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कामतानाथ संकलित कहानियां

कामतानाथ

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6427
आईएसबीएन :978-81-237-5247

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आम जनजीवन से उठाई गई ये कहानियां कथाकार के रचना-कौशल की वजह से ग्रहण के स्तर पर एक तरफ बतरस का मजा देती हैं तो दूसरी तरफ प्रभाव के स्तर पर उद्वेलित करती हैं...


होली की छुट्टियों में वह घर आया था। इससे पहले वह यहीं था। परंत चार महीने पूर्व उसका ट्रांसफर पटना हो गया था। शुरू में वह अकेला ही गया. फिर' एक महीने बाद जब उसे मकान मिल गया, तो पत्नी और बच्चों को भी ले गया। मां उस दिन बहुत रोईं थीं।

"इस घर को क्या होता जा रहा है," उन्होंने कहा था, "अभी तक तुम थे तो संतू तुम्हारा लिहाज करते थे। अब तो उनको खुली छूट मिल जाएगी। सतीश को तुम जानते ही हो, किसी से कोई मतलब नहीं। पिंकी और गीता थे तो मेरा भी मन बहला रहता था। अब सारा दिन रोते बीता करेगा। कम्मन की वजह से मैं यहां फंसी हूं, नही तो मैं भी चली चलती तुम्हारे साथ।" और वह गीता और पिंकी को सीने से चिपटा कर रोने लगी थीं।

कम्मन उसका भानजा था। आठ वर्ष का। बहन की हैजे में मृत्यु हो गई थी। तब कम्मन छह महीने का भी न था। मां ने उसे पाल-पोस कर इतना बड़ा किया था। वह शुरू से ही यहां रहा था और बहुत दिनों तक नानी को "अम्मा" कहा करता था। चौथे में पढ़ रहा था वह।

"कम्मन कहां है?" उसने पूछा।

"खेलने गया होगा कहीं," मां ने उत्तर दिया।

तब तक कम्मन आ गया। “नमस्ते बड़े मामा!" उसने कहा और इधर-उधर देखने लगा।

होली पर वह अकेला ही घर आया था। पत्नी बच्चों के साथ अपने मायके चली गई थी। पहले वह उसी कमरे में रहा करता था, जिसमें सतीश रहता है। सतीश तब नीचे रहता था। उसके जाने के बाद नीचे का हिस्सा किराए पर उठा दिया गया। मां और कम्मन रसोई के बगल वाले कमरे में रहते हैं जिसे पूजा वाला कमरा कहा जाता है, क्योंकि उसमें लकड़ी का एक छोटा-सा मंदिर रखा है। जिसमें भगवान की मूर्तियां रखी रहती हैं। मां रोज सबेरे उठ कर पूजा करती हैं।

उसे ध्यान आया कि वह खाली हाथ घर आया है, कम-से-कम कम्मन के लिए कुछ ले कर आना चाहिए था।

“पढ़ाई-वढ़ाई ठीक हो रही है?" उसने कम्मन से पूछा।
“जी," कम्मन ने कहा।
"मेरे लिए सिगरेट ला दोगे?"
"जी हां।"
उसने एक रुपये का नोट जेब से निकाल कर उसे दिया। “एक पैकेट चारमीनार ले आओ। और बाकी पैसों का अपने लिए कुछ ले लेना।"
"क्या ले लें?"
"कुछ ले लेना। जलेबी ले लेना।"
जलेबियां उसे बहुत पसंद थीं। जब यहां रहता था तो अकसर सुबह दही-जलेबी का नाश्ता करता था।
कम्मन चला गया। वह सामान मां वाले कमरे में उठा लाया और तहमद निकाल कर कपड़े बदलने लगा। उसके पीछे-पीछे मां भी चली आईं।

"मंदिर कहां गया?" कमरे में मंदिर न देखकर उसने पूछा।

"शुक्लाइन के घर भिजवा दिया," मां ने कहा, "मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती। सबेरे उठ कर दो-एक दिन नहा लिया तो सर्दी लग गईं। सतीश की दुल्हिन से कहा था कि वह आरती कर दिया करें सो उन्होंने कह दिया उनसे नहीं होगा।"

वह चुप हो गया।
"दरवाजे वाला कमरा भी किराएदारों को दे दिया है क्या?"
"नहीं। वह अपने कब्जे में है। संतू वहीं तो रहते थे।"
कपड़े बदलकर वह चारपाई पर लेट गया। सामने दीवार पर पिता का चित्र लगा था। छह-सात वर्ष हुए उनका देहांत हुए। उसकी नौकरी तब लगी-लगी ही थी। सतीश उन दिनों ड्राफ्ट्स मैन की ट्रेनिंग ले रहा था। संतू नवें में था। काफी कठिन दिन थे वे भी। पिता को रिटायर हुए चार-पांच वर्ष हो चुके थे। फंड का सारा पैसा बहन की शादी में निकल गया था। जैसे-तैसे उसने एम. ए. किया था। पिता ने किसी प्राइवेट फर्म में नौकरी कर ली थी। वह स्वयं पढ़ने के साथ-साथ ट्यूशन करता था। तीन-चार ट्यूशने करता था एक साथ। उस पर भी घर का खर्च नहीं चलता था।

मां ने बिस्तर लगा दिया था। वह लेट गया और लेटे-लेटे कोई पत्रिका पढ़ने लगा जो उसने रास्ते में खरीदी थी। सफर की थकान उसे महसूस हो रही थी। एक बार उसके मन में आया कि मित्रों से मिल आए। उसने घड़ी देखी। साढ़े सात बजे थे। वह टाल गया। सुबह देखा जाएगा, उसने सोचा।

"द्वारिका मर गए।" मां ने कहा।

"कब?" उसने पूछा। द्वारिका बाबू मोहल्ले के सबसे पुराने बाशिन्दे थे। उसके पिता के घनिष्ठ मित्रों में से थे। वह उनको चाचा कहा करता था।

“एक महीना हुआ होगा," मां ने उत्तर दिया।
"बीमार थे?"
"दो-चार दिन बुखार आया होगा।"
उसके पिता की मृत्यु हो जाने के बाद भी द्वारिका बाबू होली पर हर वर्ष उसके घर आते रहे थे और मांग कर कुछ-न-कुछ खाते थे। पिता थे, तब तो हर वर्ष ठंडाई बनती थी। कभी-कभी एक-दो बोतलें शराब की भी खुल जाती थीं।

"होली का सामान बन गया?" उसने पूछा।
मां ने कोई उत्तर नहीं दिया।
"पापड़ बने हैं।" कम्मन ने कहा।
"गुझिया वगैरह नहीं बनीं?" उसने पूछा।
"सतीश कहते हैं, उनके पास पैसा नहीं है। खोया छह रुपया सेर बिक रहा वह चुप रहा।

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