विविध >> 50 क्रांतिकारी 50 क्रांतिकारीराजेन्द्र पटोरिया
|
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देश की स्वतंत्रता के लिए प्राणों की बलि देने वाले क्रांतिकारियों की शौर्य-गाथा...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
क्रांतिकारियों
की जीवन–गाथा और कुरबानी के प्रसंग हमेशा ही प्रेरणा
देते हैं और हमें याद दिलाते हैं कि देश को आज़ादी उसके वीर सपूतों के खून
के बदले मिली है। यह पुस्तक ऐसे ही वीर सपूतों का सचित्र जीवन–परिचय लेकर सामने आई है। वैसे तो देश की आज़ादी में हज़ारों दीवानों ने अपने प्राण गँवाए, लेकिन इस पुस्तक में चुने हुए 50 जीवन-वृत्तांत प्रस्तुत हैं, जिनमें से कुछ ऐसे
विरल नाम हैं, जिन्हें लेखक ने बड़े प्रयत्न से खोजकर उनको प्रामाणिकता के
साथ इस पुस्तक में जोड़ा है।
यह वृत्तांत रोमांचित करते हैं और उस युग को जीवंत बनाकर हमारे सामने लाते हैं, जो देश की स्वतन्त्रता का आधार बना। यह पुस्तक देश के इतिहास की एक धरोहर रचना है, जिसे संजोकर रखा जाना चाहिए। किसी भी देश और जाति की पहचान उसके स्वातन्त्र्यप्रेमी नागरिकों से बनती है। यही लक्ष्य कर किसी कवि ने कहा, ‘वह हृदय नहीं है, पत्थर है जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।’ स्वदेश के प्रति प्यार का उत्कट भाव और उसके प्रति सर्वस्व अर्पण कर देने की बलिदानी भावना के असंख्य उदाहरण विगत डेढ़ सौ सालों के भारत के इतिहास में देखे जा सकते हैं। कहा जा सकता है कि भारत की आज़ादी के लिए 1857 से 1947 के बीच जितने भी प्रयत्न हुए, उनमें स्वतंत्रता का सपना संजोये क्रान्तिकारियों और शहीदों की उपस्थित सबसे अधिक प्रेरणादायी सिद्ध हुई।
प्रस्तुत पुस्तक में सत्तावनी संग्राम की पहली धमक पैदा करने वाले वीर मंगल पाण्डे से शुरू कर आज़ाद हिन्द फौज के सेनापति नेताजी सुभाषचन्द बोस और 1942 की अगस्त क्रान्ति की नेत्री अरूणा आसफ़ अली तक 50 क्रांतिकारियों के प्रेरक जीवन-परिचय दिए गए हैं। अपने विषय के अनुभवी लेखक ने मार्मिक और हृदयग्राही शैली में ये जीवन–परिचय लिखे हैं और प्रत्येक जीवन-परिचय के साथ सम्बद्ध क्रान्तिकारियों के रेखाचित्र भी दिए गए हैं। एक अत्यन्त प्रेरक, पठनीय और संजोकर रखने वाली पुस्तक।
यह वृत्तांत रोमांचित करते हैं और उस युग को जीवंत बनाकर हमारे सामने लाते हैं, जो देश की स्वतन्त्रता का आधार बना। यह पुस्तक देश के इतिहास की एक धरोहर रचना है, जिसे संजोकर रखा जाना चाहिए। किसी भी देश और जाति की पहचान उसके स्वातन्त्र्यप्रेमी नागरिकों से बनती है। यही लक्ष्य कर किसी कवि ने कहा, ‘वह हृदय नहीं है, पत्थर है जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।’ स्वदेश के प्रति प्यार का उत्कट भाव और उसके प्रति सर्वस्व अर्पण कर देने की बलिदानी भावना के असंख्य उदाहरण विगत डेढ़ सौ सालों के भारत के इतिहास में देखे जा सकते हैं। कहा जा सकता है कि भारत की आज़ादी के लिए 1857 से 1947 के बीच जितने भी प्रयत्न हुए, उनमें स्वतंत्रता का सपना संजोये क्रान्तिकारियों और शहीदों की उपस्थित सबसे अधिक प्रेरणादायी सिद्ध हुई।
