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नातूर

कृष्ण बिहारी

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6407
आईएसबीएन :81-7902-015-0

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जीवन के जिस रूप और परिदृश्य को पिछले कई वर्षों से देखा जा रहा है, ये कहानियाँ उसी की उपज हैं। क्रूर कहें, नग्न कहें, हक़ीक़त कहें या सचाई। जो चाहें नाम दें मगर खुद के लिए यह तो कदापि न कहें कि ऐसा तो होता नहीं।

Natoor

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

एक थी धरती, एक था आसमान

कल्वरल फाउण्डेशन की सीढ़ियों पर जिस वक्त अँधेरा उतर रहा था ठीक उसी वक्त उसके दाएँ-बाएँ लगे यूक्लिप्टस की फुनगियों पर चाँदनी झूलने लगी थी। पतझर के उस मौसम में लाल बजरी बाली सड़क पर सूखते पत्तों की एक चादर-सी बिछी थी जिस पर चलते हुए जाँन को लग रहा था कि उसने ताजे चमड़े का बना चमरौधा नागरा पहना हुआ है। सिकुड़े पत्ते उसके पाँवों के नीचे आकर फैलते हुए एक अजीब –सी आवाज कर रहे थे। कराहती–सी आवाज।

उसने लॉयब्रेरी जाने के लिए सीढ़ियों से ऊपर दाईं ओर के गलियारे में कदम बढ़ाए। तब तक ट्यूब लाइटें जल चुकी थीं और उनकी नीली और दूधिया रोशनी में गलियारे के टाइल्स का रंग खासा चितकबरा दिखने लगा था। लोग आने शुरू हो गए थे। शाम-छह-साढे छह बजे से इस भवन में आवाजाही बढ़ जाती है और यह गहमागहमी रात के बारह बजे तक बनी रहती है। हर सप्ताह किसी-न-किसी देश से आया हुआ कोई-न-कोई ट्रुप अपने देश की संस्कृति का प्रचार-प्रसार करता नज़र आता है। आजकल हफ्ते भर में शेख्शपीयर के ड्रामों का मंचन चल रहा है। इससे पहले रशियन बैले होता रहा था। जॉन ने जैकेट की दाई जेब से सिगरेट का पैकेट निकालकर एक सिगरेट ओठों में दबा ली। उसने सिगरेट सुलगाई नहीं। पता नहीं क्यों, आजकल वह सिगरेट को बहुत देर तक ओठों में दबाए रहता है। सुलगाता नहीं। उस समय उसकी उंगलियाँ बस लाइटर से खेलती रहती हैं। हमेशा गुमसुम-सा दीखने वाला जॉन आजकल बेफिक्र और लापरवाह लगता है। असल में यह उसकी आदत में शुमार हो गया है। पहले वह ऐसा नहीं था। आदतें भी नई-नई सी पड़ जाती हैं। जबसे उसकी मुलाकात दूसरी बार आर्या से हुई है तब से वह उसके द्वारा ही बराबर टोका जाता रहा है, ‘‘क्या हो गया है तुम्हें...? आजकल तुम पहले-से नहीं लगते....’’ कुछ दिन पहले उसने कहा।

‘‘पहले कैसा लगता था...?’’
‘‘पहले भी ऐसे ही थे तुम....भकुवे और घुन्ने...समझे कुछ...’’
‘‘तो ?''
‘‘मैंने ऐसे ही कहा...’’
‘‘तुम ऐसे ही कुछ भी कह सकती हो...?’’
‘‘हाँ....’’ आर्या मुस्कराती है। जान कुछ नहीं बोलता। वह मुस्कराते हुए उसे देखती है।

जॉन ने लॉयब्रेरी में घुसते ही नजर चारों तरफ डाली। खासतौर पर उस ओर जिधर आर्या प्रायः होती हैं। उसे आर्या दिखी नहीं। उसने सोचा की वह आती ही होगी। लॉयब्रेरी में सिगरेट पीना मना है। उसने फिर से पैकेट में रख लिया और एक शेल्प के आगे पड़े रैक से इण्डियन एक्सप्रेस अखबार लेकर पलटने लगा। अखबार की सुर्खियाँ देख लेने के बाद उसे उसने फिर से यथास्थान रखा और एक नज़र चारों ओर फिर फेंकी। आर्या अब तक नहीं आई थी। उसे थोड़ी चिन्ता हुई। कहीं वह दो-तीन दिन अगर न आई और पहले की तरह एक बार फिर सामने धमकती–सी आ खड़ी हुई तो ? उस बार तो वह बोलती ही चली गई। सुनने के अलावा वह करता भी क्या !

