जीवनी/आत्मकथा >> मेरी आपबीती मेरी आपबीतीबेनज़ीर भुट्टो
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‘Daughter of the East’ का हिन्दी रूपान्तरण...
Meri Aapbeeti - An Hindi Book by Benazir Bhutto - मेरी आपबीती - बेनज़ीर भुट्टो
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
2007 में पाकिस्तान में एक अनिश्चित भविष्य की तरफ़ लौटते वक़्त न सिर्फ अपने और अपने देश के बल्कि सारी दुनिया के लिए मौजूद खतरों से मैं अच्छी तरह वाकिफ़ हूँ। हो सकता है कि पाकिस्तान पहुँचते ही मैं गिरफ़्तार कर ली जाऊँ। हो सकता है कि जब मैं हवाई अड्डे पर उतरुँ तो गोलियों की शिकार हो जाऊँ। पहले भी कई बार अल-क़ायदा मुझे मारने की कोशिश कर चुका है। हम यह क्यों सोचें कि वह ऐसा नहीं करेगा ? क्योंकि मैं अपने वतन में लोकतांत्रिक चुनावों के लिए लड़ने को लौट रही हूँ और अल-क़ायदा को लोकतांत्रिक चुनावों से नफ़रत है। लेकिन मैं तो वही करूँगी जो मुझे करना है और मैं पाकिस्तान की जनता की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं में साथ देने का अपना वादा पूरा करने का पक्का इरादा रखती हूँ।
नये संस्करण की भूमिका
मैंने यह ज़िन्दगी खुद नहीं चुनी, ज़िन्दगी ने मुझे चुना।
पाकिस्तान में जन्मी, मेरी ज़िन्दगी बहुत उतार-चढ़ाव से भरी रही, उसमें दुख-विपत्तियां हैं, तो कामयाबी के झण्डे भी फहराए हैं।
एक बार फिर पाकिस्तान अन्तर्राष्ट्रीय हलचल के केन्द्र में है। आतंकवादी इस्लाम का नाम लेकर इसके खतरे में डाल रहे हैं। लोकतांत्रिक शक्तियां ऐसा सोचती हैं कि आतंकवाद को आज़ादी के सिद्धान्तों के जरिये ख़त्म किया जा सकता है जबकि फौजी हुकूमत छल-कपट और षडयन्त्र के खतरनाक खेल खेलती है। उसे इस बात का डर हमेशा रहता है कि कहीं गद्दी हाथ से निकल न जाए, इसलिए वह हमेशा दुविधा-भरी घबराहट में रहते हुए, आधुनिक फौजी ताकतों से अपने बचाव का इन्तजाम करती रहती हैं और इधर आतंकवाद फलता-फूलता रहता है।
पाकिस्तान कोई मामूली देश नहीं है, न ही मेरी ज़न्दगी कोई साधी-सपाट ज़िन्दगी है। मेरे पिता और मेरे दो भाई मार दिए गए। मेरी माँ, मेरे पति और मुझे खुद भी जेल में बंद कर दिया गया। मैंने कई-कई बरस का देश-निकाला झेला। इन तमाम दुःख-मुसीबतों के बावजूद, मैं खुद को खुशनसीब मानती हूँ। मैं खुशनसीब इसलिए हूँ क्योंकि मैं परम्पराओं को तोड़ते हुए किसी मुस्लिम देश की पहली, चुनाव के ज़रिये बनी हुई प्रधानमंत्री बन सकी। यह चुनाव इस बेहद गर्म बहस और विवाद के बीच हुआ था, जो इस्लाम के मुताबिक औरतों की भूमिका नहीं तय कर पा रहा था। इस चुनाव ने यह साबित कर दिया था कि एक मुसलमान औरत देश की प्रधानमंत्री बनकर, देश की अगुवाई कर सकती है और उस देश के सारे मर्द और औरतें अपनी रज़ामन्दी दे सकते हैं। मैं पाकिस्तान की जनता का धन्यवाद करती हूँ कि उसने मुझे यह सम्मान दिया।
इसके अतिरिक्त, अधुनिकतावाद और उग्रवाद के बीच चलने वाली बहस के साथ-साथ, 2 दिसम्बर, 1988 से, जब मैंने अपने पद की शपथ ग्रहण की है, समूची मुस्लिम दुनिया में औरतें बहुत आगे आई हैं।
इस दुनिया मे बहुत कम लोगों को यह मौका मिल पाता है कि वह समाज में कुछ बदलाव ला सके, देश में आधुनिकता की राह बना सके, और मामूली-भर सुविधाओं के होते हुए भी औरतों की भूमिका के बारे में घिसे-पिचे ढर्रे को तोड़ सकें और उन तमाम लोगों को यह उम्मीद दिला सकें कि बदलाव का सपना उनके लिए भी सच हो सकता है।
निश्चित रूप से मैंने खुद अपनी ज़िन्दगी कभी नहीं चुनी होती, लेकिन यह ज़िन्दगी ज़िम्मेदारी और खुशियों से भरी हुई है और इसमें बहुत कुछ करने के मौके हैं। मैं देख पा रही हूँ कि आनेवाले समय के पास मेरे लिए और मेरे देश पाकिस्तान के लिए और भी ज्यादा चुनौतियाँ हैं।