प्रस्तुत पुस्तक में सत्तावनी संग्राम की पहली धमक पैदा करने वाले वीर मंगल पाण्डे से शुरू कर आज़ाद हिन्द फौज के सेनापति नेताजी सुभाषचन्द बोस और 1942 की अगस्त क्रान्ति की नेत्री अरूणा आसफ़ अली तक 50 क्रांतिकारियों के प्रेरक जीवन-परिचय दिए गए हैं। अपने विषय के अनुभवी लेखक ने मार्मिक और हृदयग्राही शैली में ये जीवन–परिचय लिखे हैं और प्रत्येक जीवन-परिचय के साथ सम्बद्ध क्रान्तिकारियों के रेखाचित्र भी दिए गए हैं। एक अत्यन्त प्रेरक, पठनीय और संजोकर रखने वाली पुस्तक।
भूमिका
सशस्त्र विद्रोह की एक अखण्ड परम्परा है। भारत में अंग्रेज़ी राज्य की
स्थापना के साथ ही सशस्त्र विद्रोह का आरम्भ हो गया था। बंगाल में
सैनिक-विद्रोह, चूआड विद्रोह, संन्यासी विद्रोह, संथाल विद्रोह अनेक
सशस्त्र विद्रोहों की परिणति सत्तावन के विद्रोह के रूप में हुई। प्रथम
स्वातन्त्र्य–संघर्ष के असफल हो जाने पर भी विद्रोहाग्नि
ठण्डी नहीं हुई। शीघ्र ही दस-पन्द्रह वर्षों के बाद पंजाब में कूका
विद्रोह व महाराष्ट्र में वासुदेव बलवंत फड़के के छापामार युद्ध शुरू हो
गए। संयुक्त प्रान्त में पं. गेंदालाल दीक्षित ने शिवाजी समिति और
मातृदेवी नामक संस्था की स्थापना की। बंगाल में क्रान्ति की अग्नि सतत
जलती रही। सरदार अजीतसिंह ने सत्तावन के स्वतंत्रता–आन्दोलन की
पुनरावृत्ति के प्रयत्न शुरू कर दिए। रासबिहारी बोस और शचीन्द्रनाथ
सान्याल ने बंगाल, बिहार, दिल्ली, राजपूताना, संयुक्त प्रान्त व पंजाब से
लेकर पेशावर तक की सभी छावनियों में प्रवेश कर 1915 में पुनः विद्रोह की
सारी तैयारी कर ली थी। दुर्दैव से यह प्रयत्न भी असफल हो गया। इसके भी नए-नए
क्रान्तिकारी उभरते रहे। राजा महेन्द्र प्रताप और उनके
साथियों ने तो अफगान प्रदेश में अस्थायी व समान्तर सरकार स्थापित कर ली।
सैन्य संगठन कर ब्रिटिश भारत से युद्ध भी किया। रासबिहारी बोस ने जापान
में आज़ाद हिन्द फौज के लिए अनुकूल भूमिका बनाई।
मलाया व सिगांपुर में आज़ाद हिन्द फौज संगठित हुई। सुभाषचन्द बोस ने इसी कार्य को आगे बढ़ाया। उन्होंने भारतभूमि पर अपना झण्डा गाड़ा। आज़ाद हिन्द फौज का भारत में भव्य स्वागत हुआ, उसने भारत की ब्रिटिश फौज की आँखें खोल दीं। भारतीयों का नाविक विद्रोह तो ब्रिटिश शासन पर अन्तिम प्रहार था। अंग्रेज़, मुट्ठी-भर गोरे सैनिकों के बल पर नहीं, बल्कि भारतीयों की फौज के बल पर शासन कर रहे थे। आरम्भिक सशस्त्र विद्रोह में क्रान्तिकारियों को भारतीय जनता की सहानुभूति प्राप्त नहीं थी। वे अपने संगठन व कार्यक्रम गुप्त रखते थे। अंग्रेज़ी शासन द्वारा शोषित जनता में उनका प्रचार नहीं था। अंग्रेजों के क्रूर व अत्याचारपूर्ण अमानवीय व्यवहारों से ही उन्हें इनके विषय में जानकारी मिली। विशेषतः काकोरी काण्ड के अभियुक्त तथा भगतसिंह और उसके साथियों ने जनता का प्रेम व सहानुभूति अर्जित की। भगतसिंह ने अपना बलिदान क्रांति के उद्देश्य के प्रचार के लिए ही किया था। जनता में जागृति लाने का कार्य महात्मा गांधी के चुम्बकीय व्यक्तित्व ने किया। बंगाल की सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी श्रीमती कमला दास गुप्ता ने कहा कि क्रांतिकारी की निधि थी कम व्यक्ति अधिकतम बलिदान, महात्मा गांधी की निधि थी अधिकतम व्यक्ति न्यूनतम बलिदान। सन् ’42 के बाद उन्होंने अधिकतम व्यक्ति तथा अधिकतम बलिदान का मंत्र दिया। भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति में क्रांतिकारियों की भूमिका महत्त्वपूर्ण है।
