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राजेन्द्र यादव संकलित कहानियां

राजेन्द्र यादव

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :241
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6429
आईएसबीएन :81-237-5243-3

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इस पुस्तक में राजेन्द्र यादव (1929) की अठारह कहानियां संकलित हैं। अपने विराट् कथा संसार में से इन कहानियों का चयन कहानीकार ने स्वयं किया है.....

Rajendra Yadav Sankalit Kahaniyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


राजेन्द्र यादवः संकलित कहानियां शीर्षक इस पुस्तक में राजेन्द्र यादव (1929) की अठारह कहानियां संकलित हैं। अपने विराट कथा संसार में से इन कहानियों का चयन कहानीकार ने स्वयं किया है। विस्तृत फलक की इन कहानियों में मनोविज्ञान का उत्कर्ष पूरी तरह समाविष्ट है। इनकी कई कहानियों में गुम होते व्यक्ति की अस्मिता को खोजने की आध्यात्मिक कोशिश, और इस कोशिश पर पाँव रखकर यथार्थ को चिह्नित करने का अभियान दिखता है। शब्दों, संदर्भों, मिथकों, प्रतीकों का उपयोग इनके यहाँ औरों की तरह पारंपरिक नहीं है ये उनके नए-नए अर्थ बोध ढूँढ़ते हैं। उनका यह कोशल उन्हें साहित्यिक समाज में खोजी, खिलंदड़ जिज्ञासु, अनुसंधित्सु और भूर्तिभंजक बागी मन के मालिक के रूप में खड़ा करता है। राजेन्द्र यादव के ही शब्दों में कहें तो अपने शरीर,भूगोल,मन और बुद्धि की सीमाओं के पार जाने, उसे अतिक्रमित करने का प्रयास-अनुभवों के माध्यम से, संबंधों के माध्यम से, स्मृतियों में जाते हुए, स्वप्नों में आते हुए, अतीत से परे, अनागत से परे....जिदंगी एक जुआ रही...इसी जुआ के सुख-दुख, उमंग उल्लास, तनाव, उत्पीड़न की गाथा हैं ये कहानियां।

भूमिका


राजेन्द्र यादव की कहानियों पर बात करने से पहले सरसरी तौर पर उनकी प्रकृत भूमि, उनके कथाकार की निर्मिति और उनके कंपल्सन्स पर गौर कर लेना ज्यादा मौजूं रहेगा।
हिन्दी कहानी ने मोटे तौर पर सन् 1940 तक एक पुख्ता आधार तैयार कर स्वातंत्र्योत्तर प्रतिभाशाली कहानीकारों के लिए उससे आगे जाने की चुनौती खड़ी कर दी थी। चन्द्रगुप्त विद्यालंकार के अनुसार ‘इनकी कहानी अभी उस ऊंचाई तक नहीं पहुंची जिस पर चौथे दशक के उत्तरार्द्ध में पहुंच गई थीं।’ बीच में जैनेन्द्र और अज्ञेय थे, ‘मोहभंग’ था, ‘कुंठा, पराजय और घुटन’ थी, रूस और फ्रांस समेत दिग्गज विदेशी लेखकों और साहित्यिक आंदोलनों का प्रभाव था। साथी लेखकों की दोस्ती के तले रेंगती आपसी प्रतिस्पर्द्धा भी कम नहीं थी। चतुर्दिक इतने तकाजों, दिगंतव्यापी विघटन और विश्रृंखलन में व्यक्ति को जीवन और आस्था दे सकता है केवल सामूहिक सद्भाव या सामूहिक संवाद। पिछली पीढ़ी ने निर्वैयक्तिक (आब्जेक्टिव) संलग्नता और संबद्धता को चुना, ऐसे और भी कितने झटके दिए लेकिन वास्तिवकता यह रही कि वे पूरी तरह निकल नहीं पाए उन प्रभाव छायाओं से, ऐसे प्रत्यय दिए कि मानो वह अलग-सी कोई चीज है, सत्य या आइडिया मुख्य है, बाकी परिवेश उसे खिलाने भर का निमित्त मात्र; विकृति पहली बार दृष्टि में थी इस बार दृष्टि स्वस्थ है, दृश्य चाहे विकृत हों...(राजेन्द्र यादव) यह तो हुए सामूहिक तर्क, वैयक्तिक स्तर पर हर कथाकार के अपने संकट भी कम नहीं थे।