बीस साल पहले, उस समय की अपनी ज़िन्दगी की घटनाओं को देखते हुए—मेरे पिता की हत्या, मेरी जेल-यात्राएँ और मेरी राजनीति में उतरने की ज़रूरत—मुझे कतई इस बात की उम्मीद नहीं नज़र आती थी कि मेरी ज़िन्दगी में कभी कोई खुशी भी आएगी, मुझे प्यार मिलेगा, मैं शादी करते घर बसा पाऊँगी। मैंने तो सोचा था कि मेरी भी ज़िन्दगी इंग्लैण्ड की महारानी एलिज़ाबेथ प्रथम की तरह, जेल काटते हुए एकाकी गुज़रेगी, मेरी कभी शादी, बाल-बच्चे नहीं होंगे....लेकिन मेरे भाग्य ने इन नाउम्मीदियों को झुठला दिया। मुझे मुश्किलों के बावजूद शादी का सुख मिला। मुझे अपने पति की हिम्मत और वफादारी पर गर्व है कि वह हमारी शादी के इन उन्नीस बरसों में हमेशा मेरे साथ गहराई से जुड़े रहे। इस दौरान वह प्रधानमंत्री-आवास में रहे और उन्हेंने जेल में भी समय काटा, लेकिन हर हाल में मुझे लगा कि हमारे रिश्ते मज़बूत होते गये, भले ही हम कभी-कभी एक-दूसरे से दूर रहे और हमारे बीच दरार पैदा करने की तमाम कोशिशें की गईं। क्या मैंने अपने लिए ऐसी ही ज़िंदगी चाही या सोची थी ? शायद नहीं। लेकिन आज मुझे अपनी ज़िन्दगी के अलावा किसी भी और औरत की जगह होना गवारा नहीं—चाहे वह दुनिया की सबसे खुशहाल या खुशकिस्मत औरत ही क्यों न हो।
मैं अपनी संस्कृति, अपने धर्म और विरासत पर गर्व करती हूँ। सच्चे इस्लाम की मूल भावना में एकता और उदारता है, ऐसा मेरा मानना है और मेरे इसी विश्वास का मज़ाक बनाते हुए अतिवादी और भी उग्र हो गए हैं। मैं जानती हूँ कि मैं उस विश्वास की प्रतीक हूँ, जिससे यह तथाकथित‘जेहादी’, तालिबान और ‘अल का़यदा’ वाले बहुत डरते हैं। मैं एक महिला राजनीतिक नेता हूँ, जो पाकिस्तान में आधुनिकता, संचार-व्यवस्था, शिक्षा और टेक्नोलॉजी का माहौल बनाने के लिए संघर्षरत है। मैं समझती हूँ कि लोकतान्त्रिक देश पाक्सितान दुनिया-भर के करोड़ों मुसलमानों के लिए एक उम्मीद की किरण ला सकता है, जिन्हें निर्णय लेना है कि वह क्या चाहते हैं....बीते समय की संरचना या भविष्य में आनेवाले समय के शक्ति-स्रोत।
मैंने जितनी भी राजनीतिक लड़ाइयाँ लड़ीं, उनका कुछ-न-कुछ उद्देश्य था। उनका उद्देश्य सामाजिक न्याय और उदारवाद के पत्र में ठहरता था....सचमुच यह मुद्दे ऐसे हैं, जिनके लिए लड़ा जाना ही चाहिए। लेकिन, मुझे ऐसा लगता है कि मेरी राजनीतिक मात्रा ज्यादा चुनौती-भरी इसलिए रही है क्योंकि मैं एक औरत हूँ। यह साफ है कि आज के समय में एक औरत के लिए चाहे वह कहीं भी रह रही हो वह आसान काम नहीं है। फिर भी, हम औरतों को जी-तोड़ मेहनत करके यह सिद्ध कर देना है कि हम पुरुषों से किसी भी मायने में कमतर नहीं हैं।
हमें ज़्यादा देर तक काम करना होगा और कुर्बानियाँ देनी होंगी। हमें खुद को किसी भी तरह के भावनात्मक आक्रमण से बचाना होगा, जो ज़्यादातर अपने परिवार के लोगों द्वारा ही हम पर दुर्भावनापूर्ण ढंग से किए जाते हैं। यह दुःख की बात है कि बहुत-से लोग अब भी यही मानते हैं कि औरतों की ज़िन्दगी की डोर मर्दों के ही हाथ में होती है, इस तरह से वह मर्दों पर दबाव डालकर औरत तक पहुँच सकते हैं।
चाहे कुछ भी हो, हमें समाज के दोहरे मापदण्ड के लिए शिकायत नहीं करनी है, बल्कि उन्हें जीतने की तैयारी करनी है। हमें ऐसा हर हाल में करना है, भले ही हमें मर्दों के मुकाबले दुगुनी मेहनत करनी पड़े और दुगदुने समय तक काम करना पड़े। मैं अपनी माँ की शुक्रगुजार हूँ कि उन्होंने मुझे यह सिखाया कि माँ बनने की तैयारी एक शारीरिक क्रिया है और उसे रोजमर्रा के कामकाज में बाधा नहीं बनने देना चाहिए।
अपनी माँ की अपेक्षा पर खरी उतरने के लिए मैंने हर बार माँ बनने की तैयारी के दौरान किसी भी शारीरिक या भावनात्मक लक्षण को अपना रास्ता नहीं रोकने दिया। फिर भी, मुझे इस बात का अहसास था कि ऐसा कोई प्रसंग, जिसे हमारा पारिवारिक मामला माना जाना चाहिए, ज़रूर फौजी मुख्यालय में और अखबार के दफ्तरों में राजनीतिक चर्चा से जोड़कर देखा जाएगा, इसलिए मैंने अपने इस दौर के विवरण को पूरी तरह गोपनीय रखा। मैं खुशकिस्मत थी कि मुझे डॉ. फ्रेडी सेतना की ऐसी डॉक्टरी देख-रेख मिली और उन्होंने उसे सिर्फ अपने तक ही सीमित भी रखा।
