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नार्निया की कहानियाँ आर्कनलैंड में शास्ता

सी.एस.लुइस

प्रकाशक : हार्परकॉलिंस पब्लिशर्स इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :292
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6411
आईएसबीएन :978-81-2723-739

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नार्निया....जहाँ घोड़े बात करते हैं...जहाँ धोखाधड़ी पनप रही है...जहाँ नियति इंतज़ार में है...

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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आज़ादी के लिए एक तूफ़ानी दौड़

नार्निया......जहाँ घोड़े बात करते हैं......जहाँ धोखाधड़ी पनप रही है......जहाँ नियति इंतजार में है।

भागमभाग में दो भगोड़े मिलते हैं और साथ हो जाते हैं। जल्द ही वे अपने आप को एक भयानक लड़ाई के बीच पाते हैं। यह वो लड़ाई है जो उनकी किस्मत तय करेगी और खुद नार्निया की भी।

आर्कनलैंड में शास्ता


यही शास्ता के लिए काफ़ी आश्चर्यजनक है कि वह आर्शीश मछुआरे का बेटा नहीं है। पर जब बोलनेवाला घोड़ा ब्री, उसे कैलरमॅन की क्रूर सरज़मी से उड़ा ले जाता है तो शास्ता खुद को एक नए एडवेंचर के बीच पाता है।

वे भेस बदलकर ताश्बान शहर से निकल, डरावनी कब्रों से आगे, तपते दिन और चाँदनी रात में निष्ठुर रेगिस्तान के पार, आर्कनलैंड के ऊँचे पहाड़ों पर पहुँचते हैं। जब नार्निया नज़र आने लगा है, शास्ता जानता है कि उसे अपने अंदर के डर से जीतना होगा। ‘‘अगर तुम अब कायरों की तरह पीछे हटे,’’ वह अपने आप से कहता है, ‘‘तो तुम अपनी ज़िन्दगी की हर लड़ाई में पीछे रह जाओगे। इसलिए अभी या कभी नहीं !’’

नार्निया की कहानियों का यह तीसरा जोश भरा किस्सा है।

कैसे शास्ता निकला अपनी यात्रा पर


यह कहानी एक ऐसे रोमांच की है जो नार्निया और कैलरमॅन और उनके बीच की जमीनों पर स्वर्ण युग में हुआ, जब पीटर नार्निया में तेजस्वी राजा था, और उसका भाई और उसकी दो बहनें उसके अधीन राजा और रानियाँ थे। उन दिनों कैलरमॅन के दक्षिण में, समुद्र की एक छोटी-सी सँकरी खाड़ी में, आर्शीश नाम का एक गरीब मछुआरा रहता था और उसके संग रहता था एक लड़का जो उसे पिता बुलाता था। लड़के का नाम शास्ता था। लगभ़ग रोज़ सुबह आर्शीश अपनी नाव में मछलियाँ पकड़ता। फिर दोपहर में वह अपने गधे को ठेले में जोत, उन मछलियों को भर गाँव में बेचने जाता था। अगर अच्छी बिक्री होती तो वह थोड़ा अच्छे मिज़ाज में घर आता था और शास्ता को कुछ नहीं कहता था, पर अगर बिक्री अच्छी नहीं होती तो वह शास्ता में कोई न कोई ग़लती निकालता और उसे मारता भी। शास्ता का काम इतना ज्यादा था कि कोई न कोई गड़बड़ हो ही जाती थी। जाल को ठीक करना, धोना, रात का खाना बनाना और झोंपड़ी की सफाई करना, उसे बहुत से काम करने पड़ते।

शास्ता को दक्षिण में बसे गाँव में कोई दिलचस्पी नहीं थी क्योंकि वह एक दो बार आर्शीश के संग वहाँ गया था और वहाँ उसे कुछ भी मज़ेदार नहीं लगा था। गाँव में वह अपने पिता जैसे ही कई आदमियों से मिला था-लम्बे, मैले कपड़ों वाले आदमी जिनके लकड़ी के जूते नोक से मुड़े होते थे और उनके सिर पर पगड़ियाँ, और उनकी दाढ़ियाँ होती थीं और वे आपस में दबी आवाज़ों में नीरस चीजों के बारे में बाते करते थे। पर उसे उत्तर की ओर की सभी चीजों में दिलचस्पी थी क्योंकि कोई कभी भी उस ओर नहीं जाता था और उसे भी वहाँ जाना मना था। जब कभी वह बाहर बैठ, जालों को सिलकर ठीक करता तो वह अक़्सर उत्सुकता से उत्तर की ओर देखा करता। घास से ढकी पहाड़ी ज़मीन और आसमान में कुछ पक्षियों के अलावा उसे वहाँ कुछ नहीं दिखाई देता था।

कभी, जब आर्शीश से बात होती तब शास्ता पूछता, ‘‘पापा, उस पहाड़ी के आगे क्या है ?’’ अगर मछुआरा गुस्से में होता तो शास्ता को थप्पड़ लगाकर अपने काम पर ध्यान देने के को कहता। अगर वह शान्त होता तो कहता, ‘‘मेरे बेटे, अपने दिमाग़ को बेकार के सवालों से परेशान मत कर। किसी ने कहा है काम पर ध्यान देना खुशहाली का मंत्र है। जो लोग फालतू के सवाल पूछते हैं, वो अपनी ग़लतियों की नौका ग़रीबी की चट्टान की ओर मोड़ लेते हैं।’’

शास्ता ने सोचा की पहाड़ी के पार ज़रूर ऐसा कोई मजे़दार रहस्य है जिसको उसके पिता उससे छुपाना चाहते हैं। लेकिन सच तो ये था कि मछुआरे को पता नहीं था उत्तर में क्या है। उसे इसकी परवाह ही न थी। उसका दिमाग सिर्फ मोटे कामकाज में लगता था।

एक दिन दक्षिण से एक ऐसा अजनबी आया जैसा शास्ता ने पहले कभी नहीं देखा था। वह एक ताकतवर चित्तीदार घोड़े पर सवार था, जिसकी गर्दन और पूंछ के बाल लहरा रहे थे और जिसकी रक़ाब और लगाम में चाँदी की नक्काशी थी। उसकी रेशमी पगड़ी के बीच में से उसके हेलमेट की नुकीली चोंच निकल रही थी और उसने जंज़ीरों का कवच पहन रखा था।

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