक फकीर’ में सूफियाना अंदाज है, तो यहाँ ठेठ सड़क–छाप दवाफरोश की यह बाकी अदा भी दर्शनीय हैः‘‘ निंदा में विटामिन और प्रोटीन होते हैं। निंदा खून साफ करती है, पाचन-क्रिया ठीक करती है, बल और स्फूर्ति देती है। निंदा से मांसपेशिया पुष्ट होती हैं। निंदा पायरिया का तो शर्तिया इलाज है।’’
आगे ‘संतों का प्रसंग आने पर शब्द वाक्य-संयोजन और शैली –सभी कुछ एकदम बदल जाता हैः‘‘संतो को परनिंदा की मनाही होती है, इसलिए वे स्वनिंदा करके स्वास्थ्य अच्छा रखते हैं। मो सम कौन कुटिल खल कामी- यह संत की विनय और आत्मस्वीकृति नहीं है, टॉनिक है। संत बड़ा काइंयां होता है। हम समझते हैं, वह आत्मस्वीकृति कर रहा है, पर वास्तव में वह विटामिन और प्रोटीन खा रहा है।’’ एक अन्य रचना में वे ‘‘पैसे में बड़ा विटामिन होता है’’ लिखकर ताकत की जगह ‘विटामिन’ शब्द से वांछित प्रभाव पैदा कर देते हैं, जैसे बुढापे में बालों की सफेदी के लिए ‘सिर पर कासं फूल उठा’ या कमजोरी के लिए ‘टाईफाइड ने सारी बादाम उतार दी।’ जब वे लिखते हैं कि ‘उनकी बहू आई और बिना कुछ कहे, दही-बड़े डालकर झम्म से लौट गई’ तो इस ‘झम्म से’ लौट जाने से ही झम्म-झम्म पायल बजाती हुई नईनवेली बहू द्वारा तेजी से थाली में दही-बड़े डालकर लौटने की समूची क्रिया साकार होजाती है। एक सजीव और गतिशील बिंब मूर्त्त हो जाता है। जब वे लिखते हैं कि ‘मौसी टर्राई’ या ‘अश्रुपात होने लगा’ तो मौसी सचमुच टर्राती हुई सुन पड़ती है और आंसुओं की झड़ी लगी नजर आती है। ‘टर्राई’ जैसे देशज और ‘अश्रुपात’ जैसे तत्सम शब्दों के बिना न तो यह प्रभाव ही उत्पन्न किया जा सकता था और न ही इच्छित व्यंग्य।
हिन्दी की बोलियों, विशेष रूप से बुंदेली शब्दों के प्रयोग से भी परसाईजी की भाषा में एक विलक्षण चमक पैदा हो जाती है। एक ओर यदि ‘बड़ा मट्ठर आदमी है, मेरी बड़ी किरकिरी हुई, ‘लड़के मुंहजोरी करने लगे हैं और ‘अलाली आ गई, या मेरी दंतौड़ी बंध गई’ जैसे तद्भव शब्दों के प्रयोग से वे अपनी भाषा में ‘फोर्स’ पैदा करते हैं, तो दूसरी ओर ‘पूर्व में भगवान भुवन भास्कर उदित हो रहे थे’ और ‘पश्चिम में भगवान अंशुमाली अस्ताचलगामी हो रहे हैं’ या ‘वन के पशु-पक्षी खग मृग और लता-वल्लरी चकित हैं’ जैसे वाक्यों में पुरानी शैली और तत्सम शब्दों के विशिष्ट पद-क्रम –संयोजन से व्यंग्य–सृष्टि करते हैं। इसी तरह ‘राम का दुख और मेरा’ शीर्षक रचना में एक ‘शिरच्छेद’ शब्द से ही अपेक्षित प्रभाव पैदा कर दिया गया हैः ‘पर्वत चाहे बूंदों का आघात कितना ही सहे, लक्ष्मण बर्दाश्त नहीं करते। वे बाण मारकर बादलों को भगा देते या मकान –मालिक का ही शिरच्छेद कर देते।’