बिलावल, बख्तावर और आसिफ़ा, मेरी तीन प्यारी-प्यारी सन्तानें हैं। यह मुझे खुशी और गौरव का भाव देती हैं। जब 1988 में, मैं अपने पहले बच्चे के जन्म की उम्मीद में थी और बिलावल होने वाला था, तब फौजी तानाशाह ने संसद भंग करके आम चुनावों की घोषणा कर दी थी। वह उसके आला फौजी अफसर सोचते थे कि ऐसी हालत में कोई औरत कैसे चुनाव सभाओं के लिए निकल पाएगी...लेकिन वे गलत साबित हुए....मैं निकली और मैंने चुनाव-अभियान में हिस्सा भी लिया। मैं अपने इस काम में लगी रही और मैंने वह चुनाव जीता, जो 21 सितम्बर, 1988 को बिलावल के जन्म के बस कुछ ही दिनों बाद कराए गए। बिलावल का पैदा होना मेरी ज़िन्दगी के लिए एक बेहद खुशी का दिन था, साथ ही उन चुनावों का जीतना भी, जिनके बारे में अटकलें थीं कि एक मुस्लिम औरत लोगों के दिल और उनके सोच को कभी नहीं जीत पाएगी....यह दोनों ही बड़ी खुशियाँ मुझे मेरी ज़िन्दगी में एक साथ मिलीं।
मेरे प्रधानमंत्री बनने के बाद मेरी माँ ने जल्दी मचाई कि मैं दूसरे बच्चे की तैयारी करूँ। उनका सोचना था कि मांओं को बच्चे जनने का काम जल्दी-जल्दी पूरा कर लेना चाहिए, ताकि उनके पास आगे उनको पालने-पोसने की चुनौतियों के लिए काफी समय रहे। मैंने उनकी सलाह मान ली थी।
जब मेरी दूसरे बच्चे के पेट में होने की खबर अभी गुप्त ही थी, मेरे फौजी जनरल लोगों ने यह तय किया कि मुझे फौज़ियों से बातचीत करने के लिए पाकिस्तान की सबसे ऊँची चोटी सियाचीन ग्लेशियर जाना चाहिए। भारत और पाकिस्तान इसी सियाचिन सरहद पर 1987 में एक युद्ध लड़ चुके थे और 1999 में करीब-करीब युद्ध की स्थिति फिर आ गई थी। मुझे चिन्ता हुई कि उस ऊँचाई पर कम ऑक्सीजन के कारण कहीं मेरे अजन्में बच्चे को कोई नुकसान न हो। मेरे डॉक्टर ने मेरा हौसला बढ़ाया कि मैं जा सकती हूँ। उसने समझाया कि ऑक्सीजन की कमी का असर माँ पर पड़ता हैं, जिसे ऑक्सीजन मॉस्क दिया जा सकता है और बच्चा बहरहाल सुरक्षित रहता है। खैर, ढेरों आशंकाओं के बावजूद भी मैं वहां गई।
यह हमारे फौजी दस्तों के बहुत हौसला बढ़ाने वाली बात थी कि उनकी प्रधानमंत्री उनसे मिलने, बात करने सियाचिन ग्लेशियर की उस ऊँचाई तक आई हैं। वह एक दिलकश नज़ारा था। सब तरफ़ बर्फ की सफेदी थी जो दूर क्षितिज पर नीचे आसमान में मिलती नज़र आ रही थी। आगे सीमा पर मुझे हिन्दुस्तानी फौज़ों की चौकियाँ नज़र आ रही थीं, जिनका सीधा मतलब था कि वहाँ शान्ति का एहसास रखना, धोखा खाने जैसा है।
जैसे ही राजनीतिक विपक्ष को यह पता चला कि मैं माँ बनने वाली हूँ, बेमतलब शोर-शराबा शुरू हो गया। उन्होंने राष्ट्रपति पर दबाव डाला कि मुझे बरखास्त कर दिया जाए। उन्होंने तर्क दिया कि पाकिस्तान के सरकारी नियमों में इस बात की गुंजाइश नहीं है कि प्रधानमंत्री सन्तान को जन्म देने के लिए छुट्टी पर जाएँ। उन्होंने कहा कि प्रसव के दैरान मैं सक्रिय नहीं रहूँगी और सरकारी काम-काज को परेशानी का सामना करना पड़ेगा। इसलिए गैर-संवैधानिक रूप से प्रेसिडेंट पर दबाव डाला गया कि इस सरकार को बरखात करके एक अन्तरिम सरकार बनाए जाने के लिए चुनाव कराए जाएँ।
मैंने विपक्ष की इस माँग को ठुकरा दिया। मैंने दिखायी कि कामकाजी स्त्रियों के लिए प्रसव के दौरान छुट्टी की व्यवस्था है जिसे मेरे पिता के समय में लागू किया गया था। मैंने ज़ोर देकर कहा कि यह नियम प्रधानमंत्री पर भी लागू होता है भले ही ऐसा स्पष्ट रूप से सरकार चलाने वाले लोगों के बारे में कहा नहीं गया है। मेरी सरकार के लोग मेरे साथ थे। कहा गया कि जिस स्थिति में पुरुष प्रधानमंत्री हटाया नहीं जा सकता, उस स्थिति में महिला प्रधानमंत्री को भी हटाए जाने का प्रश्न नहीं उठता।
