नारी विमर्श >> अपने अपने दर्पण में अपने अपने दर्पण मेंआशापूर्णा देवी
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इस उपन्यास की पटभूमि एक बंगाली समाज है जो एक बदलाव के मोड़ से गुज़र रहा है। यहाँ प्राचीन धारणाओं, प्राचीन आदर्शों तथा मूल्यबोध पर आधारित मानव जीवन नवीन सभ्यता की चकाचौंध से कुछ विभ्रांत-सा हो गया है।...
बंगला साहित्य गगन में असंख्य सितारे दीप्तिमान हैं, जिनमें एक चमकता सितारा अपनी विशिष्टता से अनायास ही हमारी दृष्टि को आकर्षित कर लेता है। इसमें भड़कीली चमक-दमक तो नहीं, पर इसका समुज्ज्वल निरंतर प्रकाश हमें मंदिर के उस दीये की याद दिलाता है, जो न केवल अंधकार दूर करता है, बल्कि जीवन के प्रति एक अटल विश्वास जगा जाता है।
बारहवें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित श्रीमती आशापूर्णा देवी एक ऐसी ही सितारा हैं, जिन्होंने उपन्यास तथा कहानी-लेखन में समानरूप से दक्षता का परिचय दिया। इनका जन्म सन् 1909 के 8 जनवरी को कलकत्ते के एक संरक्षणशील परिवार में हुआ था। स्कूल-कॉलेज की औपचारिक शिक्षा इन्हें प्राप्त नहीं हुई। यह परम आश्चर्य की बात है कि जिन्होंने जीवन में उन्मुक्तता का स्वाद नहीं चखा, उनकी दृष्टि में इतना विस्तार कैसे आ गया! शायद यह उनकी साहित्य-प्रेमी माँ की प्रेरणा का फल था कि साहित्य में उनकी गहरी रुचि बचपन से ही हो गई।
उनकी प्रथम पुस्तक 'जल आर आगुन' सन् 1940 में प्रकाशित हुई। उन्हें 'लीला पुरस्कार' (सन् 1954), 'मोतीलाल घोष पुरस्कार' (1959) भुवन मोहिनी स्मृति पदक (1963), 'रवीन्द्र पुरस्कार' (1966), तथा प्रथम उपन्यास 'प्रथम प्रतिश्रुति' के लिए 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' से सम्मानित किया गया। भारत सरकार ने इन्हें 'पद्मश्री' की उपाधि से भूषित किया। इसके अतिरिक्त जबलपुर विश्वविद्यालय रवीन्द्र भारती विश्वविद्यालय तथा वर्धमान विश्वविद्यालय से इन्हें मानद डी. लिट्. की उपाधि प्रदान की गई।
मात्र तेरह वर्ष की अवस्था में इन्होंने लिखना प्रारंभ किया और जीवन के अंतिम दिनों तक लिखती रहीं। अपने सारे कर्त्तव्य पूरी तरह निभाते हुए, आचार-आचरण, पारिवारिक प्रथाओं को पूर्ण मान्यता देते हुए भी वे साहित्य-सृष्टि के कार्य में सतत् प्रयत्नशील रहीं।
चारदीवारी के भीतर रहकर उन्होंने वही जीवन देखा जो उनकी खिड़की के सामने थी। वह जीवन लाखों-करोड़ों मध्यवित्त लोगों का जीवन था और उनका अपना भी। इस जीवन में साधारण दृष्टि से कोई नाटकीयता नहीं थी। घटनाएँ वैसी ही सामान्य जैसी प्रतिदिन हमारे आस-पास घटती हैं। इस एक सुरे, स्वादहीन जीवन में आशापूर्णा देवी ने नाटक की रोचकता की आस्वादन किया, तरंगहीन नदी के भीतर से समुद्र की लहरों की तान सुनी। इस प्रकार 'बिंदु में सिंधु दर्शन', यही उनके लेखन की विशेषता