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पौराणिक >> गुहावासिनी

गुहावासिनी

भगवतीशरण मिश्र

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :203
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6395
आईएसबीएन :978-81-906897-0

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माता वैष्णों देवी पर आधारित उपन्यास....

Guhavasini

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

डॉ. भगवतीशरण मिश्र, पौराणिक और ऐतिहासिक उपन्यासी के लेखन में अग्रणी स्थान रखते हैं। अब तक इनके ग्रंथ प्रबुद्ध पाठकों के लिए रहे हैं।
मैंने सोचा कि नई पीढ़ी को भी अपनी संस्कृति और सभ्यता से अगवत होना आवश्यक है, कम-से- कम अपने देवी-देवताओं से। यही सोचकर मैंन डाँ. मिश्र से अनुरोध किया कि वह सरल-सहज भाषा में और अपनी प्रसिद्ध आकर्षक औपन्यासिक शैली में आम पाठक को ध्यान में रखकर कुछ पुस्तकें लिखे।
प्रस्तुत है इस कड़ी में दूसरी पुस्तक ‘गुहावासिनी’ जो माता वैष्णों देवी पर आधारित है। वैष्णों देवी मनोकामना-पूर्ति के लिए प्रसिद्ध हैं। प्रति माह यहाँ लाखों श्रद्धालु आते हैं। पूरे भारत और उसके बाहर के भी तीर्थयात्री माता के दरबार में पहुँचते हैं।
पुस्तक की शैली रोचक और भाषा सरल हैं। प्रबुद्ध एवं सामान्य दोनों प्रकार के पाठकों के लिए यह उपयोगी हैं और इसके पठन-मात्र से वे माता वैष्णों की कृपा के पात्र बनकर रहेंगे।
इस श्रंखला में हम शीघ्र ही और पुस्तकें भी देगें जिससे हमारी प्राचीन विरासत से हमारा पाठक-वर्ग पूर्ण परिचित हो सके। आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।

 

प्राक्कथन

 

हम अपनी विरासत एवं संस्कृति को भूलते जा रहे हैं। अपने धार्मिक अवतारों, देवी –देवताओं, तीर्थ-स्थानों से हमारा अपरिचय बढ़ता जा रहा हैं। नई पीढ़ी का तो ज्ञान इस क्षेत्र में और कम हैं। ऐसा नहीं कि यह पीढ़ी धार्मिक है ही नहीं। मन्दिरों-मठों में जाएँ तो इनकी संख्या निरन्तर बढ़ती ही जा रही हैं क्योंकि उनकी समस्याएँ है, आकांक्षाएँ हैं, जीवन में आगे बढ़ने की प्रवृत्ति है। जीवन –संघर्ष कठिन हो गया है। प्रतियोगिता बढ़ गई हैं। ऐसे में नई पीढ़ी भी देवी –देवाताओं की ओर मुड़ी है, मुड़ती जा रही हैं।

इस पीढ़ी तथा अन्य लोगों की भी विवशता यह है कि उन्हे अपने धर्म तथा देवी-देवताओं के सम्बन्ध में पर्याप्त ज्ञान नहीं है। कुछ के ऊपर तो पुस्तकें हैं भी नहीं। कुछ के ऊपर हैं भी तो इतनी बड़ी और कठिन की कोई उन्हें छूना ही नहीं चाहता। वे पढ़ने में अरूचिकर भी लगती हैं। हमने निर्णय किया कि आकर्षण औपन्यासिक शैली में इन विषयों पर पुस्तकें लिखी जाएँ तो उन्हें पढ़ने में एक बड़े पाठक-वर्ग की रूचि होगी। अपने धर्म, अपने संस्कार- संस्कृति और अपने अवतारों तथा देवी शक्तियों के सम्बन्ध में वे पहले से अधिक जान पाएँगे। जानकारी से उनकी आस्था में वृद्धि होगी और उनकी धार्मिक-आध्यात्मिक प्रवृत्ति में भी वृद्धि होगी।

ऐसे में उनकी, देवस्थानों में रूचि बढ़ेगी, पूजा, प्रार्थना मे भी। तीर्थव्रत में भी। इस सबका लाभ तो उन्हें मिलेगा ही। उनकी मनोकामनाओं की पू्र्ति होगी। उनकी समस्याओं का समाधान होगा।

 

डॉ. भगवतीशरण मिश्र

 

गुहावासिनी

 

हिमगिरि के पाद-प्रदेश की यह भूमि सचमुच देव-भूमि ही है। कह लीजिए देवी-भूमि। ऊपर आसमान का अछोर नीला विस्तार और नीचे हरीतिमा-आच्छादित ये पर्वत-श्रृंखलाएँ, न जाने कहाँ से आरम्भ हुई और कहाँ तक जाती हुई। फिर भी आदि अन्त है इन पर्वतीय विस्तार का पर नहीं आदि-अन्त है, इन अनन्त शक्तियों का। सर्व कामना-पूर्ति तत्पर इन महादेवियों का।

