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जीवनी/आत्मकथा >> मेरे हमसफर

मेरे हमसफर

गायत्री कमलेश्वर

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 640
आईएसबीएन :8170285674

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कमलेश्वर की आत्मकथा

Mere Humsafar - A hindi Book by - Kamleshwar मेरे हमसफर - कमलेश्वर

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

मैनपुरी का घर

जब मैं कमलेश्वर जी के बारे में लिखने बैठती हूँ तो मेरे सामने मैनपुरी का पूरा घर सामने घूमने लगता है। वहाँ की धूप, वहाँ की शाम, वहाँ के सर्दियों को दिन... धूप में बैठकर दूध–शकरकन्दी खाना, मसाले के नमक के साथ मूँगफली या अमरूद खाना कितना अच्छा लगता था, अम्मा अपनी गर्म बरोसी में दो-चार शकरकन्दी राख में दबा देती थीं, वह दो एक घंटे में भुनकर सोंधी महक छोड़ने लगती थी,

उन्हीं को छीलकर दूध में डाल देतीं थीं। उन दिनों गाँव से कितने गन्ने आ जाते थे। कभी हम उनको छीलकर खाने लगते थे। कभी अम्मा भुर्जी की दुकान से, जो कि अपनी थी, किराए पर उठी थी, उसी भुर्जी से थैले भर कर मूँगफली मंगा लेती थीं और महरी से कहकर लहसन धनिया की पत्ती डालकर नमक बनवातीं थीं। कभी-कभी रात में बैठकर बरोसी के सामने हम लोग ढेरों मूंगफली उस नमक के साथ खाते थे।

गर्मियों की रातों में अम्मा की बड़ी-सी खटिया आँगन में पड़ जाती थी।, उसी पर अम्मा सोती थीं। हम लोग टीन के नीचे सोते थे। सब याद आता है। अम्मा खटपटिया पहनकर सफेद साड़ी में रौब से घूमती रहती थीं। तीज-त्यौहारों पर रसोई में बैठकर पूड़ियाँ बनाना। होली पर गुँझिया बनाना। बहुत भरा-भरा लगता था।

पर मेरे मन में हमेशा कमलेश्वर जी का इन्तजार रहता था। अम्मा चाहती थीं, मेरी बहू मेरे पास रहे, मेरी सेवा करे और मैं चाहती थी कि मैं कमलेश्वर जी के साथ रहूँ। जब मेरी पहली लड़की होले वाली थी तो मैं कई महीने मैनपुरी में रही। जब कमलेश्वर जी आ जाते थे तो सारा घर खुशियों से झूमने लगता था। सब पड़ोस के उनके दोस्त-बिब्बन, जगन्नाथ, रमेश, मकसूद, हरीश, पुरुषोत्तम, कालू, जसमीत, राधेश्याम यादव इनसे मिलने आते थे। अम्मा कमलेश्वर जी के सभी दोस्तों को प्यार करती थीं, कुछ न कुछ जरूर खिलाती थीं। बहुत अच्छा घरेलू माहौल रहता था।

कमलेश्वर जी के बड़े भाई, मैं उनको दादा जी कहकर बुलाती थी, वह कमलेश्वर जी को मन से प्यार करते थे। एक बार मुझे याद है कि वह आंगन में खड़े होकर बोले, ‘‘अम्मा, अब जमाना बजल गया है कैलाश की बहू लम्बा घूँघट नहीं काढ़ेगी, वह सिर्फ सिर पर पल्ला रखेगी।’’ सचमुच दादा जी बदलते समय के अनुसार चलते थे।

उनकी बात सुनकर मुझे अच्छा लगा क्योंकि मेरी ससुराल में घूँघट का रिवाज पहली बार दादा जी ने तोड़ा था। मैनपुरी में रिवाज था कि बहू इतना घूँघट काढ़े कि उसकी आँखें न दिखें। अगर घर में कमलेश्वर जी के दोस्त आ जाये तो कमरे में अन्दर चली जाती थी। बड़ों के सामने खाट पर नहीं बैठती थी। दादा जी को यह बात अच्छी तरह पता थी कि हमारी जिठानी हमेशा घूँघट काढ़े रहती थीं, रात में अम्मा के पाँव में तेल लगाती थीं।

बाद में मैं उनके पैरों में तेल लगाने लगी। दादा जी हमेशा मुझे गायत्री बुलाते थे। कभी-कभी स्नेह से दुल्हन बुलाते थे। जब मैं शादी होकर मैनपुरी आई तो मैंने एम.ए. प्रीविएस पास किया था। यह लोग जल्दी शादी करना चाह रहे थे इसलिए मैं अपनी फाइनल परीक्षा दे नहीं पाई। मैं आगरा युनिवर्सिटी से प्राइवेट एम.ए. कर रही थी। अम्मा को इस बात का थोड़ा घमण्ड था कि मेरी बहू एम.ए. कर रही है। वह बाहर सबसे मुहल्ले में कहती थीं कि मेरी एम.ए. करने वाली बहू मेरे पैर दबाती है। मुझे चूल्हे में रोटी बनानी नहीं आती थी,

