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चैत की दोपहर में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6393
आईएसबीएन :0000000000

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चैत की दोपहर में नारी की ईर्ष्या भावना, अधिकार लिप्सा तथा नैसर्गिक संवेदना का चित्रण है।...


''डरने की कौन-सी बात है!''
''तुम्हारा हाव-भाव देखकर ऐसा लग रहा है जैसे मैं किसी बुरे मकसद से तुम्हें लिये जा रहा हूँ।''
''धत्त!
यह कहकर अरण्य हँसते हुए वोला, ''तुममें लेकिन काफी कुछ बदलाव आ गया है। पहले तुम बहुत ही डरपोक थीं।''

''हूँ।''
अवंती चुप्पी साधे चलने लगी।
अरण्य ने देखा, वे लोग एयरपोर्ट के करीब पहुँच गए हैं। बोला, ''अविराम चलाए जा रही हो। क्या कर रही हो?''
''तुम्हारी बेचैनी एन्जॉय कर रही हूँ।''
अरण्य ने इतनी देर बाद एक सिगरेट सुलगाई। एक कश लेने के बाद बोला, ''वे औरतें जो एक व्रत करती हैं, छोटी बुआ को करते देख चुका हूँ। 'मरकर मनुष्य बनूंगी, अमुक बनूंगी।' सो सोच रहा हूँ, यह नाचीज भी उसी प्रकार का एक वरदान माँगेगा-मरकर मनुष्य बनूंगा, बड़े आदमी की घरवाली बनूँगा।''
''हालात इतने लुभावने प्रतीत हो रहे हैं कि मर्द होकर पैदा होने के बजाय औरत बनकर पैदा होने की ख्वाहिश हो रही है?''
''क्यों, औरत होकर पैदा होना क्या बुरा है? लेकिन हाँ, एक शर्त है, बड़े आदमी की दुलारी पत्नी बनूँगा।''
'' 'दुलारी'-यह तुमसे किसने कहा?''
''कहने की जरूरत नहीं पड़ती। समझ लेना पड़ता है। हाँ एक बात, इसी तरह पर्स में दो-चार हजार रुपया लेकर बाहर निकलती हो?'' 
''शायद निकलती हूँ और न भी निकलती हूँ। मगर इसमें दुलारी होने का तुम्हें कौन-सा परिचय मिला? इच्छानुसार कुछ रुपए खर्च कर पाना ही क्या सुख की पराकाष्ठा है?''
अयण्य ने जोरदार शब्दों में कहा, ''मुझे तो लगता है सुख की यही पराकाष्ठा है।''
अवंती ने एक लम्बी साँस लेकर कहा, ''अच्छी बात है।''
अरण्य हिल-डुलकर बैठा। बोला, ''यह बात तुम अस्वीकार कर सकती हो, अवंती? श्यामल की ही बात लो, उसकी धारणा नहीं थी कि पत्नी के लिए इतना खर्च करना पड़ेगा। नार्मल हालत थी, ऑपरेशन के बारे में सोचा भी नहीं था। सिर्फ नर्सिंग-होंम के कई दिनों के खर्च का हिसाब कर बैठा था। सुना, ऑपरेशन की ही फीस दो हजार रुपया है। इसके अलावा और कितना कुछ। मुझसे कहा, तकदीर अच्छी थी कि अवंती के रुपए लगे हाथ मिल गए। लेकिन कितने दिनों में कर्ज चुका पाऊँगा...'' 
''अरण्य, तुम क्या मेरे सिर का दर्द और बढ़ा देना चाहते हो?''
कुछेक क्षण पहले कृतज्ञता से सराबोर होकर श्यामल ने धन्यवाद जताने की कोशिश की थी। अवंती ने कहा था, ''अपनी नासमझी को जरा कम करने की कोशिश करो, श्यामल!''