राजेन्द्र के अनुसार ‘सारी जिंदगी इन अंधकूपों से बाहर आने की प्रक्रिया रही है,....अपने शरीर, भूगोल, मन और बुद्धि की सीमाओं से पार जाने, उसे अतिक्रमित करने का प्रयास–अनुभवों के माध्यम से, संबंधों के माध्यम से, स्मृतियों में जाते हुए, स्वप्नों में आते हुए, अतीत से परे, अनागत से परे... जिंदगी एक जुआ रही, ‘अक्षर प्रकाशन’ भी जुआ,‘ हंस’ भी जुआ, एक में हार मिली, दूसरे में जीत। रिश्ते, दोस्ती शरीर, बुद्धि और मन के तकाजे अपनी जगह। यही लेखकीय सफर ‘वहां तक पहुँचने की दौड़’ के तनाव और ‘देवताओं की मूर्तियां’ उपलब्धि के अवसाद थे।

‘कला अहम और विसर्जन’ इसका एक प्रतिफलन है। सबको छोड़कर मात्र कला..मगर जहां जिंदगियां दांव पर लगी हों, वहां अंततः जिंदगी पर कला को कुर्बान करना ही कलाकार की कला की चरम सार्थकता है। प्रारंभ में कला सम्मोहित करती है और वह द्वंद्व में होता है। यह द्वंद्व ही राजेन्द्र के लेखक का बीजमंत्र है, उन्हें जिंदगी चाहिए, जिंदगी के रूप चाहिए, रस चाहिए, स्वाद चाहिए, सौंदर्य चाहिए, कला इस रूप, रस, स्वाद और सौंदर्य का उदात्तीकरण है। लेकिन उन्हें दोस्त भी चाहिए, संबंध भी चाहिए, समाज भी चाहिए, शर्तें भी अपनी ही हो। इसी रस्साकशी के ऊपर खड़े हैं राजेन्द्र यादव।

यह द्वंद्व अकेले राजेन्द्र यादव का हो, ऐसा नहीं, अधिसंख्य लेखकों का है पर राजेन्द्र की लेखकीय ईमानदारी है कि वे इसे छुपाते नहीं। इस प्रकार रूप-रस–स्वाद और सौंदर्य के द्वंद्व वैयक्तिकता की ओर खींचते हैं तो आसपास के क्षयमान परिवेश की वस्तुनिष्ठता उन्हें सामाजिकता की ओर। लेकिन मन जल्द ही इन सभी से ऊबने लगता है (कुएं से बाहर आने की कोशिश) तो सब कुछ छोड़-छाड़कर मन को रमाने के नए आधार तलाशने चल पड़ते हैं, चाहे वे एस्थेटिक हों, ‘अपने पार’ चाहे कोई और प्रत्यय। ग्राफ से स्पष्ट है, उम्र के उतार पर यौनिकता के खुलेपन के इजहार की ओर खिंचने लगे हैं, ऐसा क्यों है, यह एक अलग मनोविज्ञान है। शायद जब चीजें हाथ से छूटने लगती हैं, आदमी उसे जोर से जकड़ या पकड़ लेना चाहता है।
इस तरह देखा जाए तो राजेन्द्र ने अपने लिए औरों से बिल्कुल अलग जमीन तलाशी। इस तरह काफ्का, चेखव,गोर्की से लेकर हेमिंग्वे, कहीं-कहीं ओ हेनरी और मोपासां तक की प्रभाव छायाओं की धूपछाहीं में राजेन्द्र कहानी को जिस मुकाम तक ले जाए हैं वह औरों से अलग उनकी अपनी ही जमीन है, अपना ही स्पेस। उन्हें टुकड़े-टुकड़े नहीं, ‘सारा आकाश’ चाहिए।

