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प्रथम और अंतिम मुक्ति

जे. कृष्णमूर्ति

प्रकाशक : राजपाल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6418
आईएसबीएन :9788170287520

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कृष्णमूर्ति की शिक्षाओं के सघन अध्ययन में एक और आयाम जुड़े, इसी अभिप्राय से यह संस्करण प्रस्तुत है...

Pratham Aur Antim Mukti

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रथम और अंतिम मुक्ति में जे. कृष्णमूर्ति की अंतर्दष्टियों का व्यापक व सारगर्भित परिचय तथा उनमें सहभागिता का चुनौती-भरा निमंत्रण प्राप्त होता है। कृष्णमूर्ति की शिक्षाओं के विविध सरोकारों का समावेश इस पुस्तक में उपलब्ध है जो अंग्रेज़ी पुस्तक द फर्स्ट एंड लास्ट फ्रीडम का अनुवाद है। इस पुस्तक का प्रकाशन 1954 में हुआ था लेकिन आज भी यह पुस्तक कृष्णमूर्ति की सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली पुस्तकों में से एक है।
कृष्णमूर्ति की शिक्षाओं के सघन अध्ययन में एक और आयाम जुड़े, इसी अभिप्राय से यह संस्करण प्रस्तुत है।

प्राक्कथन

मनुष्य एक उभयधर्मी प्राणी है जो एक साथ दो विश्वों में रहता है एक विश्व तो वह है जो प्रकृति से मिला हुआ है, जो पदार्थ, जीवन और चेतना का विश्व है; और दूसरा मनुष्य द्वारा रचित प्रतीकों का विश्व है। अपनी प्रक्रिया में हम भाषात्मक, गणितीय, चित्रात्मक, संगीतात्मक, कर्मकांड संबंधी एवं अन्य विभिन्न प्रकार की प्रतीक-प्रणालियों का प्रयोग करते हैं। इस प्रकार की प्रतीक-प्रणालियों के अभाव में न केवल कला, विज्ञान, विधि अथवा दर्शन ही असंभव होते, बल्कि हमारी सभ्यता का आरंभ ही नहीं हो पाता। दूसरे शब्दों में कहें तो हम पशु मात्र ही रह जाते। तो प्रतीक अपरिहार्य हैं। परन्तु जैसा कि हमारे अपने युग तथा दूसरे युगों के इतिहास से भली-भाँति स्पष्ट होता है, ये प्रतीक घातक भी हो सकते हैं। उदाहरणार्थ, एक ओर विज्ञान तथा दूसरी ओर राजनीति एवं धर्म के क्षेत्र पर विचार कीजिए। एक वर्ग के प्रतीकों की शब्दावली में विचार करके तथा उनके अनुसार चल कर हम अब किसी सीमा तक प्रकृति की मूलभूत शक्तियों को समझ पाए हैं तथा उन पर नियंत्रण कर पाए हैं। दूसरे वर्ग के प्रतीकों की शब्दावली में विचार करके तथा उनके अनुसार क्रिया करके हम इन्हीं शक्तियों का प्रयोग नरसंहार एवं सामूहिक आत्महत्या के लिए करते हैं। पहले वर्ग में व्याख्यात्मक प्रतीकों का सोच-विचार कर चयन भली-भांति विश्लेषण किया गया एवं भौतिक अस्तित्व के उद्घाटित होने वाले तथ्यों के साथ उनका उत्तरोत्तर सामंजस्य किया गया। दूसरे वर्ग के प्रतीकों का चयन दोषपूर्ण रहा, उनका सभी-भी ठीक से विश्लेषण नहीं हुआ और मानव अस्तित्व के उद्घाटित होने वाले तथ्यों के साथ सामंजस्य करने के लिए उनको कभी-भी पुन: प्रतिपादित नहीं किया गया। यही नहीं, भ्रम पैदा करने वाले इन प्रतीकों को सर्वत्र एक ऐसा सम्मान दिया गया जो सर्वथा अनुचित था, मानो किसी रहस्यमय ढंग से वे उन वास्तविक हों जिनकी ओर उन्होंने संकेत किया था। धर्म एवं राजनीति के संदर्भों में, वस्तुओं एवं घटनाओं का यथोचित निर्देश शब्द नहीं कर पाए, बल्कि हुआ यह कि वस्तुओं एवं घटनाओं को ही शब्दों के विशेष दृष्टांतों के रूप में माना जाने लगा।