जॉन को याद है करीब साल भर पहले पहली बार मिली थी आर्या। वह कल्वरल फाउण्डेशन जाने का आदी था और आर्या पहली बार वहाँ आई थी। उसे लॉयब्रेरी का मेम्बर बनना था और उस वक्त जॉन अकेला था जो एशियन-मुल्कों पर लिखी एक भारी –भरकम किताब के पन्नों में गुमशुदा की हद तक खोया हुआ था जब आर्या ने उसे अपना नाम बताते हुए उसके खुद के गाफिल साम्राज्य में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई, ‘‘हेलो..आई एम ऐन इण्डियन...मेरा नाम आर्या है...वुड यू लाइक टू हेल्प मी प्लीज....?’’

जॉन ने उसे एक नज़र देखा। छब्बीस-सत्ताईस साल की युवती सामने थी। एक पल के लिए उसे यकीन भी नहीं हुआ कि सहायता की कोई उम्मीद उससे की गई है। उसका मन हुआ कि कहे कि अगर आप इंडियन न भी होतीं तो क्या मैं आपकी मदद न करता। लेकिन जब उसे भरोसा हो गया कि बात उससे ही की जा रही है तो उसने कहा था, ‘‘एस ....आपने मुझसे कुछ कहा...?’’

‘‘हाँ, मैंने आपसे ही कुछ कहा...और यहाँ दूसरा कौन है...?’’ आर्या ने पूरी लॉयब्रेरी पर औचक निगाह घुमाते हुए जवाब दिया। जॉन ने भी देखा कि उस समय लॉयब्रेरी में लॉयब्रेरियन और उन दोनों के अलावा और कोई नहीं है। मगर उसके लिए सामने खड़ा पल चौकाने वाला था। बरसों पहले उसने ऐसे पलों को अलविदा कह दिया था। खैर, जॉन को आर्या की कोई बहुत बड़ी मदद नहीं करनी पड़ी थी। वह लॉयब्रेरी की मेम्बरशिप चाहती थी जिसके लिए सीक्योरिटी –डिपॉजिट के साथ उसे एक आदमी की गारण्टी देनी थी जो उसे जानता भी हो। हालांकि जॉन न तो उसे जानता था और न ही आर्या से कभी मुलाकात ही हुई थी फिर भी उसने मेम्बरशिप के उस खाने में साफ-साफ अपना नाम जॉन ऑल्टर और पो.बॉ. नम्बर लिखते हुए पूछा, ‘‘इज इट एनफ...और एनीथिंग एल्स....?’’

‘‘इट इज मोर दैन एनफ मि0 जॉन....’’ आर्या ने कृतज्ञता जताई और जॉन को बताया कि वह इस देश में नई-नई आई है। उसे यहाँ जानने वालों में केवल ऑफिस के ही कुछ लोग हैं लेकिन उनमें से कोई भी कल्चरल फाउण्डेशन की लॉयब्रेरी का मेम्बर नहीं है। इसलिए उसे जान की सहायता लेनी पड़ी। इतना कहकर वह लॉयब्रेरी के बड़े–से हॉल में एक के बाद एक खानों में लगी किताबों और रिफरेंस बुक्स को गहरी निगाहों से देखती आगे बढ़ती हुई। यह एक औपचारिक–सी मुलाकात थी जो बिना किसी पूर्वयोजना के अचानक हुई थी। जॉन उसे धीरे-धीरे, रूकते-चलते लॉयब्रेरी के हॉल में घूमता देखता रहा। पहली दृष्टि में वह उसे उत्तर भारत के किसी प्रदेश की लगी थी। बाद में उसका वह अनुमान गलत निकला।