अरण्य को उस बात की याद आ गई। बोला, ''तुम्हारे सिर का दर्द बढ़ा सकूं, ऐसी सामर्थ्य नहीं हैं मुझमें। हाँ, मैं यही कहना चाहता था कि रुपए को माटी नाना और माटी को रुपए में बदलने का सुख निहायत कम नहीं होता।''
''हो सकता है, यही सच हो!''
अवंती ने एक लम्बी साँस ली शायद। या फिर उसे दबा लिया।
सिगरेट खत्म कर उसे सड़क पर फेंक दिया और बोला, ''ड्राइविंग तो बहुत अच्छी तरह सीख ली है।''
''न सीखने से अलीपुर कें मित्तिर भवन का सम्मान अक्षुष्ण रहेगा? 'टूटू मित्तिर की पत्नी' गाड़ी चलाना नहीं जानती हो, यह कितने शर्म की बात है!''
अरण्य ने कहा, ''वाह! तुम्हारी कहानी की पौध से अभिजात की खासी अच्छी खुशबू आ रही है। इसे तो दिन-भर तुम अपने अधिकार में रखे रही, मिस्टर को असुविधा नहीं हो रही है?''
यह कहते ही अरण्य की आँखों के सामने अवंती के दो गैरेजों का दृश्य तिर आया। इसलिए अपने कथन में एक डैश खींचकर पुन: बोला, ''या फिर इस लाल गाड़ी पर उसकी मालकिन का ही एका- धिकार है?''
''पूरे तौर पर!''
अवंती बोली, ''यह स्त्री-धन है। शादी के समय ननिया ससुर ने गिन्नी के बदले गाड़ी देकर दोहंता-वधू का मुख देखा था।''
''वण्डरफुल! कितनी सुन्दर परिकल्पना! गिन्ती के बदले गाड़ी! लेकिन तुम लोगों के कितनी तरह के ससुर होते हैं, यही सोच रहा हूँ। ननिया ससुर का मानी? ससुर का बड़ा भाई?''
''धत्त! वह तो जेठ ससुर कहलाता है। बताया न, दोहता-वधू! ननिया ससुर होते हैं सास के पिता! धनी आदमी हैं। देने के समय शर्त रखी थी, तीन महीने के अन्दर ड्राइविंग सीख, उन्हें बगल में बिठाकर गंगाकी हवा खिलाकर लाना होगा।''
''वह खासे मजेदार आदमी हैं!''
''धारणा गलत नहीं है तुम्हारी। बहुत सारे रसों के रसिक हैं। लेकिन इन लोगों का प्यार बड़ा ही भारी होता है। ढोने में पसीना छूटने लगता है। बहरहाल, इतनी हवा खाने के बावजूद सिर का दर्द दूर नहीं हुआ। मीठी बासंती हवा।''
'यह सच है कि हवा मदिर और मधुर ही है।
चैत की दोपहर की तपिश की चैत की शाम में याद भी नहीं आती। इसके अलावा बसंत ऋतु के दर्शन कलकत्ता में न होते हों, ऐसी बात नहीं! जो लोग निंदक हैं, वे कहते हैं, कलकत्ता में 'बसंत केवल पेड़-पौधों में ही उभरकर आता है,' लेकिन यह बात सफेद झूठ है। मन-प्राणों को उद्वेलित करने वाली हवा बहती है। प्रकृति का जिस मौसम में जो कर्तव्य होता है, उसका वह सही तौर पर ही पालन करती है।''
अरण्य बोला, 'मुझे लगता है, घर जाकर खाना खाकर लेट रहने से ही...''
''खाकर!''
अवंती जैसे आसमान से नीचे गिर पड़ी। बोली, ''अरे, एक बहुत ही जरूरी बात की याद दिला दी। आज तीसरे पहर चाय पी नहीं सकी। तीसरे पहर ठीक समय पर चाय न पीने से सिर बेहद दुखने लगता है। तुम्हारा दुखता नहीं है?''