भारतीय क्रांतिकारियों के कार्य सिरफिरे युवकों के अनियोजित कार्य नहीं थे। भारतामाता की श्रृंखला तोड़ने के लिए सतत संघर्ष करने वाले देशभक्तों की एक अखण्ड परम्परा थी। देश की रक्षा के लिए कर्तव्य समझकर उन्होंने शस्त्र उठाए थे। क्रान्तिकारियों का उद्देश्य अंग्रेजों का रक्त बहाना नहीं था। वे तो अपने देश का सम्मान लौटाना चाहते थे। अनेक क्रान्तिकारियों के हृदय में क्रांति की ज्वाला थी, तो दूसरी ओर अध्यात्म का आकर्षण भी। हंसते हुए फाँसी के फंदे का चुम्बन करने वाले व मातृभूमि के लिए सरफरोशी की तमन्ना रखने वाले ये देशभक्त युवक भावुक ही नहीं, विचारवान भी थे। शोषणरहित समाजवादी प्रजातंत्र चाहते थे। उन्होंने देश के संविधान की रचना भी की थी। सम्भवतः देश को स्वतंत्रता यदि सशस्त्र क्रांति के द्वारा मिली होती तो भारत का विभाजन नहीं हुआ होता, क्योंकि सत्ता उन हाथों में न आई होती, जिनके कारण देश में अनेक भीषण समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं।
जिन शहीदों के प्रयत्नों व त्याग से हमें स्वतंत्रता मिली, उन्हें उचित सम्मान नहीं मिला। अनेकों को स्वतंत्रता के बाद भी गुमनामी का अपमानजनक जीवन जीना पड़ा। ये शब्द उन्हीं पर लागू होते हैं:
मलाया व सिगांपुर में आज़ाद हिन्द फौज संगठित हुई। सुभाषचन्द बोस ने इसी कार्य को आगे बढ़ाया। उन्होंने भारतभूमि पर अपना झण्डा गाड़ा। आज़ाद हिन्द फौज का भारत में भव्य स्वागत हुआ, उसने भारत की ब्रिटिश फौज की आँखें खोल दीं। भारतीयों का नाविक विद्रोह तो ब्रिटिश शासन पर अन्तिम प्रहार था। अंग्रेज़, मुट्ठी-भर गोरे सैनिकों के बल पर नहीं, बल्कि भारतीयों की फौज के बल पर शासन कर रहे थे। आरम्भिक सशस्त्र विद्रोह में क्रान्तिकारियों को भारतीय जनता की सहानुभूति प्राप्त नहीं थी। वे अपने संगठन व कार्यक्रम गुप्त रखते थे। अंग्रेज़ी शासन द्वारा शोषित जनता में उनका प्रचार नहीं था। अंग्रेजों के क्रूर व अत्याचारपूर्ण अमानवीय व्यवहारों से ही उन्हें इनके विषय में जानकारी मिली। विशेषतः काकोरी काण्ड के अभियुक्त तथा भगतसिंह और उसके साथियों ने जनता का प्रेम व सहानुभूति अर्जित की। भगतसिंह ने अपना बलिदान क्रांति के उद्देश्य के प्रचार के लिए ही किया था। जनता में जागृति लाने का कार्य महात्मा गांधी के चुम्बकीय व्यक्तित्व ने किया। बंगाल की सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी श्रीमती कमला दास गुप्ता ने कहा कि क्रांतिकारी की निधि थी कम व्यक्ति अधिकतम बलिदान, महात्मा गांधी की निधि थी अधिकतम व्यक्ति न्यूनतम बलिदान। सन् ’42 के बाद उन्होंने अधिकतम व्यक्ति तथा अधिकतम बलिदान का मंत्र दिया। भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति में क्रांतिकारियों की भूमिका महत्त्वपूर्ण है।