अब तक प्रतीकों का यथार्थवादी ढंग से प्रयोग केवल उन क्षेत्रों में हुआ है, जिन्हें हम सर्वाधिक महत्त्व का नहीं समझते। ऐसी सभी परिस्थितियों में, जिनका हमारी अपेक्षाकृत गहन प्रेरणाओं से संबंध है, हमने प्रतीकों पर ज़रूरत से ज़्यादा ज़ोर दिया है; न केवल यह प्रयोग अवास्तविक ढंग से हुआ है, बल्कि हमने इसमें प्रतीक-पूजकों की सी श्रद्धा बना ली है और पागलपन की हद तक चले गए हैं। परिणाम यह हुआ कि जिन कामों को पशु थोड़े ही समय के लिए, और वह भी क्रोध, वासना अथवा भय की चरम अवस्था में किया करते हैं, हम प्रतीकों का प्रयोग करते हैं और उनकी उपासना करते हैं, वे आदर्शवादी बन सकते हैं; और आदर्शवादी हो जाने के कारण वे पशु में बीच-बीच में दिखने वाली लालसाओं को किसी रोड्स अथवा जे.पी. मॉर्गन के भव्य साम्राज्यवादों में बदल सकते हैं; दूसरों को भयाभिभूत करने की पशु में बीच-बीच में दिखने वाली प्रवृत्ति को स्टालिनवाद में अथवा स्पेन के ईसाई जांच-न्यायालय, इंक्वीज़ीशन कर सकते हैं; अपने इलाके के प्रति पशु में प्राय: दिखने वाली आसक्ति को राष्ट्रवाद के सुनियोजित उन्माद में बदल सकते हैं।
यह सौभाग्य ही है कि हम पशु में कभी-कभी होने वाली दयालुता को भी किसी एलिजाबेध फ्राई अथवा विसेंट डी पाल की जीवन-पर्यत दीनवत्सलता में बदल सकते हैं; और इसी प्रकार अपने जीवन-संगी एवं अपनी संतानों के प्रति पशु में होनेवाली निष्ठा को एक अलग तरह के विनाशकारी आदर्शवाद के परिणामों से विश्व की रक्षा करने में अपने को समर्थ सिद्ध किया है। क्या इससे विश्व की सदा इस प्रकार रक्षा हो पाएगी ? इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया जा सकता। हम बस इतना ही कह सकते हैं कि राष्ट्रवादी आदर्शवादियों के पास अणु बम हो जाने से सहयोग एवं उदारता के आदर्श को मानने वालों का पलड़ा एकदम से हल्का पड़ गया है।

पाकविद्या की सर्वोत्तम पुस्तक भी खराब-से-खराब भोजन की जगह नहीं ले सकती, विद्वान एवं धर्मशास्त्री अपनी शुद्ध शाब्दिक रचनाओं के तथ्यों से एकरूप समझने की निरंतर भूल करते रहे हैं; यही नहीं इससे भी भयंकर भूल उनकी यह कल्पना रही है कि प्रतीक किसी-न-किसी प्रकार उससे अधिक यथार्थ है जिसकी ओर संकेत करता है। उनकी इस शब्दोपासना की आलोचना भी हुई है। सेंट पॉल ने कहा है, ‘‘केवल आत्मा ही प्राण देती है; शब्द तो प्राण को हरने वाला है।’’ ऐकहार्ट का प्रश्न है, ‘‘और क्यों ईश्वर का प्रलाप करते हैं ? आप जो ईश्वर के विषय में कहेंगे वह असत्य होगी।’’ विश्व के दूसरे सिरे पर, महायान सूत्रों के एक रचयिता का प्रतिपादन है, ‘‘यह देखकर कि सत्य का आपको अपने भीतर ही साक्षात्कार करना होता है, बुद्ध ने कभी-भी सत्य का उपदेश नहीं दिया।’’ ऐसे कथन बेहद विध्वंसक माने गए और प्रतिष्ठित वर्ग ने उनकी उपेक्षा की प्रतीकों एवं आदर्श-चिह्नों को अतिशय श्रद्धा से देखा जाना तथा उन्हें आवश्यकता से अधिक गौरव दिया जाना बना रहा और उसे रोका न गया। धर्मों का पतन हो गया; परन्तु विश्वासों को प्रतिपादित करने का रूढ़ प्रतिपादनों में विश्वासों को लादने का वह पुराना अभ्यास बना ही रहा, यहां तक कि अनीश्वरवादियों में भी।