लॉयब्रेरी की सदस्यता लेने के बाद वह रोज़ शाम को साढे छह-सात तक कल्चरल फाउण्डेशन पहुँच आती। कभी ढीले-ढाले फ्रॉक में जो उसके टखनों तक होता जिससे उसके चंचल पाँव झाँकते-से लगते। उसके लम्बे फ्रॉक की स्लीवलेस बाँहों से जो बाँहें दिखती वे इतनी खूबसूरत लगतीं कि एकाध पलों के लिए जॉन को झटका–सा लगता मगर वह तुरन्त ही अपने को सम्भाल लेता और अपने सिर को ऐसे झटकता कि जैसे उसने किसी बेहद बुरे खयाल को बहुत घृणा के साथ निर्ममतापूर्वक एक पटकनी दे दी हो। बैगी स्टाइल की उस फ्राक से पाँवों और हाथों के अलावा आर्या के जिस्म के जो हिस्से दिखते वे उसे गोराई को धूप में झुलसाए हुए-से प्रतीत होते। यह कहना मुश्किल था कि उसने अपने रंग को खुद ही धूप में झुलसाया है या कि वह कुदरती तौर पर ही टैन कलर की है उसका चेहरा लम्बा था। आँखें सीपियों-सी थीं। बालो का रंग काला था और वे लड़कों की तरह कटे हुए थे। जब वह फ्राक में होती तो कभी बिल्कुल सफेद या फिर काली चप्पलों में होती मगर जब वह सदरीनुमा छोटे ब्लॉउज और कत्थई जींस में आती तो नाइकी के स्पोर्ट्रस जूतों में पूरी टॉम ब्वॉय–सी लगती। उसकी पीठ और पेट के खुले हिस्से एक अजीब–सी कशिश पैदा करते नज़र आते और उसकी नाभि की गहरी गोलाई काँपती होती जिसे देखकर किसी भी पुरूष का मन उसकी थाह लेने के लिए मचल उठता। जॉन जैसा सख्त जान भी पल दो पल के लिए बेचैन होकर हिल उठता और बेताब हो जाता, मगर इन सबके बावजूद एक आभिजात्य और शालीनता भी आर्या में अलग से दिखती थी जो जॉन को कुछ-कुछ अपनी ओर खींचने में सफल हो गयी थी। हालाँकि, वह इसे खुद से नकारता था।

एक तरफ से जॉन उसे कल्चरल फाउण्डेशन में लगभग रोज़ देखने का आदी हो गया था। जिस दिन वह नहीं आ पाती उस दिन तो जॉन की आँखों में एक तलाश छटपटाने लगती। मगर वह कई बार इधर-उधर कुछ तलाशती–सी अपनी नज़रों को ऐसी चेतावनी देता कि उसकी अपनी आँखें सिहर उठतीं। वह आर्या के प्रति शुरू में कतई गम्भीर नहीं हुआ था। यह तो पहली मुलाकात के करीब तीन-चार महीनों के बाद की बात है जब तीन दिन लगातार न आने के बाद वह लायब्रेरी में आते ही सीधे जॉन के पास पहुँची, ‘‘हे...तुम आदमी हो...क्या हो तुम...? क्या समझते हो अपने आपको..? मैं तीन दिनों से नहीं आई...तुमने पता करने की कोशिश की कि मैं जी रहीं हूँ कि मर रही हूँ...आइ वाज सो सिक ऐण्ड एडमिटेड इन द हॉस्पिटल...’’ जॉन के सामने यह बिल्कुल अप्रत्याशित-सी स्थिति थी। वह ऐसे किसी क्षण के लिए न तो तैयार था न ही उसने कभी यह कल्पना ही की थी कि कोई ऐसा पल उसके सामने एक सवाल बनकर गोरखे की तरह हाथ में दुनाली लिए खड़ा होने की हिम्मत कर सकेगा। मगर फिलहाल तो उसके सामने एक अजीबोगरीब सवाल था। और, वह न तो सपना था और न ही कोई सोची-समझी दुनिया। वह चकराया तो ज़रूर मगर खुद को सम्भालते हुए बोला, ‘‘सॉरी ....मुझे नहीं मालूम था कि तुम बीमार थी..’’ वह और क्या बोलता ? वह भी उस लड़की को जिससे उसकी कोई जान-पहचान तो दूर वह शायद उसका नाम भी याद न रख सकी होगी। लेकिन यह जॉन की गलतफहमी थी। आर्या उसके बारे में कुछ-न-कुछ सोचती ज़रूर ही रही थी, हालाँकि, जॉन को अच्छा नहीं लगा कि वह उसे तुम-तुम बोल रही थी। ‘‘तुम्हें कौन बताता...? बोलो...? यह जानकारी तो तुम्हें करनी चाहिए थी... मेरे ऑफिस का तो कोई यहाँ है नहीं..? मैं हरदम सोचती रही कि अगर और कोई नहीं भी आया तो भी तुम ज़रूर पता करोगे मेरे बारे में और ज़रूर आओगे मुझे देखने मगर...तुम भी...’’