विपक्ष ज़िद पर था और उसने तय किया कि मुझे हटाये जाने के लिए हड़ताल की जाएगी। अब मुझे भी अपनी योजनाएँ बनानी थीं। मेरे पिता ने मुझे सिखाया था कि राजनीति में समय का बड़ा महत्त्व है। मैंने अपने डॉक्टर से बात की। उसने बताया कि मेरे प्रसव का समय पूरा हो चुका है। मैंने उनसे इज़ाज़ लेकर यह तय किया कि मैं उसी दिन, जिस दिन हड़ताल की घोषणा थी। ऑपरेशन से बच्चे को जन्म दे दूँगी।
मैं नहीं चाहती थी कि कोई पारस्परिक बात, जो प्रसव से जुड़ी हुई हो, मेरे काम में बाधा बने। इसलिए अपनी कैसी भी हालत के बावजूद मैंने शायद किसी मर्द प्रधानमंत्री से भी ज्यादा काम निपटाया, उसी दिन अपने सांसदों के साथ एक मीटिंग की और कराची के लिए चल पड़ी। सवेरे मैं बहुत जल्दी उठी और अपनी एक सहेली के साथ, उसकी कार में बैठकर निकल गई। वह एक छोटी कार थी, उस काली मर्सडीज़ से अलग, जिसे मैं सरकारी काम-काज के दौरान इस्तेमाल करती थी। ड्यूटी पर हाज़िर पुलिस वाले ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया। उनका ध्यान मेरे घर में आनेवाली कारों की तरफ ज्यादा होता, बजाय, बाहर जानेवाली किसी गाड़ी पर.....
जब मेरी कार अस्पताल पहुँची, जहाँ डॉक्टर सेतना हमारा इन्तज़ार कर रही थीं, मेरा दिल बुरी तरह धड़क रहा था। जब मैं कार से उतरी, मैंने अस्पताल के लोगों के चेहरों पर गहरी हैरत का भाव देखा। मुझे पता था कि यह खबर मोबाइल फोनों के ज़रिये तेज़ी से फैलनी शुरू हो जाएगी क्योंकि मोबाइल फोन इस्तेमाल करने वाला दक्षिण पूर्व और मध्य एशिया में पाकिस्तान पहला राष्ट्र था। मैंने जल्दी से हॉल का रास्ता पार किया और ऑपरेशन थियेटर में चली गई। मुझे पता था कि मेरी माँ और मेरे पति भी, हमारे कार्यक्रम के अनुसार पीछे-पीछे आ रहे होंगे। मैंने जैसे ही बेहोशी की धुंध आँखें खोलनी शुरू की और अस्पताल की ट्राली को आपरेशन थियेटर से प्राइवेट कमरे की तरफ आते देखा, मैंने सुना कि मेरे पति ने खुशी से कहा, ‘‘हमारी बेटी ई है !’’......मेरी माँ का चेहरा भी खिल उठा था। मैंने अपनी बेटी का नाम रखा, बख्तावर, जिसका मतलब है भाग्यशाली....और वह सौभाग्य लेकर आई। हड़ताल ठप्प हो गई और विपक्ष का मंसूबा टूट गया।
मेरे पास सारी दुनिया से बधाई सन्देश आए। देशों के प्रधानमंत्री से लेकर आम नागरिकों तक, सबने मुझे बधाई दी और अपनी खुशी का इज़हार किया। खासतौर से एक युवती के लिए यह एक बड़ा आदर्श सामने रखने वाली बात थी, कि एक औरत काम करते-करते और देश की शीर्ष स्थिति में रहते हुए भी एक सन्तान को जन्म दे सकती है। अगले दिन मैं काम पर वापस आ गई और मैंने फाइलें देखनी और कागजों पर दस्तखत करने शुरू कर दिये।
मुझे बाद में पता चला कि मैं पहली ऐसी राष्टाध्यक्ष थी, जिसने काम-काज के दौरान एक बच्चे को जन्म दिया था। इस तरह मैंने एक महिला प्रधानमंत्री की तरह, महिलाओं की उन्नति के रास्ते में आड़े आने वाली परम्परा की दीवार प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए तोड़ दी।
बख्तावर का जन्म 1990 में हुआ था। उसके सात महीने बाद 6 अगस्त को प्रेसिडेंट ने लोकतान्त्रिक परम्परा को नकारते हुए मेरी सरकार को बरखास्त कर दिया, जबकि सारी दुनिया का ध्यान कुवैत पर इराक के कब्जे की ओर केन्द्रित था। उस समय मेरे पति गिरफ्तार कर लिए गए और मेरी माँ ने मुझे सलाह दी कि मैं अपने बच्चों को विदेश भेज दूँ। मेरे लिए यह दिल चीर देने वाला प्रस्ताव था। विलावल अभी सितम्बर, 1990 में दो बरस का हुआ था और बख्तावर को तो अभी साल भी पूरा होना बाकी था। उनसे बिछुड़ने का ख्याल ही मेरे लिए असहनीय था। मेरी बहन, जो लन्दन में रह रही थी। मेरी बहन तो यही कहती थी कि उसकी चिन्ता मत करो। जब भी मेरी उससे फोन पर बात होती थी, उसका यही कहना होता था। फिर भी, मैं उन सपनों से कभी मुक्त नहीं हो पाई।