इधर के वर्षों में तर्कशास्त्रियों तथा शब्दाविदों ने उन प्रतीकों का बड़ा गंभीर विश्लेषण किया है जिनकी शब्दीवली में मनुष्य विचार करता है। भाषाशास्त्र एक विज्ञान बन गया है; यही नहीं आज वह विषय भी पढ़ा जा सकता है जिसे स्वर्गीय बेंजामिन वोर्फ ने अधिभाषाविज्ञान की संज्ञा दी है। यह सब है तो बहुत अच्छा, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। तर्कशास्त्र हो या शब्दार्थविज्ञान, भाषाशास्त्र हो या अधिभाषाविज्ञान-ये विशुद्ध बौद्धिक शास्त्र हैं। सह अथवा गलत, सार्थक अथवा निरर्थक, ये उन अनेक प्रणालियों का विश्लेषण करते हैं जिनके अतंगर्त वस्तुओं प्रक्रियाओं एवं घटनाओं से शब्दों का संबंध बिठाया जा सकता है। परंतु जहां तक एक ओर मनुष्य की मनोवैज्ञानिक समग्रता का तथा दूसरी ओर उसके दो विश्वों का अर्थात् प्रदत्तों एवं प्रतीकों का संबध हैं, जो कि कहीं अधिक बुनियादी सवाल हैं, वे तमाम शास्त्र हमारे किसी काम के नहीं।

विश्व के प्रत्येक भाग में एवं इतिहास के प्रत्येक युग में व्यक्तिगत रूप से कई पुरुषों तथा स्त्रियों ने बार-बार इस समस्या का समाधान किया है। यहां तक कि इन व्यक्तियों ने जब कभी कुछ कहा अथवा लिखा, उन्होंने किसी विचार-प्रणाली की रचना नहीं की, क्योंकि वे जानते थे कि प्रत्येक विचार-प्रणाली इसके लिए जीता-जागता प्रलोभन है कि प्रतीकों कि आवश्यकता से अधिक महत्त्व दिया जाये, कि तथ्यों-विषयों के स्थान पर उन शब्दों को अधिक महत्त्व दिया जाये जो उनके लिए तय माने जाते हैं। इन व्यक्तियों का यह मकसद कभी-भी न था कि वे कोई पूर्वनिर्धारित व्याख्या या रामबाण औषधि प्रस्तुत करें; वे लोगों को अपनी व्याधियों का स्वयं निदान और उपचार करने के लिए प्रेरित करना चाहते थे; वे मनुष्य को वहां तक ले जाना चाहते थे जहां मनुष्य की समस्याएं तथा उनके समाधान अनुभव के आलोक में उजागर हों।