भारतीय क्रांतिकारियों के कार्य सिरफिरे युवकों के अनियोजित कार्य नहीं थे। भारतामाता की श्रृंखला तोड़ने के लिए सतत संघर्ष करने वाले देशभक्तों की एक अखण्ड परम्परा थी। देश की रक्षा के लिए कर्तव्य समझकर उन्होंने शस्त्र उठाए थे। क्रान्तिकारियों का उद्देश्य अंग्रेजों का रक्त बहाना नहीं था। वे तो अपने देश का सम्मान लौटाना चाहते थे। अनेक क्रान्तिकारियों के हृदय में क्रांति की ज्वाला थी, तो दूसरी ओर अध्यात्म का आकर्षण भी। हंसते हुए फाँसी के फंदे का चुम्बन करने वाले व मातृभूमि के लिए सरफरोशी की तमन्ना रखने वाले ये देशभक्त युवक भावुक ही नहीं, विचारवान भी थे। शोषणरहित समाजवादी प्रजातंत्र चाहते थे। उन्होंने देश के संविधान की रचना भी की थी। सम्भवतः देश को स्वतंत्रता यदि सशस्त्र क्रांति के द्वारा मिली होती तो भारत का विभाजन नहीं हुआ होता, क्योंकि सत्ता उन हाथों में न आई होती, जिनके कारण देश में अनेक भीषण समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं।
जिन शहीदों के प्रयत्नों व त्याग से हमें स्वतंत्रता मिली, उन्हें उचित सम्मान नहीं मिला। अनेकों को स्वतंत्रता के बाद भी गुमनामी का अपमानजनक जीवन जीना पड़ा। ये शब्द उन्हीं पर लागू होते हैं:
उनकी तुरबत पर नहीं है एक भी दीया,
जिनके खूँ से जलते हैं ये चिरागे वतन।
जगमगा रहे हैं मकबरे उनके,
बेचा करते थे जो शहीदों के कफन।।
जिनके खूँ से जलते हैं ये चिरागे वतन।
जगमगा रहे हैं मकबरे उनके,
बेचा करते थे जो शहीदों के कफन।।
नाविक विद्रोह
के सैनिकों को स्वतंत्र भारत की सेना में अग्रकम देना
न्यायोचित होता, परन्तु नौकरशाहों ने उन्हें सेना में रखना शासकीय नियमों
का उल्लंघन समझा। अनेक क्रांतिकारियों की अस्थियाँ विदेशों में हैं। अनेक
क्रांतिकारियों के घर भग्नावशेष हैं। उनके घरों के स्थान पर आलीशान होटल
बन गए हैं। क्रांतिकारियों की बची हुई पीढ़ी भी समाप्त हो गई है। निराशा में
आशा की किरण यही है कि सामान्य जनता में उनके प्रति सम्मान की
थोड़ी-बहुत भावना अभी भी शेष है। उस आगामी पीढ़ी तक इनकी गाथाएँ पहुँचाना
हमारा दायित्व है। क्रान्तिकारियों पर लिखने के कुछ प्रयत्न हुए
हैं। शचीन्द्रनाथ सान्याल, शिव वर्मा, मन्मथनाथ गुप्त व रामकृष्ण
खत्री आदि ने
पुस्तकें लिखकर हमें जानकारी देने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। इतर
लेखकों ने भी इस दिशा में कार्य किया है। मेरे लेखक को अधिकृत सामग्री
इन्हीं ग्रन्थों ने मुहैया कराई है।
अनेक क्रांतिकारियों में कुछ बहुमूल्य रत्नों से मैंने पुस्तक को सजाया है। इसका अर्थ यह नहीं कि जो इस पुस्तक में नहीं, उनका मूल्य कम है।
सच तो यह है कि अनेक क्रान्तिकारी गुमनाम हैं, इसीलिए उनके मौन बलिदान को कैसे दर्ज किया जा सकता है ? परन्तु हम जानते हैं भारत के ऐसे सपूतों की संख्या ज्ञात क्रांतिकारियों की तुलना में कई गुना है। उन शहीदों को श्रद्धाजंलि। पुस्तक आपके हाथ में है।
अनेक क्रांतिकारियों में कुछ बहुमूल्य रत्नों से मैंने पुस्तक को सजाया है। इसका अर्थ यह नहीं कि जो इस पुस्तक में नहीं, उनका मूल्य कम है।
सच तो यह है कि अनेक क्रान्तिकारी गुमनाम हैं, इसीलिए उनके मौन बलिदान को कैसे दर्ज किया जा सकता है ? परन्तु हम जानते हैं भारत के ऐसे सपूतों की संख्या ज्ञात क्रांतिकारियों की तुलना में कई गुना है। उन शहीदों को श्रद्धाजंलि। पुस्तक आपके हाथ में है।
राजेन्द्र पटोरिया
सत्तावनी संग्राम की पहली धमक