मेरी सरकार के बरखास्त कर दिए जाने के बाद कराची शहर अराजकता और बदइन्तज़ामी की लपेट में आ गया। आतंकवाद बढ़ता ही जा रही था। निर्दोष नागरिक बसों में जाते समय, अपने घरों के बाहर और अपने दफ्तरों में मारे जा रहे थे। मैं जानती थी कि मेरे बच्चों का लन्दन में रहना उनके लिए ज्यादा सुरक्षित है, फिर भी मेरे लिए रात को चैन की नींद सो पाना कठिन था, मेरे सपने मुझे सोते-सोते जगा देते थे।
पाकिस्तान में जन्मी, मेरी ज़िन्दगी बहुत उतार-चढ़ाव से भरी रही, उसमें दुख-विपत्तियां हैं, तो कामयाबी के झण्डे भी फहराए हैं।
एक बार फिर पाकिस्तान अन्तर्राष्ट्रीय हलचल के केन्द्र में है। आतंकवादी इस्लाम का नाम लेकर इसके खतरे में डाल रहे हैं। लोकतांत्रिक शक्तियां ऐसा सोचती हैं कि आतंकवाद को आज़ादी के सिद्धान्तों के जरिये ख़त्म किया जा सकता है जबकि फौजी हुकूमत छल-कपट और षडयन्त्र के खतरनाक खेल खेलती है। उसे इस बात का डर हमेशा रहता है कि कहीं गद्दी हाथ से निकल न जाए, इसलिए वह हमेशा दुविधा-भरी घबराहट में रहते हुए, आधुनिक फौजी ताकतों से अपने बचाव का इन्तजाम करती रहती हैं और इधर आतंकवाद फलता-फूलता रहता है।
पाकिस्तान कोई मामूली देश नहीं है, न ही मेरी ज़न्दगी कोई साधी-सपाट ज़िन्दगी है। मेरे पिता और मेरे दो भाई मार दिए गए। मेरी माँ, मेरे पति और मुझे खुद भी जेल में बंद कर दिया गया। मैंने कई-कई बरस का देश-निकाला झेला। इन तमाम दुःख-मुसीबतों के बावजूद, मैं खुद को खुशनसीब मानती हूँ। मैं खुशनसीब इसलिए हूँ क्योंकि मैं परम्पराओं को तोड़ते हुए किसी मुस्लिम देश की पहली, चुनाव के ज़रिये बनी हुई प्रधानमंत्री बन सकी। यह चुनाव इस बेहद गर्म बहस और विवाद के बीच हुआ था, जो इस्लाम के मुताबिक औरतों की भूमिका नहीं तय कर पा रहा था। इस चुनाव ने यह साबित कर दिया था कि एक मुसलमान औरत देश की प्रधानमंत्री बनकर, देश की अगुवाई कर सकती है और उस देश के सारे मर्द और औरतें अपनी रज़ामन्दी दे सकते हैं। मैं पाकिस्तान की जनता का धन्यवाद करती हूँ कि उसने मुझे यह सम्मान दिया।
इसके अतिरिक्त, अधुनिकतावाद और उग्रवाद के बीच चलने वाली बहस के साथ-साथ, 2 दिसम्बर, 1988 से, जब मैंने अपने पद की शपथ ग्रहण की है, समूची मुस्लिम दुनिया में औरतें बहुत आगे आई हैं।
इस दुनिया मे बहुत कम लोगों को यह मौका मिल पाता है कि वह समाज में कुछ बदलाव ला सके, देश में आधुनिकता की राह बना सके, और मामूली-भर सुविधाओं के होते हुए भी औरतों की भूमिका के बारे में घिसे-पिचे ढर्रे को तोड़ सकें और उन तमाम लोगों को यह उम्मीद दिला सकें कि बदलाव का सपना उनके लिए भी सच हो सकता है।
निश्चित रूप से मैंने खुद अपनी ज़िन्दगी कभी नहीं चुनी होती, लेकिन यह ज़िन्दगी ज़िम्मेदारी और खुशियों से भरी हुई है और इसमें बहुत कुछ करने के मौके हैं। मैं देख पा रही हूँ कि आनेवाले समय के पास मेरे लिए और मेरे देश पाकिस्तान के लिए और भी ज्यादा चुनौतियाँ हैं।
बीस साल पहले, उस समय की अपनी ज़िन्दगी की घटनाओं को देखते हुए—मेरे पिता की हत्या, मेरी जेल-यात्राएँ और मेरी राजनीति में उतरने की ज़रूरत—मुझे कतई इस बात की उम्मीद नहीं नज़र आती थी कि मेरी ज़िन्दगी में कभी कोई खुशी भी आएगी, मुझे प्यार मिलेगा, मैं शादी करते घर बसा पाऊँगी। मैंने तो सोचा था कि मेरी भी ज़िन्दगी इंग्लैण्ड की महारानी एलिज़ाबेथ प्रथम की तरह, जेल काटते हुए एकाकी गुज़रेगी, मेरी कभी शादी, बाल-बच्चे नहीं होंगे....लेकिन मेरे भाग्य ने इन नाउम्मीदियों को झुठला दिया। मुझे मुश्किलों के बावजूद शादी का सुख मिला। मुझे अपने पति की हिम्मत और वफादारी पर गर्व है कि वह हमारी शादी के इन उन्नीस बरसों में हमेशा मेरे साथ गहराई से जुड़े रहे। इस दौरान वह प्रधानमंत्री-आवास में रहे और उन्हेंने जेल में भी समय काटा, लेकिन हर हाल में मुझे लगा कि हमारे रिश्ते मज़बूत होते गये, भले ही हम कभी-कभी एक-दूसरे से दूर रहे और हमारे बीच दरार पैदा करने की तमाम कोशिशें की गईं। क्या मैंने अपने लिए ऐसी ही ज़िंदगी चाही या सोची थी ? शायद नहीं। लेकिन आज मुझे अपनी ज़िन्दगी के अलावा किसी भी और औरत की जगह होना गवारा नहीं—चाहे वह दुनिया की सबसे खुशहाल या खुशकिस्मत औरत ही क्यों न हो।
