नारी विमर्श >> अपने अपने दर्पण में अपने अपने दर्पण मेंआशापूर्णा देवी
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इस उपन्यास की पटभूमि एक बंगाली समाज है जो एक बदलाव के मोड़ से गुज़र रहा है। यहाँ प्राचीन धारणाओं, प्राचीन आदर्शों तथा मूल्यबोध पर आधारित मानव जीवन नवीन सभ्यता की चकाचौंध से कुछ विभ्रांत-सा हो गया है।...
ऐसे नाटकीय पल में मंच पर गदा लेकर भीम का प्रवेश।...क्षेत्रबाला कमरे से
निकल कर बाहर आ गईं।
"कब से घर के लोग सोच-सोच कर पागल हुए जा रहे हैं, भयंकर दुश्चिंता से बेचैन
हैं सब, देवी-देवताओं की चौखट पर माथे टेके जा रहे हैं, मन्नतें माँगी जा रही
हैं और इधर जिनके कारण इतना कांड हो गया, उन्हें कोई सजा ही नहीं हुई? केवल
प्यार-भरे मखमली शब्दों से कुशल-वार्ता पूछी गई?"
जिस मझले भैया को क्षेत्रबाला गुरु, गोविन्द और इष्टदेव-सा मान देती हैं, उन
पर कभी नाराज नहीं होती, ऐसी बात नहीं है। उनका दब्बूपन देखकर नाराज होती है
क्षेत्रबाला। समालोचना भी करती है पीछे में, मगर आज की परिस्थिति तो हद ही
पार कर चुकी है।
क्षेत्रबाला और धीरज नहीं रख सकीं, सहिष्णु बनकर बैठी भी नहीं रह सकीं। बुखार
में तड़पती हुई नहीं, हाथ-पाँव में पट्टी बँधवा कर भी नहीं, जवान उम्र की दो
लड़कियाँ भली-चंगी तबीयत लेकर आधी रात को घर पहुँचीं, क्या करके आईं ईश्वर
जाने! क्षेत्रबाला के होते हुए इसका फैसला नहीं होगा? पूछताछ नहीं होगी? सजा
नहीं होगी?
शेरनी की तरह क्षेत्रबाला उन पर झपट पड़ी। उन्हें देखकर या उनकी आवाज सुनकर
पता नहीं चल रहा था कि उनका एकादशी का उपवास है।
लड़कियाँ ट्रेन से उतरी थीं, अत: कपड़े स्पर्श के लायक नहीं थे, यह भी भूल गईं
वह। दोनों हाथों से दोनों के सर पकड़ कर नारियल फोड़ने के ढंग से जोर से ठोककर
बोलीं, "बायस्कोप देखकर इतनी देर से घर लौटी? कहाँ थी अब तक, हरामजादी? बता,
कहाँ थी?"
हमला अचानक हुआ इसीलिए ठोकने में समर्थ हो गईं, दूसरी बार उन दोनों ने सर हटा
लिया।
क्षेत्रबाला की धोती खुलने लगी। गनीमत है कि समीज थी अन्दर। फिर भी उस धोती
को सम्हालने में उनके हाथ व्यस्त हो गये, स्वर से ही लड़ाई जारी रखी,
"चुप रहने से काम नहीं चलेगा, कहना तो पड़ेगा ही। बता, किस भाड़ में क्या कर
रही थी अब तक?"
तब तक आँसू सूख चुके थे। अनिन्दिता कुछ कहने जा रही थी कि शाश्वती मुश्किल से
स्वर को शांत रखकर बोली, "करते क्या? ट्रेन लेट होने से क्या किया जा सकता
था?"
"ट्रेन लेट? ट्रेन लेट? तू मुझे उल्लू बना रही है? बायस्कोप तो छ: बजे खत्म
होता है, तब से ट्रेन लेट इतनी देर तक?"
अब अनिन्दिता हिम्मत जुटाकर क्रोधित स्वर में बोली, "नहीं तो क्या हम झूठ बोल
रहे हैं?"
"झूठ नहीं बोल रही हैं?"
क्षेत्रबाला को अपना 'गृहिणी' का पद याद आ गया, उसकी जिम्मेदारी के बारे में
सचेतन हो गईं वह। अपने अधीनस्थ लोगों को पूरे नियंत्रण में रखना उनका उचित
कर्त्तव्य है, यह भावना प्रखर हो उठी। ऐसा नहीं करेंगी तो क्या गृहलक्ष्मी
रूठकर न चली जाएगी?
"क्या इस दुस्साहस को बढ़ने दिया जा सकता है? पहले दिन ही ठंडा न कर दिया जाय
तो हिम्मत बढ़ते-बढ़ते आसमान तक पहुँचेगी नहीं क्या?"
क्षेत्रबाला ने पहली ही रात को बिल्ली काटने की नीति के अनुसार मन पक्का कर
लिया, बोलीं, "बड़ी सत्यवादी युधिष्ठिर बनती है! बता कहाँ थी अब तक? क्या कर
रही थी?"