शुरूआती दौर की कहानी है ‘छोटे-छोटे ताजमहल।’ प्रेम और मुहब्बत की निशानी माना जाता है ताजमहल। ताजमहल प्रेमियों का मिलन स्थल भी है। पर मात्र मिलन स्थल नहीं, ताजमहल वियोग–विछोह का स्थल भी है, प्रेमी युगल में से एक को जाना पड़ता है। मिलन की एकांतिक चेतना में विछोह एक धक्के जैसा लगता है। राजेन्द्र का कथाकार कारणों के डिटेल में नहीं जाता, डिटेल प्रतीक्षा के मनोवेगों में है और यहां कथानक ओ हेनरी या मोपासां की तरह यू-टर्न ले लेता है।

‘संबंध’ में लाश पर पत्नी मां–बाप बिलख-बिलख कर रोए जा रहे थे, लाश का मुँह देखने की जहमत भी नहीं उठाई जाती। बाद में पता चलता है कि वह गलत लाश थी। सही लाश लाई जाती है और फिर से विलाप का कर्मकांड शुरू हो जाता है। जीवित व्यक्ति से मृत व्यक्ति तक आते-आते संबंधों के धागे कितने क्षीण हो जाते हैं। विलाप के शोर में संबंधों की भंगुरता पर कहानी एक यथार्थ विद्रूप भरी टिप्पणी है। संबंधों का आधार क्या है, यह वर्ग निर्विशेष का सत्य है। मगर ‘भय’ ‘रोशनी कहां है, ‘मेहमान’ जैसी कहानियां निम्न या अतिनिम्न वर्ग की कहानियां हैं। ‘भय’ में गैराज का क्रूर मालिक किस ठंडी निर्ममता से अपने यहां काम कर रहे छोकरे रहीम को यातना देता है ! मुंह में ‘बाबू साहब’ का संबोधन और हाथ में चाबुक ! इस बेरहम मालिक की यातना से रहीम की रूह फना रहती है। चौंकाने वाली बात यह है कि रहीम इस मर्मांत यातना को तो सह लेता है, लेकिन भूत की उपस्थिति नहीं सह पाता। यह ‘भूत’ क्या है- इसे राजेन्द्र पूरी तरह स्पष्ट नहीं करते। कई बार अन्त को ‘शार्प’ बनाने की बजाय, वे कुछ अनकहा छोड़ देते हैं।

‘रोशनी कहां हैं’ में बिस्सो बाबू की चाय की फटीचर दुकान, दुकान का रहा-सहा सामान लेकर भागा हुआ फटीचर नौकर, मुफ्त में चाय पीने और अड्डेबाजी करने और एक दूजे को ठगने–लूटने वाले उठाईगीर मित्र तथा दूर कहीं घर परिवार में बच्चे के लिए आने भर का दूध न दे पाने पर लड़कर मुंह फुलाए बैठी पत्नी चारों तरफ अंधेरे ही अंधेरे हैं। रोशनी कहीं नहीं। इसी तरह ‘मेहमान’ में मात्र एक बड़े मेहमान (जिनसे उसे सहायता मिल सकती है) का अभावग्रस्त घर में आना भी कितना बड़ा समस्या उत्सव बन सकता है- को कथ्य का उपजीव्य बनाया गया है।
तीनों ही कहानियों में निम्नवर्ग के परिवेश में निर्भान्त और मुकम्मिल चित्र है। आश्चर्य होता है, आलोचनात्मक यथार्थ की इतनी संभावनाशील धारा परवर्ती काल में दूसरी ओर क्यों और कैसे मुड़ गई कि चंद कहानियां ही इतिहास बनकर रह गईं।

इस ‘मुड़ने’ का पहला लक्षण हम ‘जहां लक्ष्मी कैद है’ में पाते हैं। यहां ‘लक्ष्मी’ नाम की एक जवान मां-बाप की मात्र बेटी नहीं, उनके धनधान्य, शुभ-लाभ की दात्री भी है, सो उसे किसी भी कीमत पर नहीं खोना चाहते पिता जबकि लड़की लक्ष्मी की वैयक्तिक सत्ता, नारी जनित दैहिक तकाजे; मुक्ति पाने के लिए चीख रहे हैं। ‘टूटना’ और ‘जहाँ लक्ष्मी कैद है’ को राजेन्द्र यादव की सबसे अच्छी कहानी में शुमार किया जाता है।