मैं अपनी संस्कृति, अपने धर्म और विरासत पर गर्व करती हूँ। सच्चे इस्लाम की मूल भावना में एकता और उदारता है, ऐसा मेरा मानना है और मेरे इसी विश्वास का मज़ाक बनाते हुए अतिवादी और भी उग्र हो गए हैं। मैं जानती हूँ कि मैं उस विश्वास की प्रतीक हूँ, जिससे यह तथाकथित‘जेहादी’, तालिबान और ‘अल का़यदा’ वाले बहुत डरते हैं। मैं एक महिला राजनीतिक नेता हूँ, जो पाकिस्तान में आधुनिकता, संचार-व्यवस्था, शिक्षा और टेक्नोलॉजी का माहौल बनाने के लिए संघर्षरत है। मैं समझती हूँ कि लोकतान्त्रिक देश पाक्सितान दुनिया-भर के करोड़ों मुसलमानों के लिए एक उम्मीद की किरण ला सकता है, जिन्हें निर्णय लेना है कि वह क्या चाहते हैं....बीते समय की संरचना या भविष्य में आनेवाले समय के शक्ति-स्रोत।
मैंने जितनी भी राजनीतिक लड़ाइयाँ लड़ीं, उनका कुछ-न-कुछ उद्देश्य था। उनका उद्देश्य सामाजिक न्याय और उदारवाद के पत्र में ठहरता था....सचमुच यह मुद्दे ऐसे हैं, जिनके लिए लड़ा जाना ही चाहिए। लेकिन, मुझे ऐसा लगता है कि मेरी राजनीतिक मात्रा ज्यादा चुनौती-भरी इसलिए रही है क्योंकि मैं एक औरत हूँ। यह साफ है कि आज के समय में एक औरत के लिए चाहे वह कहीं भी रह रही हो वह आसान काम नहीं है। फिर भी, हम औरतों को जी-तोड़ मेहनत करके यह सिद्ध कर देना है कि हम पुरुषों से किसी भी मायने में कमतर नहीं हैं।
हमें ज़्यादा देर तक काम करना होगा और कुर्बानियाँ देनी होंगी। हमें खुद को किसी भी तरह के भावनात्मक आक्रमण से बचाना होगा, जो ज़्यादातर अपने परिवार के लोगों द्वारा ही हम पर दुर्भावनापूर्ण ढंग से किए जाते हैं। यह दुःख की बात है कि बहुत-से लोग अब भी यही मानते हैं कि औरतों की ज़िन्दगी की डोर मर्दों के ही हाथ में होती है, इस तरह से वह मर्दों पर दबाव डालकर औरत तक पहुँच सकते हैं।
चाहे कुछ भी हो, हमें समाज के दोहरे मापदण्ड के लिए शिकायत नहीं करनी है, बल्कि उन्हें जीतने की तैयारी करनी है। हमें ऐसा हर हाल में करना है, भले ही हमें मर्दों के मुकाबले दुगुनी मेहनत करनी पड़े और दुगदुने समय तक काम करना पड़े। मैं अपनी माँ की शुक्रगुजार हूँ कि उन्होंने मुझे यह सिखाया कि माँ बनने की तैयारी एक शारीरिक क्रिया है और उसे रोजमर्रा के कामकाज में बाधा नहीं बनने देना चाहिए।
अपनी माँ की अपेक्षा पर खरी उतरने के लिए मैंने हर बार माँ बनने की तैयारी के दौरान किसी भी शारीरिक या भावनात्मक लक्षण को अपना रास्ता नहीं रोकने दिया। फिर भी, मुझे इस बात का अहसास था कि ऐसा कोई प्रसंग, जिसे हमारा पारिवारिक मामला माना जाना चाहिए, ज़रूर फौजी मुख्यालय में और अखबार के दफ्तरों में राजनीतिक चर्चा से जोड़कर देखा जाएगा, इसलिए मैंने अपने इस दौर के विवरण को पूरी तरह गोपनीय रखा। मैं खुशकिस्मत थी कि मुझे डॉ. फ्रेडी सेतना की ऐसी डॉक्टरी देख-रेख मिली और उन्होंने उसे सिर्फ अपने तक ही सीमित भी रखा।
बिलावल, बख्तावर और आसिफ़ा, मेरी तीन प्यारी-प्यारी सन्तानें हैं। यह मुझे खुशी और गौरव का भाव देती हैं। जब 1988 में, मैं अपने पहले बच्चे के जन्म की उम्मीद में थी और बिलावल होने वाला था, तब फौजी तानाशाह ने संसद भंग करके आम चुनावों की घोषणा कर दी थी। वह उसके आला फौजी अफसर सोचते थे कि ऐसी हालत में कोई औरत कैसे चुनाव सभाओं के लिए निकल पाएगी...लेकिन वे गलत साबित हुए....मैं निकली और मैंने चुनाव-अभियान में हिस्सा भी लिया। मैं अपने इस काम में लगी रही और मैंने वह चुनाव जीता, जो 21 सितम्बर, 1988 को बिलावल के जन्म के बस कुछ ही दिनों बाद कराए गए। बिलावल का पैदा होना मेरी ज़िन्दगी के लिए एक बेहद खुशी का दिन था, साथ ही उन चुनावों का जीतना भी, जिनके बारे में अटकलें थीं कि एक मुस्लिम औरत लोगों के दिल और उनके सोच को कभी नहीं जीत पाएगी....यह दोनों ही बड़ी खुशियाँ मुझे मेरी ज़िन्दगी में एक साथ मिलीं।