कृष्णमूर्ति की रचनाओं एवं ध्वन्यंकित वार्ताओं के इस संग्रह में पाठक को मनुष्य की मूलभूत समस्या की एक स्पष्ट समकालीन अभिव्यक्ति मिलेगी, साथ ही उस समस्या का समाधान करने के लिए उसे आमंत्रण मिलेगा, और वह समाधान केवल एक ही है : व्यक्ति अपने लिए स्वयं ही समस्या का समाधान कर सकता है। सामूहिक समाधान जिनसे अनेक व्यक्ति अपनी आस्था जोड़ लेते हैं, कभी भी पर्याप्त नहीं होते। ‘‘उससे क्लेश एवं भ्रांति को समझने के लिए हमें सबसे पहले अपने ही भीतर स्पष्टता को खोजना होगा और वह स्पष्टता सम्यक् चिंतन से आती है। इस स्पष्टता को आयोजित नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसका किसी दूसरे से विनिमय नहीं हो सकता। संगठित सामूहिक विचार तो घिसा-पिटा होता है। स्पष्टता शाब्दिक कथनों से नहीं आती, वह गहरी आत्म-सजगता और सम्यक् चिंतन का परिणाम होती है। सम्यक् चिंतन बुद्धि या उसके पोषण का परिणाम नहीं है और न ही यह किसी आदर्श के साथ तालमेल है, वह आदर्श चाहे जितना महान एवं मूल्यवान क्यों न हो। सम्यक् चिंतन स्व की समझ से आता है। बिना खुद को समझे आपके पास विचार का कोई आधार नहीं है; स्वबोध के अभाव में आप जो सोचेंगे वह सत्य नहीं होगा।’’ यही आधारभूत विषय-वस्तु है जिसका परिच्छेद-दर-परिच्छेद, परत-दर-परत कृष्णमूर्ति ने खुलासा किया है। ‘‘आशा मनुष्यों से है, समाज से, व्यवस्था-तंत्रों से, संगठित धार्मिक प्रणालियों से नहीं, बल्कि आपसे और मुझसे है।’’ संगठित धर्म और उनके बिचौलिये, उनके धर्मशास्त्र, उनके सिद्धान्त, उनकी परम्परा और कर्मकाण्ड इस मूलभूत समस्या का केवल मिथ्या समाधान प्रस्तुत करते हैं, जब आप भगवद्गीता को, बाइबिल को, अथवा किसी चीनी धर्मशास्त्र को उद्धृत करते हैं, तो बेशक आप उसे दोहरा भर रहे हैं। और जिसे आप दोहराते हैं वह सत्य नहीं होता। वह झूठ ही है, क्योंकि सत्य को दोहराया नहीं जा सकता।’’ झूठ का विस्तार किया जा सकता है, उसका प्रतिपादन किया जा सकता है, उसकी आवृत्ति की जा सकती है, परन्तु सत्य के विषय में यह सब मुमकिन नहीं है। और जब आप सत्य को दोहराते हैं, वह सत्य नहीं रहता इसीलिए धर्मशास्त्र अनावश्यक हैं, बेमानी हैं। किसी दूसरे के प्रतीकों में विश्वास द्वारा नहीं, बल्कि स्वबोध के द्वारा ही कोई व्यक्ति उस शाश्वत यथार्थ को स्पर्श कर पाता है जो उसके अस्तित्व का आधार है। यह विश्वास कि कोई प्रदत्त प्रतीक-प्रणाली पूर्णत: उपादेय है तथा उसका परम महत्त्व है, हमें मुक्ति की ओर न ले जाकर इतिहास की ओर यानी उन्हीं प्राचीन विपत्तियों की ओर ही अधिक ले जाता है। ‘‘विश्वास अनिवार्यत: विभाजित करता है। यदि आपका कोई विश्वास है अथवा आप अपने किसी विशिष्ट विश्वास में सुरक्षा ढूंढ़ रहे हैं, तो आप उन व्यक्तियों से अलग पड़ जाते हैं जो किसी दूसरे प्रकार के विश्वास में सुरक्षा खोज रहे हैं। सभी संगठित विश्वास अलगाव पर आधारित हैं, यद्यपि वे भाईचारे का उपदेश देते हैं।’’ जिस व्यक्ति ने प्रदत्तों एवं प्रतीकों के दो विश्वों के साथ अपने संबंध की समस्या का समाधान कर लिया है, वह वही व्यक्ति हो सकता है जो विश्वास से मुक्त है। जहां तक उसके व्यावहारिक जीवन की समस्याओं का संबंध है, वह कार्यवाहक प्राक्कल्पनाओं की श्रृंखला को स्वीकार करता है; वे उसकी आवश्यकताओं को पूरा करती हैं, परन्तु वे प्राक्कल्पनाएं उसके लिए एक माध्यम, एक साधन से अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। अपने साथी प्राणियों के संदर्भ में तथा उस यथार्थ के संदर्भ में जिससे कि वे सब अवस्थित हैं, प्रेम एवं अंतदृष्टि की उस व्यक्ति की अपनी प्रत्यक्ष अनुभूति होती है।

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