शक्ति के कर्त्तव्य का भार अपने हाथ में ले लिया था क्षेत्रबाला ने। उन्होंने
पलट कर देखा भी नहीं कि बरामदे पर इस घर का प्रत्येक सदस्य आकर खड़ा है, यहाँ
तक कि सदा-निरासक्त छोटी बहू भी उपस्थित है। पर उन लड़कियों ने तो देखा जिनके
प्रति कठोर शब्दों की बौछार हो रही थी!
भले दोष हो गया हो, इसका अर्थ यह तो नहीं कि उनका कोई मान-सम्मान ही नहीं है?
क्षेत्रबाला की ऐसी सिंहवाहिनी मूर्ति देखकर शाश्वती तो शायद हैरान ही रह गई
थी क्योंकि ऐसा पहले कभी देखा नहीं था उसने, मगर अनिन्दिता के लिए यह बिल्कुल
नयी बात नहीं थी। बहुत पहले एक बार एक बर्तन माँजने वाली कहारिन क्षेत्रबाला
के पूजा के कमरे से चाँदी के बर्तन चुराते हुए पकड़ी गई थी, उस दिन
क्षेत्रबाला की ऐसी ही 'रणचंडी' मूर्ति देखी थी अनिन्दिता ने।
क्षेत्रबाला ने डंडे से उसे ऐसा पीटा था कि डॉक्टर से मरहम लाकर लगाना पड़ा।
शक्तिनाथ को ही लाना पड़ा था। और कोई जाने को तैयार नहीं था। डॉक्टर को चोट
लगने का कारण भी तो बताना पड़ता कि नहीं?
मगर क्षेत्रबाला के क्रोध का मुख्य कारण यह नहीं था कि उसने चोरी की थीं
बल्कि वह इसलिए आपे से बाहर हो गई थीं कि उसने उनका 'पूजा का कमरा' अपवित्र
कर दिया था।
आज भी शायद क्षेत्रबाला के मन में ऐसी कोई चिन्ता भड़क रही थी, पर अनिन्दिता
ने इसकी परवाह नहीं की। उसने तो यही देखा कि घर-भर के लोगों के सामने उसकी
बेइज्जती हुई। यह उससे बर्दाश्त नहीं हुआ।
अपनी रुँधी हुई आवाज को साफ कर वह बोली, "बेकार की बात मत करो दादी, अच्छा
नहीं होगा!"
मजे की बात यह हुई कि दोनों अभियुक्तों में से एक को जोरदार प्रतिरोध करते
देखकर उस घुटन-भरी परिस्थिति से निकल कर सबने चैन की साँस ली। शायद अवचेतन मन
में सब यही चाह रहे थे।
मगर क्षेत्रबाला ने तो ऐसा नहीं चाहा था! ऐसी परिस्थिति में उनके मुँह पर
अनिन्दिता ने कह दिया, "अच्छा नहीं होगा!" और इतने सारे लोग मुँह बंद किये
सुनते रहे? क्षेत्रबाला का अपमान उन्हें दिखाई नहीं दिया? लड़की की हिम्मत
नहीं देखी? अत: क्षेत्रबाला ने देखने का काम अपने हाथों में ही ले लिया। फिर
झपट कर उन्होंने अनिन्दिता की आधी गुथी हुई चोटी को पकड़ कर झटका देकर अपनी ओर
खींचते हुए कहा-"क्या कहा कलमुँही, हरामजादी, कुलच्छनी! अच्छा नहीं होगा?
मुझे तू धमकाने आई है? तेरे बाप की कभी इतनी हिम्मत नहीं हुई और तू! कल से
अगर घर की चौखट से बाहर कदम रखा तो!"
मालूम नहीं कौन-सी भीषण शपथ दिलाने जा रही थीं कि बीच में शक्तिनाथ का गंभीर
स्वर सुनाई पड़ा, "आह खेतू! यह हो क्या रहा है? इतनी देर तक इन्हीं के लिए
रक्षाकाली के मंदिर में माथा टेंककर पड़ी थी और अभी!"
रक्षाकाली के मंदिर में माथा टेककर पड़ी थीं!
इनके तौर-तरीके शाश्वती ठीक से नहीं जानती है। वह चौंक कर उस 'रणचंडी' मूर्ति
की ओर हैरान होकर निहारती रही।
खैर, और किसी को आश्चर्य नहीं हुआ। सभी को पता है-घर में किसी को सर में दर्द
भी हो तो भी क्षेत्रबाला रक्षाकाली के चरणों में माथा टेकने जाती हैं।
मझले भैया की बात का उल्टा ही असर हुआ क्षेत्रबाला पर। और बिगड़ गईं वह। यह
डरपोक आदमी अगर शुरू से ही ठीक से नियंत्रण रखता तो आज क्षेत्रबाला को उपवास
की कमजोरी लेकर भी यहाँ निकल कर आना नहीं पड़ता।
अब भैया से ही रूठने लगी वह। हाँफते-हाँफते बोलीं, "तुमने अगर ठीक से रोक
लगाई होती भैया तो आज मुझे-!"
शायद कहने जा रही थी, "आज मुझे इस तरह चिल्लाना नहीं पड़ता?" मगर ऐसा कह सकी
कहीं?
रणक्षेत्र में अप्रत्याशित रूप से एक और विपक्षी का आविर्भाव हुआ। किसी
ने सोचा भी नहीं था कि रमोला अचानक उन दोनों का पक्ष लेगी।
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