मेरे प्रधानमंत्री बनने के बाद मेरी माँ ने जल्दी मचाई कि मैं दूसरे बच्चे की तैयारी करूँ। उनका सोचना था कि मांओं को बच्चे जनने का काम जल्दी-जल्दी पूरा कर लेना चाहिए, ताकि उनके पास आगे उनको पालने-पोसने की चुनौतियों के लिए काफी समय रहे। मैंने उनकी सलाह मान ली थी।
जब मेरी दूसरे बच्चे के पेट में होने की खबर अभी गुप्त ही थी, मेरे फौजी जनरल लोगों ने यह तय किया कि मुझे फौज़ियों से बातचीत करने के लिए पाकिस्तान की सबसे ऊँची चोटी सियाचीन ग्लेशियर जाना चाहिए। भारत और पाकिस्तान इसी सियाचिन सरहद पर 1987 में एक युद्ध लड़ चुके थे और 1999 में करीब-करीब युद्ध की स्थिति फिर आ गई थी। मुझे चिन्ता हुई कि उस ऊँचाई पर कम ऑक्सीजन के कारण कहीं मेरे अजन्में बच्चे को कोई नुकसान न हो। मेरे डॉक्टर ने मेरा हौसला बढ़ाया कि मैं जा सकती हूँ। उसने समझाया कि ऑक्सीजन की कमी का असर माँ पर पड़ता हैं, जिसे ऑक्सीजन मॉस्क दिया जा सकता है और बच्चा बहरहाल सुरक्षित रहता है। खैर, ढेरों आशंकाओं के बावजूद भी मैं वहां गई।
यह हमारे फौजी दस्तों के बहुत हौसला बढ़ाने वाली बात थी कि उनकी प्रधानमंत्री उनसे मिलने, बात करने सियाचिन ग्लेशियर की उस ऊँचाई तक आई हैं। वह एक दिलकश नज़ारा था। सब तरफ़ बर्फ की सफेदी थी जो दूर क्षितिज पर नीचे आसमान में मिलती नज़र आ रही थी। आगे सीमा पर मुझे हिन्दुस्तानी फौज़ों की चौकियाँ नज़र आ रही थीं, जिनका सीधा मतलब था कि वहाँ शान्ति का एहसास रखना, धोखा खाने जैसा है।
जैसे ही राजनीतिक विपक्ष को यह पता चला कि मैं माँ बनने वाली हूँ, बेमतलब शोर-शराबा शुरू हो गया। उन्होंने राष्ट्रपति पर दबाव डाला कि मुझे बरखास्त कर दिया जाए। उन्होंने तर्क दिया कि पाकिस्तान के सरकारी नियमों में इस बात की गुंजाइश नहीं है कि प्रधानमंत्री सन्तान को जन्म देने के लिए छुट्टी पर जाएँ। उन्होंने कहा कि प्रसव के दैरान मैं सक्रिय नहीं रहूँगी और सरकारी काम-काज को परेशानी का सामना करना पड़ेगा। इसलिए गैर-संवैधानिक रूप से प्रेसिडेंट पर दबाव डाला गया कि इस सरकार को बरखात करके एक अन्तरिम सरकार बनाए जाने के लिए चुनाव कराए जाएँ।
मैंने विपक्ष की इस माँग को ठुकरा दिया। मैंने दिखायी कि कामकाजी स्त्रियों के लिए प्रसव के दौरान छुट्टी की व्यवस्था है जिसे मेरे पिता के समय में लागू किया गया था। मैंने ज़ोर देकर कहा कि यह नियम प्रधानमंत्री पर भी लागू होता है भले ही ऐसा स्पष्ट रूप से सरकार चलाने वाले लोगों के बारे में कहा नहीं गया है। मेरी सरकार के लोग मेरे साथ थे। कहा गया कि जिस स्थिति में पुरुष प्रधानमंत्री हटाया नहीं जा सकता, उस स्थिति में महिला प्रधानमंत्री को भी हटाए जाने का प्रश्न नहीं उठता।
विपक्ष ज़िद पर था और उसने तय किया कि मुझे हटाये जाने के लिए हड़ताल की जाएगी। अब मुझे भी अपनी योजनाएँ बनानी थीं। मेरे पिता ने मुझे सिखाया था कि राजनीति में समय का बड़ा महत्त्व है। मैंने अपने डॉक्टर से बात की। उसने बताया कि मेरे प्रसव का समय पूरा हो चुका है। मैंने उनसे इज़ाज़ लेकर यह तय किया कि मैं उसी दिन, जिस दिन हड़ताल की घोषणा थी। ऑपरेशन से बच्चे को जन्म दे दूँगी।
मैं नहीं चाहती थी कि कोई पारस्परिक बात, जो प्रसव से जुड़ी हुई हो, मेरे काम में बाधा बने। इसलिए अपनी कैसी भी हालत के बावजूद मैंने शायद किसी मर्द प्रधानमंत्री से भी ज्यादा काम निपटाया, उसी दिन अपने सांसदों के साथ एक मीटिंग की और कराची के लिए चल पड़ी। सवेरे मैं बहुत जल्दी उठी और अपनी एक सहेली के साथ, उसकी कार में बैठकर निकल गई। वह एक छोटी कार थी, उस काली मर्सडीज़ से अलग, जिसे मैं सरकारी काम-काज के दौरान इस्तेमाल करती थी। ड्यूटी पर हाज़िर पुलिस वाले ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया। उनका ध्यान मेरे घर में आनेवाली कारों की तरफ ज्यादा होता, बजाय, बाहर जानेवाली किसी गाड़ी पर.....