रोटियाँ हमेशा कड़ी बन जाती थीं, पर जब लोगों के सामने आती थीं, तब हमारी सास अम्मा जी मेरी तरफदारी लेकर बड़े रोब से कहती थीं, ‘‘असल में इसके मैके में मिसरानी खाना बनाती थी इसलिए वह अभी रोटियाँ बना नहीं पाती है।’’ धीरे-धीरे उन्होंने मुझे खाना बनाना सिखाया। प्यार भरा भरोसा उन्होंने मुझे दिया। मैंने मैनपुरी में रहकर हिन्दी में एम.ए. फाइनल की तैयारी की थी। जब मैं पढ़ने बैठती थी तो अम्मा खुद मुझसे कहती थीं, ‘‘बहू अपनी पढ़ाई कर लो। आज मैं खाना बना लूँगी।’’ अम्मा ने ही मुझे बच्चों की बुशर्ट सिलना सिखाया।

पास पड़ोस के लोग अपने बच्चों की बुशर्टें सिलने के लिए कपड़ा उन्हें दे जाते थे। पहले वह उसको काट देती थीं फिर मुझे बता-बातकर मशीन से सिलवाती थीं। वह कहती थीं कि बच्चों के कपड़े सिलने आना चाहिए। वह घर में काफी किफायत से रहती थीं। पर मुहल्लेवाले समझते थे कि अम्मा बड़े ठाठ से रहने वाली औरत हैं। वह अपने घर की कोई भी बुराई कहीं बाहर नहीं करती थीं। यही दादा जी की भी आदत थी।

जब मैनपुरी की यादें मेरे दिमाग से दिल तक उतरती जाती हैं, तो अम्मा और दादा जी की यादों से मन भर-भर आता है। बापू की मृत्यु के बाद अम्मा ने अपने दोनों बेटों को अंकुश के साथ जतन से पाल कर बड़ा किया और इस काबिल बनाया कि वह कुछ कर सकें और उन्होंने खुद तकलीफें सहीं। अब मुझे और कमलेश्वर जी को गहरा अफसोस है कि अब वह घर हमारा नहीं रह गया है जिसकी दीवारों में यह सब यादें समायी थीं।

अम्मा की मृत्यु के बाद वह घर खण्डहर बन गया था। यह पुश्तैनी घर बड़ी-सी हवेली थी, जो खण्डहर हो चुकी थी। उसे ही किरायेदारों की मदद से कमलेश्वर जी ने बनाकर भाभी के जेबखर्चे के लिए 500 रुपये महीने का जरिया बनाया था लेकिन खैर....अब तो हमारे भतीजों ने उसे बेंच दिया है। अम्मा जब तक जीवित थीं, उन्होंने अपने पति की धरोहर को बहुत अच्छी तरह सम्हाला था, वह घर रंगा पुता हुआ बहुत सुन्दर लगता था।

वह किरायों की कम आमदनी में भी सब कुछ कर लेती थीं, वह कहती थीं, ‘‘दुल्हन मैंने घर इस तरह सम्हाला है कि यदि चालीस भी आदमी हमारे खाने पर आ गये तो मैं अभी सबको खिला सकती हूँ।’’ उस मकान की छत्तें कच्ची थीं। एक-एक गज गहरी मिट्टी पड़ी थी। इतना पैसा तो उनके पास था नहीं कि उसको पक्की करा सकें। जब भी कोई छत कहीं से चूने लगती तो मजदूर अजुध्धी से कहकर ढेरों मिट्टी डलवा देती थीं।

अम्मा के रहते लगता नहीं था कि किसी पुरुष की कमी है। वह बहादुर औरत की तरह रहती थीं।

एक बार बारिश के दिन थे। सावन का महीना था, हम लोग कमरे के सामने पड़ी टीन के नीचे सो रहे थे। रात का समय था। अम्मा की नींद बहुत ही खटकीली थी। उसको लगा कि एक चोर आकर टीन पर बैठ गया है। टीन दबने लगी थी। वह बहुत ही बहादुरी से उठीं और जोर से बोलीं, ‘‘कैलाश उठो ! अपनी बन्दूक उठाओ, ऊपर कोई चोर है। उन्होंने लालटेन उठाई, उसकी लौ तेज करके खटाखट जीने में चढ़ गईं।’’ उनकी जोरदार आवाज से चोर भाग गया।