‘टूटना’ में निम्नवर्ग के नायक से सम्पन्न वर्ग की लड़की का प्रेम विवाह होता है। विवाह के बाद आत्महीनता का मारा नायक हर घड़ी कुंठित रहता है। यह कुंठा बहुस्तरीय टूटन और विघटन को जन्म देती है। नायक का रोल मॉडल है उसका श्वसुर जो उसे हर घड़ी तोड़ता रहता है, मर जाने के बाद भी यूं तो श्वसुर की नजरों में विजेता दिखने की कसरत में चेतना के स्तर पर नायक का टूटना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है पर उससे भी भयंकर टूटना है नायिका का जो पिता और पति के द्वंद्व में पिस कर रह जाती है।

यह टूटना अन्यत्र भी अपनी नाना अर्थछवियों और रूपों में परिलक्षित किया जा सकता है, मसलन ‘किनारे से किनारे तक’ को ही लें। पत्नी का बच्चा अपना नहीं, किसी मित्र का है, यह शक इस कदर नायक को छेदता है कि वह प्रतिशोध के लिए मित्र के मासूम बेटे मानिक की हत्या करने पर आमादा हो जाता है।
वे दोनों ‘बेलूर मठ’ जा रहे होते हैं, मानिक को उसे धक्का भर दे देना है-लेकिन नाव किनारे भी लग जाती है और वह वैसा नहीं कर पाता, कारण उसे अपनी और उस मासूम की नियति एक जैसी लगती है- दोनों ही बिना किसी कसूर के दंडित होने को अभिशप्त। सह-अनुभूति उसे जिज्ञासु से संरक्षक बना देती है।

यह टूटना प्रकारांतर से ‘प्रतीक्षा’ की नायिका गीता का भी है जो अपनी सहेली नंदा के सात खून माफ कर उसका अभिभावकत्व और सेवा का सहर्ष वरण किए है। और किसी भी कीमत पर उसे छिटकने नहीं देना चाहती। इस जटिल रिश्ते की गांठ उसके अपने प्रेमी में बंधी है, जो आने को कहकर आज भी नहीं, आया। नंदा और उसके प्रेमी हर्ष के आगमन की प्रतीक्षा के अंदर–अंदर गीता की अपनी प्रतीक्षा रेंग रही है। सुख और दुख के मनोवेग कैसे अपना समताल ढूंढ़ते हैं, मन की इस गूढ़ पहेली को व्यस्त करती है ‘प्रतीक्षा कहानी।
‘बिरादरी बाहर’ में रिटायर्ड पिता की इच्छा के विरुद्ध बेटी ने विजातीय विवाह कर लिया है, अपने पति के साथ दो साल बाद लौटी है तो पूरा परिवार उसकी आवभगत में जुट गया है और अपने ही घर में उपेक्षित और अलग-थलग पड़ गए पिता खुशी के माहौल में आइसबर्ग-सा तैरते हैं। ‘ढोल’ और जहा लक्ष्मी कैद है’ की पर्याप्त चर्चा हो चुकी हैं। ‘ढोल’ दृश्यमान के पीछे घुटती अदृश्य हकीकतों की फंतासी है। ‘सिंहवाहिनी’ एक दूसरी ढोल है। ये काफ्का से लड़ते और बचते हुए दिन थे।
जहाँ एक कवच है तो दूसरी नकाब...
‘संबंध’ से लेकर ‘ढोल’ और ‘सिंहवाहिनी’ जैसी प्रायः सभी कहानियों में एक गुम होते हुए व्यक्ति की अस्मिता के ट्रेस आउट करने की आध्यात्मिक-सी कोशिश है और इस कोशिश पर पांव रखकर यथार्थ को चिह्नित करने का अभियान। राजेन्द्र का कथाकार इस अर्थ में औरों से भिन्न है कि मिथों की पारंपरिक अर्थों तक सीमित रखना उसे गंवारा नहीं, वह उनके नए-नए एस्थेटिक सेंस निकालने और प्रतिभा गढ़ने में यकीन करता है, मसलन यहां ताजमहल ‘प्रेम’ का नहीं ‘बिछड़ने’ का ढोल मात्र ‘आवाज’ या उसकी ‘पोला’के लिए नहीं, कवच के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। यह उनके खोजी, खिलंदड़े, जिज्ञासु और अनुसंधित्सु और उससे बढ़कर मूर्तिभंजक बागी मन की बानगी है।