ऐसे ही ‘मखमल की म्यान’ के इस अंश में आखिरी वाक्य और उसमें भी ‘संपुट’शब्द के बिना यह प्रभाव पैदा नहीं किया जा सकता थाः समारोह भवन में पहुंचते ही उन्होंने कुहनी तक हाथ जोड़े, नाक को कुहनियों की सीध में किया और सिर झुकाया। एक क्षण में मशीन की तरह यह तो गया। वे उसी मुद्रा में मंच पर आए। कुहनी तक हाथों की कैसी अद्भुत संपुट थी वह’। इस छोटे-से अंश में भी सूक्ष्म अवलोकन की क्षमता और बिंब–निर्माण का कौशल अलग से दर्शनीय है। एक ही वाक्य में ‘मुख–कमल जैसे तत्सम और ‘टेटरी’ जैसे ठेठ तद्भव शब्दों के एक साथ प्रयोग का विलक्षण लाघव और अद्भुत संतुलन यहां देखा जा सकता हैः ‘‘एक वक्त ऐसा आएगा जब माईक मुख कमल में घुसकर टेटरी बंद कर देगा।’’ यह परसाई जी की कला का ही कमाल है कि वे शंकर के ‘कंठ का रंग ‘हब्बे-मामूल’ और नामवर सिंह की ‘अदा’ में कोई ‘साम्य’ एक साथ दिखा सकते हैं, जहां हिन्दी-उर्दू विवाद की कोई गुंजाइश नहीं। इसी तरह ‘‘संपादकों द्वारा दुरदुराया गया उदीयमान लेखक’’ में दुरदुराया’ और ‘उदीयमान’ बड़ी आसानी से आस-पास खप जाते हैं।
परसाईजी अपनी भाषा में कहीं तद्भव-तत्सम के मेल से तो कहीं तत्सम हिन्दी के साथ उर्दू-फ़ारसी के मेल से और कहीं हिन्दी-अंग्रेजी शब्दों के मेल में व्यंग्य–सृष्टि करते हैं। हिन्दी–अंग्रेजी शब्दों के मेल का उदारण इन दो वाक्यों में देखा जा सकता हैः बढ़ी दाढ़ी ड्रेन पाइप और ‘सो ह्वाट’ वालों से यह (सामाजिक परिवर्तन-सं.) नहीं हो रहा है। चुस्त कपड़े, हेयर स्टाइल ‘ओ वंडरफुल’ वालियों से भी यह नहीं हो रहा है। इसी तर ‘जैनेन्द्र स्ट्रिप्टीज करा चुके थे’, उर्वशी ने कामायनी वगैरह को ‘राइट ऑफ कर दिया’ था और ‘तृप्त आदमी आउट ऑफ स्टाक होता जा रहा है’ या ‘उसके पास दोषों का केटलॉग है’ आदि। उनकी रचनाओं में ‘बिरदर, ही लब्ड मी भेरी मच’ जैसी ‘हृदय विदारक’ अंग्रेजी (बकौल परसाई अगर अंग्रेज सुन लेते तो बहुत पहले ही भारत छोड़कर भाग खड़े होते) की व्यंग्यात्मक मिसाल और हिन्दी आंदोलनकारियों की तर्ज पर ‘हार्ट फेल’ के लिए ‘असफल हृदय’ या क्रिकेट की ‘वाइड बॉल’ के लिए ‘चौड़ी गेंद’ जैसे अनुवादों के हास्यास्पद उदाहरण भी मिल जाएंगे जो व्यंग्य–सृष्टि में सहायक नजर आते हैं। वे टकपते हुए कमरे को ‘किसी ऋतुशाला का नपनाघट’ बताते हैं, तो ‘वैष्णव की फिसलन’ में हूबहू महाजनी दस्तावेज की भाषा उतार लेते हैं। ‘‘दस्तावेज लिख दी रामलाल वल्द श्यामलाल ने भगवान विष्णु वल्द नामालूम को ऐसा जो की...।’’ इसी तरह ‘पुलिस के रग्घे’ से लेकर कोर्ट के ‘क्रॉस एक्जामिनेशन’ और ‘ऐवीडेंस ऐक्ट’ तक की बारीकियों के वे पूरे जानकार नज़र आते हैं।
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