''मेरा?''
अरण्य फिर जोर से हँस पड़ा। बोला, ''ठीक समय? वह कौन-सी चीज है, मालूम नहीं।''
''हम लोगों को तो जानना ही पड़ता है!''
अवंती कपोलों पर उड़ती लटों को बाएँ हाथ से हटाकर कहती हैं, ''और इसे जानते-जानते ही बुरी आदत के अंकुर उग आते हैं। इसलिए आओ, थोड़ी-सी चाय पी लें।''
''यहाँ चाय कहाँ मिलेगी?''
''कितने आश्चर्य की बात है! एयरपोर्ट के इर्द-गिर्द कहीं चाय नहीं मिलेगी? कम-से-कम थोड़ी-सी कॉफी? कुछ सोलिड खाना भी पड़ेगा। जोरों की भूख लगी है।''
अरण्य को समझने में देर न लगी कि यह अरण्य को खिलाने की चालबाजी है। औरतें आमतौर से भूख लगने की बात स्वीकार नहीं करतीं। मगर समझने के साथ-साथ यह भी महसूस किया कि उसे भी जोरों की भूख लगी है।
खाकर और खिलाकर अवंती फिर से गाड़ी पर बैठ गई और बोली, ''आओ, तुम्हें फोर्टीफाइव पकड़वा दें।''
''अरे, वह तो यहीं है, पकड़वाने की जरूरत ही क्या है?"
''अहा, पकड़वा देने का गौरव प्राप्त करने दोगे तो हर्ज ही क्या है?''
''तो फिर प्राप्त करो।''
अरण्य फिर से गाड़ी पर बैठ गया।
आहिस्ता से बोला, ''आज का दिन अजीब ही रहा। किसने सोचा था इस तरह...''
''जीवन में कितना कुछ ऐसा घटित होता है जिसके बारे में हम सोच भी नहीं सकते। एक ही शहर में फिर से मुलाकात होने में तीन साल लगेंगे, यह किसने सोचा था?''
भीड़ से ठसाठस भरी पैतालीस नम्बर की एक बस आ रही है।
ठसाठस भरी कहना ही पर्याप्त नहीं होगा। यही आखिरी ट्रिप है।
अवंती ने बुझे हुए स्वर में कहा, ''इसके अन्दर कैसे अरण्य? दरवाजे पर आदमी लटके हुए हैं।''
''यही तो सुविधा है। किसी की पैंट का हिपपॉकेट कसकर पकड़े लटकते हुए चला जाऊँगा।''
गाड़ी से नीचे उतर पड़ा अरण्य।
न मालुम कैसे तो घुस भी गया, क्योंकि अवंती ने वाद में उसे फुटपाथ पर खड़ा नहीं देखा।
स्टीयरिंग पर हाथ-रखते ही याद आया, थोड़ी देर पहले सोचा था, पेट्रोल ले लेगी पर पेट्रोल-पम्प तो पीछे ही छूट गया। यदि पूरा पेट्रोल खत्म हो गया हो तो फिर घर तक नहीं पहुँच पाएगी।
और इधर अरण्य ने पैर टिकाने की जगह पाते ही सोचा, अवंती से पूछ नहीं सका कि चाय पीने के बाद सिर का दर्द दूर हुआ या नहीं।
इसे बदकिस्मती ही कहा जाएगा कि टूटू मित्तिर आज जल्दी ही घर लौट आया है। क्रोध से आगबबूला हो रहा था टूटू मित्तिर और बेचारे लोकनाथ को बार-बार कठघरे में खड़ा करके जिरह कर रहा था। ठीक किस समय अवंती बाहर निकली थी, क्या कहकर गई थी, जिस आदमी के साथ गई थी, वह देखने में कैसा था, इसके पहले लोकनाथ ने उस आदमी को देखा है या नहीं, अवंती से उसके पहले क्या बातें हुई थीं बगैरह-बगैरह। एक ही बात को घुमा-फिराकर बार-बार पूछ रहा था।

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