इन कहानियों से गुजरते हुए राजेन्द्र यादव मनोविज्ञान के कथाकार लगते हैं। वे उस आदमी के साथ भी हैं, उस पर तंज कसने से भी बाज नहीं आते, आदमी तो अपने स्वभाव, लोभ और आग्रहवश अटपटी या असहज स्थिति में आ पड़ा है, जो सच्चाइयों से मुंह चुराता है और ढोंग पाले हुए है। ऐसे खंडित विखंडित, हाशिए पर फेंके जा रहे पात्र अपनी संगति और स्पेस तलाशते हैं, अपने होने का अर्थ तलाशते हैं। रोजी–रोजगार से हीन तलछट में गर्क होने को अभिशप्त शतरंज की गोटियों की तरह बिछे, पात्र सबके अपने-अपने पैंतरे, अपनी-अपनी चालें, कब कौन किसे निगल जाए कहना मुश्किल है- यह एक अलग ही किस्म का अस्तित्ववाद है। ‘रोशनी कहां है, ऐसी कहानियों का शिखर है जहां सब एक–दूसरे को छल रहे हैं, इरादतन नहीं, लाचारीवश लूट में सहयोगी भी है और लूट का श्रेय दूसरे पर फेंक देने में उन्हें जरा भी वक्त नहीं लगता- एक किस्म का इन्टर-प्ले। मगर धनात्मक पक्ष यह है कि मानवीय विवेक की ऊष्मा अभी पूरी तरह मरी नहीं है। प्रकारांतर से ये कहानियां उन चिहराए परिवेश और पात्रों के कालखंड के चलचित्र भी हैं।

फंतासी के गहरे रंगों में रंगी ‘सिहंवाहिनी’ दुनिया में शोहरत पाने की सनक में रिटर्न है। धीरे-धीरे सब कुछ छूटता जाता है- प्रशंसक, मित्र, रिश्ते, खुद की खुदी भी। सनक के सिंह के मुंह में समाती जाती है सिहंवाहिनी, बल्कि उससे भी बड़ा प्रश्न यह कि उसने सिंह की हत्या की या सिंह ने उसकी या उसकी सनक ने दोनों की ?

‘सिंहवाहिनी’ और ‘ढोल’ में आवरण का वरण खुद अपनी पसंद है जबकी ‘सिद्धि’ में अनजाने ही एक व्यक्तित्व दूसरे को ढक लेता है। युवा साध्वी को जोहरा बाई की एक जूती मिलती है जिसे पहनते ही वह अलौकिक अनुभव करने लगती है। इस सिद्धि का श्रेय वह अपने गुरु महाराज की पादुका को देती है पर मन ही मन महसूसती है कि वर्तमान एक कील है जो समय के चौड़े तख्ते पर ईसा की तरह उसे ठोके हुए है, लेकिन जूतियां पैरों में हैं, इस अनुभूति से कील ढीली होने लगती है और वह हल्की होकर हवा में तैरने लगती है।
साध्वी की खोल में कैद एक जवान औरत को कैद से आजाद होने के लिए प्रेरित करती दूसरी औरत। जोहरा ऐसी वेश्या थी कि जो भी एक बार उसके साथ हमबिस्तर होता वह जीवन भर उसका गुलाम हो जाता। वह जोहरा उसके मन-प्राण पर छाती जा रही है। कहानी से गुजरे बिना कहानी के द्वैध या संक्रमण को नहिं समझा जा सकता।

यहां ‘कील’ जूती, सिद्धि ‘गुरु’ सभी में व्यंजनाओं के कई रंग और प्रतीक हैं- जो पलटकर वार करते हैं। एक तरह से देखा जाए तो ‘जहां लक्ष्मी कैद है, की बंदी आत्मा की मुक्ति ही उम्र की चढ़ान और अनुभव की सान पर सिद्धि से नई चमक के साथ अवतरित हुई है।
अपने रचाव और रसाव-संक्रमण और संघात, ढब और उड़ान में ये कहानियां अलग-अलग औंधे आकाशों में ले जाती हैं। राजेन्द्र की कई कहानियों की तरह ‘सिद्धि’ का भी प्रधानत्व सेक्स है- झाड़ियों में बैठा, बाघ की तरह घात लगाए बैठा सेक्स !

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