हालाँकि घर में कोई बंदूक या तमंचा तक नहीं था ! उस समय अम्मा के पास मैनपुरी में ग्यारह दुकाने और छः घर थे। सामने वाली कोठी तो बहुत बड़ी थी जिसमें श्यामाचरण रहते थे। सभी का किराया अम्मा ही लेती थीं पर सारा किराया मिलाकर 200 रुपया होता था। अम्मा उसी में खुश थीं। एक किरायेदार के पास सरसों के तेल की मिल थी वह पीपा भर के तेल भिजवा देता था। अम्मा का सारे मुहल्ले में बहुत रौब था क्योंकि अम्मा में बच्चे पैदा करने का बहुत बड़ा हुनर था।

मुहल्ले में किसी के भी घर में बच्चा होने वाला हो, सबसे पहले अम्मा को ही बुलाया जाता था। इसीलिए गली में ज्यादातर बच्चे उन्हीं के हाथ के पैदा किये होते थे, दादी-दादी कहते रहते थे। पर अम्मा किसी के घर का पानी या चाय नहीं पीती थीं।
मेरा कमलेश्वर जी के साथ का जीवन अम्मा की इसी मैनपुरी से ही शुरू हुआ। मैं कमलेश्वर जी के साथ 24 जून सन् 1958 में ब्याह कर इस घर में आई थी। कितने सहमे-सहमे दिन थे, मेरे लिये ! हम दोनों एक-दूसरे से अपरिचित थे। मैं फतेहगढ़ से ब्याह कर आई थी। भरी गर्मियों के दिन, मेहमानों से भरा हुआ घर।

अम्मा ने हमारी जिठानी ने और कई औरतों ने मिलकर द्वार पर मूसल घुमा-घुमा कर हमारी परछन उतारती थी, उसके बाद हम दोनों ने घर में कदम रखे थे। उस दिन के करीब बारह बज रहे थे। अम्मा ने सबसे पहले हम दोनों को आंगन में लगे खम्ब के सामने पड़े पटों पर खड़ा कर दिया था। वहीं हमारी मुँह दिखलाई हुई थी। उस दिन अम्मा बहुत खुश थीं। उसके बाद जिठानी ने मुझे अन्दर लाकर कमरे में बिठा दिया था और कहा था

कि थोड़ी देर में मैं आती हूँ तुम अपने कपड़े बदल लेना। मुझे कुछ भी समझ में नहीं आया, फिर मेरी जिठानी ने ही आकर मेरा बक्सा खुलवाया और मुझसे कहा कि अपने कपड़े निकाल लो और जाकर नहा धो लो और उन्हीं ने मुझे सब कुछ बताया। तब तक कमलेश्वर जी से मेरी कोई बातचीत नहीं हुई थी।

कमलेश्वर जी के बड़े भाई कमलेश्वर जी से चौदह वर्ष बड़े थे। उस समय तक हमारी जिठानी के आठ बच्चे हो चुके थे। कमलेश्वर जी के बड़े भाई का नाम महेश्वरी प्रसाद था, वह कमलेश्वर जी को कैलाश बुलाते थे। उनकी बड़ी लड़की मुन्नी उस समय मैनपुरी में इण्टर में पढ़ती थी, उसी ने मुझे भाभी का सम्बोधन दिया। उसने कहा मेरा कोई बड़ा भाई नहीं है, मेरे कोई भी भाभी हो ही नहीं सकती, मैं अपनी चाची को भाभी बुलाऊँगी।

उसके साथ सभी बच्चे मुझे भाभी बुलाने लगे। उस समय सारा घर महका-महका लग रहा था। अम्मा बहू की दावत की तैयारी में लगी हुई थीं, कई लोगों से कह-कहकर सारा इन्तजाम कहा रही थीं। कई मेहमान जाने की तैयारी में लगे हुए थे, उनके मेरे मैके से आया पकवान बाँधा जा रहा था। सबका टीका कर-करके कुछ कपड़े दिये जा रहा था। आखिरकार अम्मा के छोटे बेटे की शादी थी। मैं सामाने वाले कमरे में बैठी सकुचाई हुई सब देख रही थी। सुना था हमारे जेठ ने हमारे चढ़ावे की साड़ियों को बड़े मन से कढ़वाया था।

लाल लुगरे को तो खास तौर से बनवाया गया था, उसमें सुनहरे मोर कढ़ावाये गये थे। कमलेश्वर जी के लिए बंगालियों की तरह केले का मौर बनवाया था। साथ में शिव-पार्वती की सफेद मूर्ति बारात के साथ चलने के लिए बनवाई थी। कमलेश्वर जी को बहुत प्यार करते थे। और हमारा जेबर भी हमारे जेठ जी ने घर के सामने जड़िया जी के साथ बैठकर बनवाया था। हमारे जेठ जी रेलवे में इंजीनियरिंग के ड्राईंग सैक्शन में नौकरी करते थे। उन्होंने इलाहाबाद के स्टेशन की भी डिजाइन की थी, उसकी तारीफ हुई थी।

