उपन्यास >> शहर गवाह है शहर गवाह हैरूप सिंह चंदेल
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शहर गवाह है उपन्यास खुले ज़ेहन और चाक-चौबन्द दृष्टि के साथ मुकम्मल तरीके से लिखा गया है...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
रूपसिंह चन्देल की सृजनात्मक क्षमता के जो लोग कायल हैं, उन्हें यह बख़ूबी
पता है कि जीवन को काफी करीब से देखने और समय की नब्ज़ को टटोलने का उनका
नज़रिया नितान्त मुनफ़रिद है। उनकी कलम बेलाग और बेलौस सफ़े-क़रतास पर
चलती है, बिना यह जाने-बूझे कि इससे कितने का ज़िगर ज़ख़्मी होगा या कितने
का मौन भंग। उनकी कलम तो बस सूरज की किरणों की तरह साफ़-सफ्फ़ाक सच
उड़ेलती चलती है। उनकी चर्चा भले ही कथित विमर्शों के केन्द्र में न हो,
लेकिन सामान्य पाठक को उनकी ताजा रचना का बेसब्री से इन्तजार रहता है,
क्योंकि बकौल युवा आलोचक डॉ. ज्योतिष जोशी—‘‘उनकी कहानियाँ जीवन के गहरे कशमकश की उपज हैं तो उपन्यास देख लिए और महसूस किये गये समय से
साक्षात्कार।’’ उनकी प्रकाशित कृतियों को
सरे-फ़ेहरिस्त लाने की ज़रूरत भी नहीं, बावजूद इतना जिक्र करना लाज़िमी है
कि जिन्होंने उनके ‘रमला बहू,’ ‘पाथर
टीला’ और ‘नटसार’ उपन्यास पढ़े हैं या उनकी
कहानियाँ पढ़ रखी हैं वे इस बात से भली-भाँति वाक़िफ़ हैं कि चन्देल जी
में शुरुआत से ही एक ऐसा लेखक मौजूद रहा है, जिसे अपनी बात सामान्य पाठक
तक पहुँचाने के निमित्त किसी भी तरह का आडम्बर रचने की आवश्यकता नहीं
पड़ती, न ही किसी भी तरह का जोखिम उठाने में उन्हें कभी कोई गुरेज रहा है।
शायद यही वजह है कि कहीं-कहीं ऊबाऊ लग रहे तथ्यों और प्रसंगों को भी वह
बेहद सलीक़े के साथ पाठक से पढ़वा लेते हैं तथा मनवा लेते हैं।
चन्देल महज लिखने भर के लिए नहीं लिखते। समाज में व्याप्त गन्दगी, विद्रूपताओं, विसंगतियों तथा विडम्बनाओं के साथ सामंजस्य बिठा पाना जब उन्हें दुष्कर लगता है, जब उनका संवेदनशील मन ठौर-ठौर आहत होता है, घटनाएँ, पात्र या कोई प्रसंग उन्हें बार-बार उद्वेलित करता है तब वह काग़ज़—कलम की जुगलबन्दी करने लगते हैं.....आन्तरिक पीड़ा को शब्दबद्ध करते हैं। राग-विराग को स्वर देते हैं। जीवन स्थितियों से उनकी सम्पृक्तता हर पंक्ति में दिखलाई पड़ती है। उनकी हर रचना की तरह प्रस्तुत उपन्यास ‘शहर गवाह है’ भी खुले ज़ेहन और चाक-चौबन्द दृष्टि के साथ मुकम्मल तरीके से लिखा गया है। ऑस्कर वाइल्ड के शब्दों में कहूँ तो ‘अच्छी पुस्तक है, क्योंकि यह अच्छी तरह लिखी गयी है।’ इन अर्थों में यह एक महत्त्वपूर्ण उपन्यास है।
चन्देल महज लिखने भर के लिए नहीं लिखते। समाज में व्याप्त गन्दगी, विद्रूपताओं, विसंगतियों तथा विडम्बनाओं के साथ सामंजस्य बिठा पाना जब उन्हें दुष्कर लगता है, जब उनका संवेदनशील मन ठौर-ठौर आहत होता है, घटनाएँ, पात्र या कोई प्रसंग उन्हें बार-बार उद्वेलित करता है तब वह काग़ज़—कलम की जुगलबन्दी करने लगते हैं.....आन्तरिक पीड़ा को शब्दबद्ध करते हैं। राग-विराग को स्वर देते हैं। जीवन स्थितियों से उनकी सम्पृक्तता हर पंक्ति में दिखलाई पड़ती है। उनकी हर रचना की तरह प्रस्तुत उपन्यास ‘शहर गवाह है’ भी खुले ज़ेहन और चाक-चौबन्द दृष्टि के साथ मुकम्मल तरीके से लिखा गया है। ऑस्कर वाइल्ड के शब्दों में कहूँ तो ‘अच्छी पुस्तक है, क्योंकि यह अच्छी तरह लिखी गयी है।’ इन अर्थों में यह एक महत्त्वपूर्ण उपन्यास है।
सैय्यद शहरोज़ क़मरॉ
सुशील सिद्धार्थ द्वारा इंडिया न्यूज में ७ जून २००८ को प्रकाशित समीक्षा में दी गई टिप्पणी।
शहर गवाह है
रूपसिंह चन्देल एक लंबे समय से कथा साहित्य में सक्रिय हैं. उनके उपन्यास
‘‘रमला बहू’, ‘पाथर
टीला’, ‘नटसार’ पाठकों द्वारा सराहे जा
चुके हैं. ‘शहर गवाह है’ रूप सिंह चन्देल का वृत्तांत
हबुल उपन्यास है. उपन्यास को लेखक ने रचते हुए ध्यान रखा है कि राधे या
राधिका बाबू की जीवन गाथा के बहाने उस समय और समाज को भी रेखांकित किया जा
सके जो इस जीवन गाथा में समाया है. लेखक ने आजादी की लड़ाई के दिनों से
लेकर २००१ तक का काल विस्तार कथा में समेटा है. जसवंत नगर के ग्रामीण
प्ररिवेश से प्रारंभ होकर ‘शहर गवाह है’ की कथा
‘कोठी ठाकुरान’ के ‘कोठी इस्माइल
खां’ में बदलने तक पहुंचती है. निर्मला और समरबहादुर के बेटे
राधे का वृत्तांत मुख्य है. उपन्यास में उपाख्यानों की अच्छी उपस्थिति है.