मंगल पाण्डे
मातृभूमि की
बलिवेदी में प्रथम आहुति डालने वाले हैं मंगल पाण्डे।
उन्होंने अपने खून से आज़ादी की सुदृढ़ नींव डाली। मंगल पाण्डे भारतीय
क्रांति के अग्रदूत कहे जाते हैं। अंग्रेजों ने जो अमानुषिक अत्याचार किए
उनकी कहानी अत्यन्त लोमहर्षक है। वस्तुतः गुलामी की विवशता तथा शासकों के
अत्याचार ही तो क्रान्ति की आग जलाते हैं। मंगल पाण्डे अंग्रेज़ी फ़ौज के
एक सिपाही थे-देशभक्त तथा धार्मिक विचारों वाले।
उन दिनों अंग्रेज़ अपने कारतूसों में गाय तथा सूअर की चर्बी और उनके खून का प्रयोग करते थे, जिन्हें सिपाही दाँतों से खोलते थे। हिन्दुओं के लिए जिस प्रकार गाय का मांस खाना पाप माना जाता है, उसी प्रकार मुसलमानों के लिए सूअर का मांस खाना मना है। जब फौज के हिन्दू और मुसलमान सिपाहियों के कानों में यह बात पहुँची तो वे भड़क उठे। उस समय अंग्रेज़ फौजी अधिकारियों ने झूठ बोल कर सिपाही को शान्त करना चाहा तथा उन्हें विश्वास दिलाना चाहा कि बन्दूक के कारतूसों में गाय अथवा सूअर की चर्बी इस्तेमाल नहीं की जाती। इतने पर भी सैनिकों को गो–मांस भक्षी अंग्रेज़ों पर विश्वास नहीं हुआ। विद्रोह तथा असन्तोष की भावना उनके दिलों में पलती तथा बढ़ती रही। इस प्रकार क्रांति पैदा करने वाले अन्य सैकड़ों आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक कारणों में यह एक धार्मिक कारण भी जुड़ गया तथा इन सब कारणों ने मिलकर फिरंगियों के प्रति घृणा, विद्वेष तथा असन्तोष की आग भड़का दी।
इस असन्तोष के कारण मंगल पाण्डे ने 29 मार्च, 1857 को अंग्रज़ों पर पहली गोली चला कर स्वतंत्रता –संग्राम छेड़ दिया। मंगल पाण्डे परम्परानिष्ठ ब्राह्मण थे ही, वे देशभक्त भी थे। इस समय के क्रांतिकारियों ने यों तो भारत-भर में एक साथ तथा एक ही दिन विद्रोह करने की तारीख, 31 मई, निश्चित की थी, किन्तु यह तारीख अभी दूर थी तथा लोगों का असन्तोष इतने दिन तक रूका नहीं रह सकता था। आग का धर्म जलाना है तो असन्तोष का धर्म भड़कना है। उसे बाँधकर नहीं रखा जा सकता। मंगल पाण्डे का असन्तोष फूट पड़ा और उनकी बन्दूक की गोली छूट पड़ी। उन्होंने परिणाम की चिन्ता नहीं की। मंगल पाण्डे बैरकपुर की 19 नम्बर रेजीमेन्ट के एक भावुक तथा जोशीले सिपाही थे। अंग्रेज़ों ने गलती से उस रेजीमेन्ट में वे कारतूस दिए, जिनमें चर्बी लगे होने का सन्देह था। जब सिपाहियों ने उन कारतूसों को हाथ से छूने तक से इन्कार कर दिया तो अधिकारियों ने इसे आज्ञा का उल्लंघन समझा। भावी आशंका के भय से उन्होंने हुक्म दिया कि 19 नवम्बर रेजीमेन्ट के सभी हथियार छीन लिए जाएँ। सिपाहियों ने अपने को अपमानित महसूस किया। मंगल पाण्डे इस प्रकार के किसी भी अपमान को सहन करने के लिए तैयार न थे। यह बात विद्रोह के लिए निश्चित की गई 31 मई की तारीख से कई मास पहले की है। मंगल पाण्डे ने सोचा, ‘जब विद्रोह ही करना है, तब इतनी देर क्यों ? और उन्होंने अपनी तरफ से विद्रोह का बिगुल बजा दिया। उन्होंने अब अपने मुखिया वजीर अली खाँ की परवाह नहीं की, जिनके नेतृत्व में पहले ही से बैरकपुर की रेजीमेन्ट विद्रोह में भाग लेने की शपथ ले चुकी थी।
