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हम हिन्दुस्तानी

नाना पालखीवाला

प्रकाशक : राजपाल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :143
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6426
आईएसबीएन :81-7028-202-0

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वर्तमान भारत की जनता तथा उससे संबंधित सभी सामयिक राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक समस्याओं पर निर्णयात्मक विचार और समाधान...

Hum Hindustani - A Hindi book by Nana Palkhiwala

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारत के प्रसिद्ध विधिवेत्ता तथा सामयिक समस्याओं के विश्लेषक नानी पालखीवाला की इस महत्वपूर्ण कृति में वर्तमान भारत की विविध राजनैतिक, संवैधानिक, आर्थिक समस्याओं पर गहराई और गंभीरता से विचार करके उनके समाधान प्रस्तुत किये गये हैं। उन्होंने अयोध्या, कानून और न्याय, विविध राज्यों में राज्यपालों के व्यवहार, राष्ट्रपति के चुनाव आदि से लेकर इक्कीसवीं शताब्दी में भारत की रूपरेखा तक अनेक प्रश्नों को उठाया और उनका विश्लेषण किया है। कुछ महत्वपूर्ण व्यक्तियों पर बेबाक टिप्पणियां की हैं-यदि वे प्रशंसा योग्य हैं तो प्रशंसा और आलोचना के योग्य हैं तो आलोचना।
आज राजनैतिक रूप से तेजी से जाग्रत हो रहे सभी नागरिकों के लिए यह विचारोत्तेजक पुस्तक आवश्यक ही नहीं, महत्वपूर्ण कृति है।

नानी पालखीवाला की यह पुस्तक भारतीय राजनीति, अर्थनीति कानून, समाज तथा समय-समय पर उठने वाले महत्वपूर्ण राष्ट्रीय विषयों पर, सटीक विश्लेषण के साथ, उनके प्रखर विचार व्यक्त करती है। वे तीखी चोट करने वाली आलोचना के साथ साथ अनेक विषयों के समाधान प्रस्तुत करते हैं और भारत के उठ खड़े होने में अपना विश्वास व्यक्त करते हैं। आर्थिक रूप से वे देश को एक सोया हुआ दैत्य मानते हैं, जिसने निद्रा की लंबी रात के बाद अब अंगड़ाई लेना शुरू कर दिया है। वे प्राचीन सांस्कृतिक मूल्यों के प्रबल समर्थक हैं, जिनमें ज्योतिष भी शामिल है-जिसकी सच्चाई के अनेक उदाहरण उन्होंने प्रस्तुत किये हैं।

उन्होंने जो भी विषय उठाया है उसे बड़ी स्पष्टता और सरलता से व्यक्त किया है- अक्सर वे चुटकियां भी काटते जाते हैं, जो गंभीर से गंभीर समीक्षा को एकदम बोधगम्य बना देती हैं।
देश की गहराती जा रही समस्याओं से चिंतित सभी जागरूक व्यक्तियों के लिए यह विचारोत्तेजक पुस्तक अवश्य पठनीय है।

भूमिका

क्या हम स्वयं अपने भाग्य-विधाता हैं ?

इस पुस्तक में मेरे पिछले दस वर्षों के व्याख्यानों तथा लेखों को संपादित कर प्रस्तुत किया गया है। इसमें विविध सामयिक विषयों पर मेरे विचार उभरकर आए हैं परंतु मेरा विश्वास है कि इनमें व्यक्त कुछ विचारों का दोहराव भी जहां-तहां स्वाभाविक रूप से हुआ होगा।

मैलकम मगरिज के शब्दों में मनुष्य की कोई भी ऐसी पीढ़ी नहीं हुई जिसे खुशहाली प्राप्त करने के अवसर न प्राप्त हुए हों, परंतु फिर भी मनुष्य ने सोचते-समझते हुए भी कई बार अनुचित आचरण किया है। उसने व्यवस्था के स्थान पर अव्यवस्था को अपनाया, स्थिरता के बजाय अस्थिरता को स्वीकारा और जीवन, रचनात्मकता तथा प्रकाश के स्थान पर मृत्यु, विध्वंश तथा अंधकार के मार्ग पर अग्रसर हुआ। वर्तमान दशक आर्थिक विषयों पर बीते हुए दशक की श्रेणी में तो नहीं रखा जा सकता और यह श्रेष्ठतर नेतृत्व तथा सामाजिक एकता का द्योतक है। जिन तीन तथ्यों से मैं सदा चकित होता रहा हूँ और जिनका साक्ष्य इस पुस्तक में छपे हुए पन्नों में दर्ज है, वे है,-इस भूमंडल के एक अत्यंत प्रबुद्ध राष्ट्र पर सत्तारूढ़ होते हुए भी शासन की अक्षमता, परंपरागत रूप से आध्यात्मिक होते हुए भी राष्ट्र का अथाह पतन, तथा हमारे पिछड़े सीधे-सादे ईमानदार तथा निर्धन जन समुदाय की अद्भुत सहन-शक्ति। इन्हीं कारणों से हमें प्राचीन भारतीय संस्कृति के उस सिद्धांत में विश्वास करना पड़ता है, जिसके अनुसार कर्म का सिद्धान्त केवल व्यक्ति पर ही नहीं, बल्कि सामूहिक रूप से समुदायों, राष्ट्रों तथा विभिन्न जातियों पर भी लागू होता है, जिसका व्यक्ति स्वाभाविक रूप से एक भाग है।

अब मेरे मन-मास्तिष्क में केवल एक ही विषय है कि मैं अपनी आत्मकथा लिख दूँ। इसमें मैं अपने जीवन की कुछ ऐसी घटनाएं दर्ज करना चाहूँगा जिनकी विवेक तथा विज्ञान द्वारा व्याख्या नहीं की जा सकती। यहां मैं कुछ ऐसी घटनाओं के विषय में चर्चा करना चाहता हूँ जिनके लिए मेरा मजाक भी उड़ाया जा सकता है।

मेरा विश्वास है कि व्यक्ति तथा राष्ट्र का एक आधारभूत ढांचा होता है। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो अपनी आत्मशक्ति से पूर्वनिर्धारित घटनाओं का अवलोकन कर सकते हैं। यह ज्ञान कुछ अत्यंत संवेदनशील व्यक्तियों तक किस प्रकार पहुंचता है, इसकी कोई वैज्ञानिक व्याख्या नहीं है। स्वतंत्र इच्छा-शक्ति का अस्तित्व तो है पर वह भी एक निर्धारित दायरे में काम करती है। इसकी तुलना हम उस कुत्ते से कर सकते हैं जो जंजीर में बंधा हुआ होने के कारण केवल जंजीर की लंबाई तक ही चल-फिर सकता है, उससे आगे नहीं जा सकता।

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