लेखक ने पुरानी विवरणधर्मी पद्धति का अनुसरण करते हुए नायक के विद्यार्थी
जीवन से उसकी मृत्यु तक का रोचक वृत्तांत प्रस्तुत किया है.
रूप सिंह चन्देल का उपक्रम यह है कि तमाम पात्रों के द्वारा एक क्षत्र विशेष के इतिहास और वर्तमान को खंगाला जाए. उपन्यास एक किसान के बेटे की पढ़ाई, क्रांतिकारी गतिविधियों में उसकी रुचि, फिर वकालत, परिवार और दुनियादारी में; उसकी परिणति पर केंद्रित है. पांच भागों में विभक्त इस उपन्यास का पूर्वार्द्ध पर्याप्त रोचक है. बाद में यह एक शुद्ध फेमिली ड्रामा बनकर रह जाता है. जिसमें हिन्दू-मुस्लिम एकता, स्त्री विमर्श बाजारवाद और नियति के कुचक्र सब कुछ की आवाजाही है. काश, रूपसिंह चन्देल इसे भी क्रांतिकारी रहे राधिका बाबू की स्वतंत्र भारत में विडंबनात्मक परिणति पर फोकस करते. उनके पास कथा को व्यक्त करने के सारे उपकरण हैं. उपन्यास के पूर्वार्द्ध में वे बड़ी सहजता और कुशलता से आजादी की लड़ाई और इसके क्रांतिकारी संदर्भों को कथा में घुलाते हैं. कानपुर और उसके आसपास के इलाकों का प्रतिरोधी चरित्र रेखांकित करते हैं. राधिकारमण सिंह (राधे) डीएवी कालेज कानपुर में पढ़ता है और उसकी मुलाकात चन्द्रशेखर आजाद से अनायास होती है. कानपुर में आजादी की लड़ाई का औपन्यासिक उपयोग करते हुए लेखक ने निश्चित रूप से कुछ अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रसंग उपस्थित किए हैं.
रूप सिंह चन्देल का उपक्रम यह है कि तमाम पात्रों के द्वारा एक क्षत्र विशेष के इतिहास और वर्तमान को खंगाला जाए. उपन्यास एक किसान के बेटे की पढ़ाई, क्रांतिकारी गतिविधियों में उसकी रुचि, फिर वकालत, परिवार और दुनियादारी में; उसकी परिणति पर केंद्रित है. पांच भागों में विभक्त इस उपन्यास का पूर्वार्द्ध पर्याप्त रोचक है. बाद में यह एक शुद्ध फेमिली ड्रामा बनकर रह जाता है. जिसमें हिन्दू-मुस्लिम एकता, स्त्री विमर्श बाजारवाद और नियति के कुचक्र सब कुछ की आवाजाही है. काश, रूपसिंह चन्देल इसे भी क्रांतिकारी रहे राधिका बाबू की स्वतंत्र भारत में विडंबनात्मक परिणति पर फोकस करते. उनके पास कथा को व्यक्त करने के सारे उपकरण हैं. उपन्यास के पूर्वार्द्ध में वे बड़ी सहजता और कुशलता से आजादी की लड़ाई और इसके क्रांतिकारी संदर्भों को कथा में घुलाते हैं. कानपुर और उसके आसपास के इलाकों का प्रतिरोधी चरित्र रेखांकित करते हैं. राधिकारमण सिंह (राधे) डीएवी कालेज कानपुर में पढ़ता है और उसकी मुलाकात चन्द्रशेखर आजाद से अनायास होती है. कानपुर में आजादी की लड़ाई का औपन्यासिक उपयोग करते हुए लेखक ने निश्चित रूप से कुछ अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रसंग उपस्थित किए हैं.
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