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कामतानाथ संकलित कहानियां

कामतानाथ

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6427
आईएसबीएन :978-81-237-5247

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आम जनजीवन से उठाई गई ये कहानियां कथाकार के रचना-कौशल की वजह से ग्रहण के स्तर पर एक तरफ बतरस का मजा देती हैं तो दूसरी तरफ प्रभाव के स्तर पर उद्वेलित करती हैं...


मां पूरी निकाल लाई थीं। वह प्लेट में गोश्त निकाल रहा था तो मामा ने कहा, "हड्डी वाली बोटी देना, भाई।"

उसने छांट कर बोटियां निकाली और प्लेट लाकर मेज पर रख दी। "तुम नहीं खाओगे?" मामा ने पूछा।

"मैं खा चुका।" उसने कहा।
मामा खाने लगे। “गोश्त तो बहुत बढ़िया बना है, भाई!" उन्होंने कहा। खाने की तारीफ वह हमेशा करते थे। पिता अकसर इस पर उन्हें टोकते थे-“भई, खाने के बाद तारीफ करते तो मैंने लोगों को सना है। तुम तो खाते जाते हो, तारीफ करते जाते हो।"

"इससे खाना और अच्छा लगने लगता है।" मामा कहते।

संतू उठ कर बैठ गया था। थोड़ी देर बदहवास-सा बैठा रहा। फिर उठ कर नीचे चला गया। जीवन मामा के चेहरे पर कछ रेखाएं उभर आई। उन्होंने खाना रोक दिया।

“-चू-चू! बताइए," उन्होंने कहा, "यह कौन-सा तरीका है। भाई साहब होते आज तो कितना अफसोस होता उनको। ऐसे आदमियों के साथ तो बिल्कुल भी हमदर्दी नहीं करनी चाहिए।"
"अब क्या बताएं आपको, यह तो पकड़ गए थे।" उसने कहा।
"मैंने सब सुना है। तुमने गलती की जो छुड़ा लाए इन्हें।"
"मैं तो पड़ा रहने देता। सिर्फ़ अम्मा का ख्याल था।"
"ममता नहीं मानती, भइया!" मां ने कहा, "नहीं तो ऐसे लड़के से बिना लड़का ही भला।"
"नहीं, बहनजी!" जीवन मामा ने कहा "आप जितनी ममता कीजिएगा, उतने ही यह और खराब होंगे।"
मां चुप रहीं। जीवन मामा फिर खाने लगे। खाना खाकर मामा जाने लगे तो वह उनको नीचे पहुंचाने गया। द्वार पर था, तभी देखा सतीश कहीं बाहर से आ रहा है।

"कहां गए थे?" उसने पूछा।
"ऐसे ही एक दोस्त के यहां गया था।"
वे जीना चढ़ रहे थे।
"तुम बैठोगे कुछ देर दरवाजे?"
"नहीं," छोटे भाई ने कहा। मां ने पान लगा रखे थे। तश्तरी लेकर वह चुपचाप नीचे उतर आया और दरवाजे का कमरा खोलकर बैठ गया।

गली में होली मिलने वाले लोग आ-जा रहे थे। मशीन की तरह वे उसके कमरे में भी आते, उससे गले मिलते, तश्तरी से पान लेकर खाते, दो-एक बात करते जैसे "कब आए?" "कब तक रहोगे?" आदि-आदि और उठ कर चले जाते। कुछ लोग खड़े-खड़े ही एक मिनट के लिए रुकते। कुछ एक-दो मिनट बैठ जाते। लोग बैठते तो वह भी बैठ जाता। उनके चलते समय फिर उठ कर खड़ा जो जाता। उसे यह सब पसंद नहीं था। मां के ख्याल से ही वह इतनी देर बैठा रहा।

आठ बजे तक लोगों का आना कम हो गया तो उसने दरवाजा बंद किया और ऊपर आ गया। “अभी आ रहा हूं थोड़ी देर में," उसने मां से कहा और बाहर चला आया। दो-एक मित्रों के यहां गया, परंतु कोई मिला नहीं। कुछ देर वैसे ही इधर-उधर घूमता रहा। कोई दस बजे के करीब लौट आया।

मकान के अंदर घुसा तो मां जीने से थाली में खाना लेकर उतर रही थीं।

“यह खाना कहां ले जा रही हो?" उसने पूछा।

"संतू के लिए ले जा रही थी। खाएं, चाहे न खाएं, मुझको क्या करना। पूछ लेती हूं। इनको तो तुम जेल में ही पड़े रहने देते तो अच्छा था।" उन्होंने कहा।

वह एक क्षण दहलीज पर रुका रहा। मां ने कमरे के भिड़े हुए किवाड़ खोले तो उसने देखा, संतू तख्त पर पेट के बल लेटा था। अभी तक वह रंग भरे कपड़े पहने था।

वह जीना चढ़कर ऊपर आ गया। कम्मन चारपाई पर सो रहा था। छोटे भाई का कमरा बंद था। कपड़े बदल कर वह बिस्तर पर लेट गया।

थोड़ी देर में मां ऊपर आ गईं।

“खाना खाया संतू ने?" उसने पूछा।

"खाना क्या खाएंगे! पिएं पड़े हैं।" मां ने कहा। फिर थोड़ी देर बाद बोलीं, "खाएं चाहे न खाएं। अब मैं नहीं जाऊंगी पूछने। तुमको दूं खाना?"

मैं नहीं खाऊंगा। दिन भर उल्टा-सीधा खाते-खाते पेट खराब हो गया। उसने कहा।

"थोड़ा-सा खा लो।"
"नहीं।" उसने कहा।
"तुमने खाया ही नहीं कुछ। गुझिया ही खा लो एक-दो। दूं?"
"नहीं, भूख नहीं है।" उसने कहा।
"मां चुप हो गईं।"
"सतीश कहीं गए हैं क्या?" उसने थोड़ी देर बाद पूछा।
"सनीमा गए हैं। दुल्हिन भी तो गई हैं।"
"अच्छा।" उसने कहा।

वह थोड़ी देर लेटा रहा। "बत्ती बुझा दूं?" उसने पूछा।
"बुझा दो। मुझको क्या जरूरत बत्ती की। मेरे लिए तो बत्ती न बत्ती बराबर है।" मां ने कहा।
"बाहर के किवाड़ बंद हैं?"
"हां।"
उसने उठकर बत्ती का स्विच ऑफ किया तो कमरे में अंधेरा फैल गया।
"कल मैं लौट जाऊंगा।" उसने कहा।
"अच्छा।" मां ने उसकी ओर करवट ले ली।
अंधेरे में वह उनका चेहरा नहीं देख सका।

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