सारा रहन-सहन मध्यम वर्ग का था। जब कमलेश्वर जी के पिता जी जीवित थे, जिनको सभी बापू कहते थे, वह अच्छे जमींदार थे। वह बहुत दयालु किस्म के थे, जब भी वह गाँव से लौटते थे तो झल्ली भर पके हुए आम लाते थे और सारे मुहल्ले में बांटते चले आते थे। उनकी मृत्यु के बाद उस दबदबे को अम्मा ने ही सम्हाला था। यह अच्छा हुआ कि अम्मा ने दसवीं के बाद कमलेश्वर जी को आगे पढ़ने के लिए इलाहाबाद भेज दिया। बड़े भाई के पास पर खुद अपनी पोती मुन्नी के साथ अकेले मैनपुरी में रहती थीं और उनका पोता दिनेश भी वहीं रहता था।

मेरी शादी के बाद मुन्नी इलाहाबाद चली गई, पर दिनेश वहीं मैनपुरी के चित्रगुप्त कॉलेज में पढ़ता था। मैं मैंनेपुरी आने के बाद तीसरे दिन कमलेश्वर जी से मिली थी, उस दिन हमारी सुहागरात थी। हमारी जिठानी ने मुझे साड़ी पहना कर बैठक वाले कमरे में कहा कि वहाँ जा कर सो जाओ। मैंने अन्दर आकर देखा कि पलंग पर यह लेटे हुए हैं। मैं चुपचाप जमीन पर चटाई बिछाकर लेट गई। थोड़ी देर बाद कमलेश्वर जी ही उठकर आये और कहा आओ पलंग पर लेट जाओ।

मैं उसी दिन लड़की से औरत बन गई। मेरी चादर भी थोड़ी सखीन से लाल हो गई, इन्होंने सुबह उठते ही कहा कि तुम इस चादर को चुपचाप जाकर धा देना नहीं तो सब लोग हंसेंगे। मैं पांच बजे ही उठकर बाहर निकल आई। उसके बाद कमलेश्वर जी जब भी मुझको देखते थे, मुस्कुरा देते थे पर मेहमानों के बीच मुझसे बात नहीं करते थे। शरम लिहाज-अदब इनके संस्कारों में इतना था कि बड़ों के सामने कभी सिगरेट भी नहीं पीते थे।

दूसरी बार ऊपर वाले कमरे में मिली। मैं ऐसे ही ऊपर वाले कमरे में खाट पर बैठी थी। मैंने देखा कि कमलेश्वर जी सफेद कुर्ते पैजामें में धीरे से मेरे पास आकर बैठ गये। उस समय मेरा दिल बुरी तरह धड़क रहा था, उसी समय कमलेश्वरजी बोले थे, ‘‘गयात्री तुम मेरे साथ रहकर कभी परेशान न होना, हो सकता है कि तुम्हारी बहुत सी इच्छाएँ मैं पूरी न कर पाऊँ, पर मेरी भावनाओं को गलत मत समझना, मैं इलाहाबाद में दादा जी के साथ रहता हूँ।

मैं उनकी इच्छा के बगैर या बिना पूछे कुछ भी नहीं करना चाहता हूँ। मैं अपने बड़े भाई और भाभी की बहुत इज्जत करता हूँ और अम्मा का बहुत आदर करता हूँ। उसी तरह तुम्हें भी चलना होगा।’’ मैं चुपचाप सुनकर मुस्करा दी। मेरा प्यार उसी दिन से शुरू हुआ। उसके दूसरे दिन कमलेश्वर जी के दोस्त राधेश्याम यादव हमारे उसी खाट पर बैठा कर हम दोनों की फोटो ली। वह अभी तक हमारे पास है।

मैंने देखा, उन्हीं दिनों कमलेश्वर जी ने तीन दिनों तर अपनी दाढ़ी नहीं बनाई और ज्यादा गर्मी लगे तो कुर्ता उतार पजामा पहने आंगने में घूमने लगते थे। यहां तो सभी पुरुष बनियान जरूर पहनते थे। तीसरे दिन कमलेश्वर जी ही मुझसे बोले, उस समय तक सारे मेहमान जा चुके थे। ‘‘गायत्री मैं तुमको परख रहा था, जीवन मैं ऐसे भी दिन आ सकते हैं कि एक ब्लेड तक न खरीद सकूँ, यह सब तुम्हें बर्दाश्त करना होगा।’’ मुझे कुछ समझ में नहीं आया, पर मैं यह समझ गई कि मेरी शादी एक लेखक से हुई है। मुझे इन्ही के साथ रहना है।


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