मंगल पाण्डे को जब यह निश्चय हो गया कि उनकी कुल रेजीमेन्ट को निरस्त्र कर दिया जाएगा तथा उन्हें दबाने के लिए बर्मा से गोरी पलटन बुलाई जा रही है और बहुत–सी तैयारियाँ की जा रही हैं, तो उन्होंने सोचा अब देर करना ठीक नहीं।
उन दिनों अंग्रेज़ अपने कारतूसों में गाय तथा सूअर की चर्बी और उनके खून का प्रयोग करते थे, जिन्हें सिपाही दाँतों से खोलते थे। हिन्दुओं के लिए जिस प्रकार गाय का मांस खाना पाप माना जाता है, उसी प्रकार मुसलमानों के लिए सूअर का मांस खाना मना है। जब फौज के हिन्दू और मुसलमान सिपाहियों के कानों में यह बात पहुँची तो वे भड़क उठे। उस समय अंग्रेज़ फौजी अधिकारियों ने झूठ बोल कर सिपाही को शान्त करना चाहा तथा उन्हें विश्वास दिलाना चाहा कि बन्दूक के कारतूसों में गाय अथवा सूअर की चर्बी इस्तेमाल नहीं की जाती। इतने पर भी सैनिकों को गो–मांस भक्षी अंग्रेज़ों पर विश्वास नहीं हुआ। विद्रोह तथा असन्तोष की भावना उनके दिलों में पलती तथा बढ़ती रही। इस प्रकार क्रांति पैदा करने वाले अन्य सैकड़ों आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक कारणों में यह एक धार्मिक कारण भी जुड़ गया तथा इन सब कारणों ने मिलकर फिरंगियों के प्रति घृणा, विद्वेष तथा असन्तोष की आग भड़का दी।
इस असन्तोष के कारण मंगल पाण्डे ने 29 मार्च, 1857 को अंग्रज़ों पर पहली गोली चला कर स्वतंत्रता –संग्राम छेड़ दिया। मंगल पाण्डे परम्परानिष्ठ ब्राह्मण थे ही, वे देशभक्त भी थे। इस समय के क्रांतिकारियों ने यों तो भारत-भर में एक साथ तथा एक ही दिन विद्रोह करने की तारीख, 31 मई, निश्चित की थी, किन्तु यह तारीख अभी दूर थी तथा लोगों का असन्तोष इतने दिन तक रूका नहीं रह सकता था। आग का धर्म जलाना है तो असन्तोष का धर्म भड़कना है। उसे बाँधकर नहीं रखा जा सकता। मंगल पाण्डे का असन्तोष फूट पड़ा और उनकी बन्दूक की गोली छूट पड़ी। उन्होंने परिणाम की चिन्ता नहीं की। मंगल पाण्डे बैरकपुर की 19 नम्बर रेजीमेन्ट के एक भावुक तथा जोशीले सिपाही थे। अंग्रेज़ों ने गलती से उस रेजीमेन्ट में वे कारतूस दिए, जिनमें चर्बी लगे होने का सन्देह था। जब सिपाहियों ने उन कारतूसों को हाथ से छूने तक से इन्कार कर दिया तो अधिकारियों ने इसे आज्ञा का उल्लंघन समझा। भावी आशंका के भय से उन्होंने हुक्म दिया कि 19 नवम्बर रेजीमेन्ट के सभी हथियार छीन लिए जाएँ। सिपाहियों ने अपने को अपमानित महसूस किया। मंगल पाण्डे इस प्रकार के किसी भी अपमान को सहन करने के लिए तैयार न थे। यह बात विद्रोह के लिए निश्चित की गई 31 मई की तारीख से कई मास पहले की है। मंगल पाण्डे ने सोचा, ‘जब विद्रोह ही करना है, तब इतनी देर क्यों ? और उन्होंने अपनी तरफ से विद्रोह का बिगुल बजा दिया। उन्होंने अब अपने मुखिया वजीर अली खाँ की परवाह नहीं की, जिनके नेतृत्व में पहले ही से बैरकपुर की रेजीमेन्ट विद्रोह में भाग लेने की शपथ ले चुकी थी।
मंगल पाण्डे को जब यह निश्चय हो गया कि उनकी कुल रेजीमेन्ट को निरस्त्र कर दिया जाएगा तथा उन्हें दबाने के लिए बर्मा से गोरी पलटन बुलाई जा रही है और बहुत–सी तैयारियाँ की जा रही हैं, तो उन्होंने सोचा अब देर करना ठीक नहीं।
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लोगों की राय
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