जॉन खामोश रहा। वह आर्या से नहीं कह सका कि उसको देखकर उसके भीतर काँटे उगते रहे हैं। और उन काँटों की वजह से उसमें वह सेक्स भी सिर उठाने लगा है जिसे उसने हमेशा के लिए कहीं दफन कर रखा था। वह अपनी पिछली जिन्दगी के किसी अध्याय को तो दूर, उसके किसी पृष्ठ को दुहराने के लिए तैयार नहीं था। उसे कोई अपराध बोध भी नहीं हुआ। ऐसा होने का कोई कारण भी नहीं था। पहली मुलाकात में किसी के लिए लॉयब्रेरी में गारण्टी दे देना किसी सम्बन्ध की शुरूआत हो सकती है। मगर ये सम्बन्ध पुख्ता भी हैं इसका क्या सबूत। खासतौर पर जब जान-पहचान का सिरा केवल एक ‘‘हेलो’’ पर ही शुरू और खत्म हुआ हो तो उसके अगले चरणों के विकसित होने की सम्भावना ही कहीं बची रहती है... फिर जॉन को भी तो ऐसे किसी रिश्ते की ज़रूरत न थी। होती भी रही हो तो भी वह उसे स्वीकारने की स्थिति में नहीं था।
सच तो यह कि उसे डर लगता था। जान–पहचान का सिलसिला तो इस घटना के बाद शुरू हुआ। जब आर्या बोल चुकी तो जॉन ने कहा,’’ ऑयम सॉरी आर्या...मगर मेरे लिए यह कहाँ सम्भव था कि मैं तुम्हारे बारे में कुछ जान पाता...किसी ने मुझ तक सूचना दी होती और फिर यदि मैं तुम तक नहीं पहुँचता तो तुम मुझे दोष दे सकती थी।’’ जॉन ने जो कुछ कहा उससे वह खुद चकित था कि ऐसा कहने की मजबूरी क्या थी।

‘‘तुम चाहते तो पता लगा सकते थे......इट ऑल डिपेंड्स अपॉन इण्टरेस्ट....’’ आर्या के बोलने में एक किस्म का मान झलक रहा था। यह बात जॉन से छिपी न रह सकी। वह चुप हो गया। उसे शायद यह भी अच्छा नहीं लगा कि यह लड़की या औरत जो कोई भी है वह उस पर कुछ ज़्यादा ही हक़ दिखाने की कोशिश कर रही है। इस तरह के हक़-प्रदर्शन को उसने बहुत पहले ही अपनी जिन्दगी से बाहर धकेल दिया था। उसका एक मन तो हुआ कि वह आर्या को साफ-साफ बता दे कि इस तरह के अधिकार-प्रदर्शन उसे अच्छे नहीं लगते। मगर वह चुप ही रहा। एक बात और थी वह यह कि आर्या ने जॉन को अपनी ओर देखता पाकर उसे आँखों-ही-आँखों में विश किया था। उसे यह भी महसूस हुआ कि बीमारी में तीमारदारी न मिल पाने की वजह से चिड़चिड़ाने वाले व्यक्ति से कुछ भी ऐसा-वैसा कहना कटुता बढ़ाने को दावत देना है। उसने उसे ग़ौर से देखा। यह देखना सिर्फ देखना ही नहीं मर्म तक उतरना था। इस समय सामने खड़ी आक्रामक आर्या उसे एक ऐसी भयभीत हिरनी-सी लगी जो अपने समूह या फिर अपने किसी प्रिय से दूर एकदम डरावने-से माहौल में किसी हलके-से भी परिचित को पास पाकर संकट की घड़ी से निज़ात पाती हुई खुद को महफूज़ समझने की ऐसी कोशिश करती है जिसे बचपने के अलावा कोई और संज्ञा नहीं दी जा सकती। वह सीट से उठते हुए बोला, ‘‘ओक्के-अब तुम मुझे डीटेल में बताओ कि तुम्हें क्या हुआ था.....? चलो, हम यहाँ से बाहर ग्राउण्ड की ओर चलते हैं....’’

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