धन्य है भारत –भूमि का यह पहाड़ी-पाषाणी भू-भाग जहाँ इन दैवी शक्तियों ने सदा के लिए अपना आवास बनाया। अन्ततः क्या है जन –शून्य, आबादी –रहित इस प्रदेश में कि यह इन्हें भा गया, ये इस पर आसक्त हो गई और इसे अपना आवास बनाकर यहीं होकर रह गई। पूछना पड़ेगा इन्हीं से। देवर्षि और ब्रह्याण्ड –विख्यात ब्रह्य-पुत्र वीणा-प्रिय एवं सतत नारायण-नारायण की रट लगाने वाले यायावर नारदजी ने मन-ही-मन संकल्प लिया।

जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ कवि और जहाँ न पहुँचे पवन वहाँ पहुँचे नारद। यह उक्ति देवताओं के मध्य अच्छा मनोरंजन का विषय थी। नारद के लिए कौन स्थान अगम्य था और किस देवी-देवता को अपना कल्याण प्रिय नहीं था कि उनसे वार्तालाप से कन्नी काटे। काटे तो उसका फल भोगे। श्राप तो देवर्षि की जिहा के आग्रभाग विष्णु को भी श्राप दे दिया था- ‘आपने मेरे साथ छल किया। मुझे अति सुन्दरी राजकन्या आप ही के कारण पत्नी के रूप में मिलते-मिलते रह गई। अब आप इस छल-पूर्ण व्यवहार का फल भोगने को भी प्रस्तुत हो जाएँ। विष्णुलोक आपको बहुत प्रिय हैं न ! यहाँ का ऐश्वर्य, यहाँ की अप्रतिम शोभा, देवताओं की प्रार्थना और सबसे ऊपर अपनी प्राण-प्रिया, सौन्दर्य की साक्षात् विग्रह महालक्ष्मी का साथ ! वही महालक्ष्मी जो सागर –मन्थन के समय प्राप्त हुई थीं और उनके असामान्य सौन्दर्य से मुग्ध हो आपके उन्हें पत्नी के रूप में अपना लिया था। स्वार्थीं तो आप सदा से रहे हैं। हर प्रिय वस्तु आपको ही चाहिए। सागर-मन्थन में आपने कौन-सा श्रम किया था ! उस कठिन कार्य को तो बेचारे दैत्यों एवं दानवों ने सम्पन्न किया था और आप ले, बैठे सागर से प्राप्त सर्वाधिक अमूल्य अवदान लक्ष्मी को जैसे आज के स्वयंवर में पहुँच कर, जो राजकन्या मुझे वरण करती, उसकी वरमाला भी आपने अपने गले में डलवा ली। आपकों शापित किए बिना मैं रह नहीं सकता।’’

‘‘देवर्षि, आरोप तो आपने मुझ पर खूब लगाए।’’ भगवान विष्णु बोले-‘‘व्यंग्य –वाणों से अब आप मुझे कितना विधीएगा ? उचित हो, जो कुछ आपने मन में ठाना हो वही कर दीजिए। मुझे शाप ही दे दीजिए। सृष्टिकर्त्ता पितामह ब्रह्या के पुत्र होने के नाते आपके श्राप को मैं सहर्ष शिरोधार्य करूँगा। आपके श्राप में भी मेरा या देवताओं अथवा मनुष्यों का कल्याण ही निहित होगा।’’

‘‘श्राप को शिरोधार्य करने का दम्भ नहीं दिखाइए। मैं देवर्षि हूँ, कोई ऋषि या महर्षि नहीं कि आप उसे काटने में सक्षम होगे। मेरा श्राप तो अमोघ होता है, वह किसी के काटे नहीं कटता, मेरे जन्मदाता ब्रह्या के भी नहीं।’’ देवर्षि कभी उतने क्रोधी नहीं रहे पर आज उनके सपनों पर पानी फिर गया था, अतः उनके क्रोध का कोई पारावार नहीं था।

‘‘देवर्षि! क्रोध तमोगुण का प्रतीक है और वह आपकों शोभा नहीं देता। जहाँ तक आपके साथ घटी दुर्भाग्यपूर्ण घटना का प्रश्न हैं, उसमें मेरा कोई अपराध नहीं। आप ही तो मेरे लाख मना करने पर भी मेरी माया की शक्ति जानने की हठधर्मिता पर उतर आए थे, क्षमा कीजिएगा, इस शब्द के प्रयोग के लिए पर सच तो कहना ही पड़ेगा चाहे वह कितना ही कटु हो। जिस राजकन्या एवं राजस्वयंवर की आप बात कर रहे हैं, वह कुछ भी वास्तविक नहीं था। वह सब तो मेरी माया से उत्पन्न था। फिर, आप आजीवन ब्रह्यचारी को किसी राजकन्या से क्या लेना-देना था ? जो हो, आपने मेरी माया देखने की इच्छा प्रकट की और मैंने आप देवर्षि की इच्छा की पूर्ति कर दी। मैं तो निरपराध हूँ। शान्त मन से सोचिए एक निरपराध को दण्ड देना कहाँ तक उचित है, वह भी पितामह-पुत्र देवर्षि नारद के लिए ! भला करने का भी युग नहीं रहा।’’

‘‘यह सब तो ठीक पर आपने मेरे सुन्दर से देदीप्यमान चेहरे को वानर का स्वरूप क्यों दे दिया ? मैं तो उस राजकन्या को प्राप्त करने के लिए आपका रूप माँगने आया था ?’’