जब मेरी कार अस्पताल पहुँची, जहाँ डॉक्टर सेतना हमारा इन्तज़ार कर रही थीं, मेरा दिल बुरी तरह धड़क रहा था। जब मैं कार से उतरी, मैंने अस्पताल के लोगों के चेहरों पर गहरी हैरत का भाव देखा। मुझे पता था कि यह खबर मोबाइल फोनों के ज़रिये तेज़ी से फैलनी शुरू हो जाएगी क्योंकि मोबाइल फोन इस्तेमाल करने वाला दक्षिण पूर्व और मध्य एशिया में पाकिस्तान पहला राष्ट्र था। मैंने जल्दी से हॉल का रास्ता पार किया और ऑपरेशन थियेटर में चली गई। मुझे पता था कि मेरी माँ और मेरे पति भी, हमारे कार्यक्रम के अनुसार पीछे-पीछे आ रहे होंगे। मैंने जैसे ही बेहोशी की धुंध आँखें खोलनी शुरू की और अस्पताल की ट्राली को आपरेशन थियेटर से प्राइवेट कमरे की तरफ आते देखा, मैंने सुना कि मेरे पति ने खुशी से कहा, ‘‘हमारी बेटी ई है !’’......मेरी माँ का चेहरा भी खिल उठा था। मैंने अपनी बेटी का नाम रखा, बख्तावर, जिसका मतलब है भाग्यशाली....और वह सौभाग्य लेकर आई। हड़ताल ठप्प हो गई और विपक्ष का मंसूबा टूट गया।
मेरे पास सारी दुनिया से बधाई सन्देश आए। देशों के प्रधानमंत्री से लेकर आम नागरिकों तक, सबने मुझे बधाई दी और अपनी खुशी का इज़हार किया। खासतौर से एक युवती के लिए यह एक बड़ा आदर्श सामने रखने वाली बात थी, कि एक औरत काम करते-करते और देश की शीर्ष स्थिति में रहते हुए भी एक सन्तान को जन्म दे सकती है। अगले दिन मैं काम पर वापस आ गई और मैंने फाइलें देखनी और कागजों पर दस्तखत करने शुरू कर दिये।
मुझे बाद में पता चला कि मैं पहली ऐसी राष्टाध्यक्ष थी, जिसने काम-काज के दौरान एक बच्चे को जन्म दिया था। इस तरह मैंने एक महिला प्रधानमंत्री की तरह, महिलाओं की उन्नति के रास्ते में आड़े आने वाली परम्परा की दीवार प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए तोड़ दी।
बख्तावर का जन्म 1990 में हुआ था। उसके सात महीने बाद 6 अगस्त को प्रेसिडेंट ने लोकतान्त्रिक परम्परा को नकारते हुए मेरी सरकार को बरखास्त कर दिया, जबकि सारी दुनिया का ध्यान कुवैत पर इराक के कब्जे की ओर केन्द्रित था। उस समय मेरे पति गिरफ्तार कर लिए गए और मेरी माँ ने मुझे सलाह दी कि मैं अपने बच्चों को विदेश भेज दूँ। मेरे लिए यह दिल चीर देने वाला प्रस्ताव था। विलावल अभी सितम्बर, 1990 में दो बरस का हुआ था और बख्तावर को तो अभी साल भी पूरा होना बाकी था। उनसे बिछुड़ने का ख्याल ही मेरे लिए असहनीय था। मेरी बहन, जो लन्दन में रह रही थी। मेरी बहन तो यही कहती थी कि उसकी चिन्ता मत करो। जब भी मेरी उससे फोन पर बात होती थी, उसका यही कहना होता था। फिर भी, मैं उन सपनों से कभी मुक्त नहीं हो पाई।
मेरी सरकार के बरखास्त कर दिए जाने के बाद कराची शहर अराजकता और बदइन्तज़ामी की लपेट में आ गया। आतंकवाद बढ़ता ही जा रही था। निर्दोष नागरिक बसों में जाते समय, अपने घरों के बाहर और अपने दफ्तरों में मारे जा रहे थे। मैं जानती थी कि मेरे बच्चों का लन्दन में रहना उनके लिए ज्यादा सुरक्षित है, फिर भी मेरे लिए रात को चैन की नींद सो पाना कठिन था, मेरे सपने मुझे सोते-सोते जगा देते थे।
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