कहानी संग्रह >> कामतानाथ संकलित कहानियां कामतानाथ संकलित कहानियांकामतानाथ
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आम जनजीवन से उठाई गई ये कहानियां कथाकार के रचना-कौशल की वजह से ग्रहण के स्तर पर एक तरफ बतरस का मजा देती हैं तो दूसरी तरफ प्रभाव के स्तर पर उद्वेलित करती हैं...
छुट्टियां
रिक्शावाला सामान दरवाजे पर रखकर चला गया। उसने होल्डाल वहीं बाहर चबतरे पर
पड़ा रहने दिया और बक्स ले कर जीना चढ़ने लगा। मां बाहर छत पर ही खरहरी
चारपाई पर बैठी थीं। उन्होंने उसकी ओर देखा। पहचाना या नहीं, वह जान नहीं
सका। वह इतना जानता है कि मां को अब बहुत कम दिखाई देता है। उसने बक्स वहीं
फर्श पर रख दिया और झुककर मां के पैर छू लिए।
“आ गए?" मां ने कहा।
"हां," उसने कहा। एक क्षए रुका, तब नीचे होल्डाल लेने चला आया।
होल्डाल ला कर उसे भी उसने वहीं छत पर पटक दिया और चारपाई पर बैठ कर
हांफने-सा लगा। होल्डाल खासा वजनी था। उसे ले कर सीढ़ी चढ़ने से वह थक-सा गया
था।
सतीश, उसका छोटा भाई, अंदर कमरे से निकल कर आया और झुककर उसके पैर छुए। उसने
कुछ कहा नहीं। बस, पैर समेट कर एक अन्यमनस्कता-सी व्यक्त की, जैसे उसे यह सब
पसंद न हो। सतीश भी कुछ बोला नहीं। सीने पर हाथ बांध कर चुपचाप वहीं खड़ा हो
गया।
उसने देखा, मां के चेहरे पर विचित्र-सी गम्भीरता थी। तीन महीने उसे घर छोड़े
हुए थे। परंतु इन्हीं तीन महीनों में जाने क्या हो गया था कि अपना ही घर उसे
पराया लगने लगा था। उसने चारों ओर दृष्टि दौड़ा कर देखा-पाइप के पास वाली
दीवार पर काई जमी थी। आंगन के जंगले के किनारे वाला सरिया टूट कर मगर के मुंह
की तरह ऊपर उठ आया था। छत की मुंडेर की ईंटें अभी भी टूटी हई थीं। कमरे की
खिड़की का दरवाजा आधा टूटा था। पाइप के ऊपर वाली दुछत्ती में चैले भरे थे।
हां, जीने के सामने बरोठे के एक कोने में लकड़ी के बरादे का ढेर था, जो पहले
नहीं था। कुछ विशेष तो नहीं बदला था, फिर उसे अपना ही घर पराया क्यों लगने
लगा था, वह सोचने लगा। शायद अधिक दिनों एक चीज़ को न देखने से ऐसा ही होता
हो।
"नीचे किरायेदार हैं क्या?" उसने मां से पूछा।
“आजकल घर गएं हैं।"
"कौन हैं?"
"कोई गुप्ता हैं।"
"कहां काम करते हैं?"
“पी. डब्ल्यू. डी. में।" छोटे भाई ने उत्तर दिया।
वह चुप हो गया।
कुछ देर सतीश वहीं खड़ा रहा। तब अंदर कमरे में चला गया। एक क्षण बाद उसकी
पत्नी सिर पर घूघट डाले हुए कमरे से निकली और अपने को इस तरह बचाती हुई, जैसे
कोई आग की लपट से बचता है, सामने रसोई में जाकर अंगीठी सुलगाने लगी।
उसने जूते खोल दिए ओर चारपाई पर पीछे खिसककर दीवार का सहारा ले लिया।
“सन्तू पकड़ गए।" मां ने कहा।
"क्या हुआ?" उसने पूछा। सन्तू उसके सबसे छोटे भाई का नाम था।
"कहीं से अफीम लाए थे" मां ने बहुत आहिस्ता से उसके निकट सरकते हुए कहा, "वही
घर से बरामद हुई। पुलिस आई थी। घर से पकड़ कर ले गई।"
"कहां रखी थी?" उसने पूछा। वह सन्तू की आदतों से परिचित था।
"नीचे, जीने वाली दुछत्ती में।"
“कब हुआ यह?"
"कल रात में, दो बजे।"
"दो बजे!"
"हां, वह बनियों का लड़का है न, मुन्नन! वही कहीं साइकिल-चोरी में पकड़ा गया
था। उसी को लेकर पुलिस घर आई थी।"
“सतीश नहीं थे घर में?"
"थे" मां ने और धीमी आवाज में कहा, "उनका स्वभाव तुम जानते ही हो। घर से बाहर
नहीं निकले।"
"सतीश!" उसने छोटे भाई को आवाज दी।
सतीश ने उसकी आवाज के उत्तर में कुछ कहा नहीं। चुपचाप बाहर चला आया।
"क्या हुआ था?" उसने पूछा।
सतीश एक क्षण खामोश रहा। मां की ओर घूर कर देखा। फिर बोला, "हुआ क्या था!
अफीम घर में लाकर रखी थी। वही बरामद हुई।"
"पुलिस को कैसे मालम कहां रखी थी? तलाशी ली थी क्या?"
“मुन्नन को मालूम था। वही पुलिस लेकर आया था।"
"लेकिन मुन्नन तो संतू का दोस्त है। वह पुलिस लेकर क्यों आएगा?"
सतीश एक क्षण चुप रहा। बोला, “साइकिल चुराने में कहीं पकड़ा गया था। पुलिस ने
मारा-पीटा होगा। पूछा होगा कि और क्या करते हो तो बता दिया होगा।"
"तुम्हें ठीक से मालूम है क्या हुआ था?"
“यही हुआ, जो बता रहा हूं। कोई आज से थोड़े यह धंधा हो रहा है!"
"कितनी अफीम थी।"
"रही होगी आधा सेर।"
"तो संतू कहां है?"
"जेल में।"
"पुलिस सीधे जेल कैसे ले जाएगी? पहले मजिस्ट्रेट के यहां पेश करेगी।"
"पेश किया था।"
"तुम गए थे?"
"हां।"
"तो तुमने जमानत नहीं ली?"
"जेल के लिए रिमांड हो चुकी थी, जब मैं पहुंचा था।"
"कितने बजे गए थे तुम?
"दो बजे।"
"दिन में?"
"हां।"
"रात में जब उसे पकड़ कर ले गए तब तुम नहीं गए?"
"नहीं।"
"तो आज नहीं कोशिश की जमानत के लिए?"
"आज कोर्ट बंद है।"
"छुट्टी में भी तो एक मजिस्ट्रेट बैठता है।"
"मुझे नहीं मालूम।"
वह चुप हो गया। सतीश ने मुड़ कर रसोई की ओर देखा। उसकी पत्नी चाय का कप लिए
रसोई के द्वार पर खड़ी थी। कप उससे लेकर वह उसे देने लगा। उसने कप ले लिया।
कहा, "अम्मा को भी दो।"
"दे रहे हैं।" सतीश ने कहा और दूसरा कप ला कर मां को दे दिया।
वह चाय पीने लगा।
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