‘‘आप ही के कल्याण के लिए वर्ना आप देवर्षि नहीं रहते। ब्रह्यचर्य-भ्रष्ट होकर एक भीगी मात्र बनकर रह जाते।’’ विष्णु मुसकराए थे।
‘‘आपकी यह कपटपूर्ण तथाकथित भुवन-मोहिनी मुसकान मेरी क्रोधाग्नि में घी का कार्य कर रही हैं। आप मुझे नर से वानर बना देंगे, इसकी तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी। मुझे आपके छल का पता होता तो मैं आपके पास कभी रूप की भिक्षा माँगने नहीं आता। आप अपने इस दुष्कृत्य के लिए पश्चात्ताप –ग्रस्त भी प्रतीत नहीं होते। मैं अब आपकों श्राप दिए बिना नहीं रह सकता।’’
नारद ने अपने हाथ में पड़े भारी –भरकम कमण्डलु की ओर इंगित करते हुए कहा।
‘‘मैंने कुकृत्य नहीं देवर्षि आपकों पथ-भ्रष्ट होने से रोकने का सुकृत्य ही किया हैं। अब आप चाहें तो अभिशाप दें या वरदान, मैं सभी को शिरोधार्य करने को प्रस्तुत हूँ। ऐसे भी मुझे पता श्राप देने को कटिवद्ध हैं तभी यह भारी –भरकम कमण्डलु लिए हुए हैं। वीणा –धारी के हाथ में कमण्डलु देखते ही मैं समझ गया था कि आज मेरा कुशल नहीं हैं। इसमें अवश्य ही जाहवी-जल भर रखा होगा लेकिन इतने भारी जल-पात्र की क्या आवश्यकता थी ? किस धातु से निर्मित है यह विशाल पात्र ? इसे उठाने में भी आपको कितना कष्ट होता होगा ?’’

नारद का चेहरा क्रोधाधिक्य से अग्नि की तरह तप आया। वह बोल पड़े,
‘‘अब आप मेरा मजाक बनाने पर तुले हैं ! किस धातु से निर्मित है यह आपके शब्दों में विशाल जलपात्र, इसका पता सर्वज्ञाता विष्णु को भी नहीं हैं ? पता भी कैसे हो, अभी तो आप प्रपंच में पड़ें हैं। प्रपंची की बुद्धि काम ही कब करती हैं ? जानना ही चाहते हैं तो जानिए, अष्टधातु से निर्मित है यह कमण्डलु। इसमें सुरक्षित जल कुछ अधिक ही ऊर्जावान हो आता है। और इसे विशाल तो होना ही था। श्राप किसी साधारण देव-मनुज को नहीं साक्षात्त विष्णु को देना है अतः गंगाजल भी पर्याप्त होना था, वह किसी छोटे पात्र में नहीं आता। जहाँ तक इसके भार को उठाने का प्रश्न है, उसकी चिन्ता आपको क्यों होने लगी ? जब मेरी दुर्दशा बनाते हुए आपने मेरी चिन्ता नहीं की तो इस जलपात्र के उठाने से मुझे कष्ट होने की बात आपको क्यों सालने लगी। और सुनिए, मैं तो आया था कोई छोटा-मोटा श्राप देकर अपने अपमान का दर्द भूलने पर आपने जिस तरह मेरा मखौल उड़ाया है, मैं आपकों अब पूरी तरह शापित किए बिना शान्त नहीं हो सकता।’’

‘‘अशान्ति बुरी बात है देवर्षि ! उसकी दाहक आग में आप व्यर्थ न जलिए। मैं अभिशप्त होने को प्रस्तुत हूँ, आप मुझे श्राप दे अपने को सहज करे। आप कहते हैं कि मैं आपका अपराधी हूँ तो मैं अपने अपराध को स्वीकार करता हूँ आप मुझे अवश्य ही दण्डित करें।’’ भगवान विष्णु ने यह कहकर सिर नत कर लिया।
‘‘तो फिर ऐसा ही हो’’ नारद ने कहा था और अपने दीर्घ कमण्डलु से अंजलि में भरपूर जाह्नवी-जल ले उसे विष्णु पर छि़ड़कते हुए कहा, ‘‘प्रथम श्राप तो यह कि आपने मुझे पत्नी के मुख से वंचित किया, अतः आप पत्नी के रहते भी उसके सुख से वंचित रहिएगा।’’

‘‘तो क्या लक्ष्मी से मेरा वियोग हो जाएगा ? देविर्ष का श्राप तो अमोध होता है। वह अव्यर्थ कहाँ होगा ? पर लक्ष्मी से पृथक होकर मैं कैसे रह पाऊँगा और मुझसे बिछुड़कर पदम-पुष्प के सदृश सुकोमल-गाता लक्ष्मी तो ग्रीष्म की माधवी लता की तरह मुरझा जाएगी।

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