रही। प्रतिपल घटने वाली सामान्य घटना कहानी के एक मोड़ पर आकर असामान्य हो गई। जीवन के आसपास मँडराते अनगिनत चरित्र, जिन्हें हम कोई मूल्य नहीं देते, लेखन के जादू-स्पर्श से वही चरित्र अचानक असामान्य होकर उभरे। पढ़ कर ऐसा लगा-''ऐसा ही चरित्र तो हमने देखा है, पर कभी इस तरह से उसे देखा-समझा नहीं।'' यह आशापूर्णा देवी की अन्तर्दृष्टि ही है जो सामान्य में भी असामान्य का दर्शन करती है।
अपने उपन्यास या कहानी के माध्यम से उन्होंने कभी कोई उपदेश या आदर्श स्थापित करने की चेष्टा नहीं की। उन्होंने जीवन को जिस रूप में देखा, वैसे ही प्रस्तुत किया। उसमें कहीं भी रत्ती-भर अतिरंजन नहीं है। यही कारण है कि उनकी रचनाओं में निम्न वर्ग के दलितों की कथा नहीं है, उस उच्च वर्ग की कहानी भी नहीं है, आधुनिक साहित्य में आज जिसकी बड़ी-चर्चा है। उन्होंने तो उसी जीवन को अपने लेखन का आधार बनाया, जिसका वह एक अभिन्न अंग थीं और उसी जीवन की उपलब्धियों को लोगों के सामने रखा।
साधारणत: हम कहानी का रस काव्यों और ग्रंथों में ढूँढ़ते हैं। परन्तु यह रस हमारे वास्तविक जीवन के आसपास भरा पड़ा है, केवल हमें दिखाई नहीं देता। वह अन्तर्दृष्टि हमारे पास नहीं है, जिसकी सहायता से 'सुख-दुख-समस्या' भरे इस जीवन में से उस रस को निचोड़ कर उसका आनन्द ले सकें। आशापूर्णा देवी ने अपनी पैनी अन्तर्दृष्टि से उस रस को खोज निकाला और अपनी निपुण रचनाओं द्वारा पाठकों को भी इसका रसास्वादन कराया।
इनकी रचनाओं में जीवन की दैनंदिन समस्याओं का उल्लेख है, सीधे-सादे सरल शब्दों में उनका वर्णन है। परन्तु जिस प्रकार एक कुशल चित्रकार अपनी तूलिका के निपुण स्पर्श से चित्र में जान डाल देता है, वैसे ही आशापूर्णा देवी की लेखन-कुशलता सामान्य कथानक को असामान्य बना देती है।
इनकी रचनाओं की सर्वप्रमुख विशेषता है-इनका नारी चरित्र-चित्रण। अपने तीन श्रेष्ठ उपन्यास- 'प्रथम प्रतिश्रुति', 'सुवर्णलता' तथा 'बकुलकथा' में इन्होंने तीन युगों से निकलते हुए नारी-जीवन के संघर्ष का चित्रण किया है। 'सत्ववती', 'सुवर्णलता' तथा 'बकुल' अपने-अपने युग की निर्यातिता नारी के प्रतीक हैं, जो निरंतर कुरीतियों से, असंतुलित समाज-व्यवस्था से तथा पुरुष-प्रधान समाज में घटित नारी-निग्रह से जूझती रहती है। अपने विभिन्न उपन्यासों तथा कहानियों के माध्यम से इन्होंने नारी-चरित्र का मनोविश्लेषण बहुत गहराई से किया है।
आज नारी-मुक्ति, नारी-आदोलन आदि के नित नये नारे सभा-समितियों में गूँजते सुनाई पड़ते हैं। वहाँ विद्रोह है, विक्षोभ है, पुरुष-विद्वेष है, जिसके धुएँ में प्राय: नारी अपनी मर्यादा को भी धूमिल कर देती है। आशापूर्णा देवी ने नारी-स्वाधीनता के बड़े-बड़े नारे नहीं लगाए, न ही किसी को नीचा दिखाया। समाज के बंधन में रहकर, संस्कार और लोकाचार निभाकर भी उन्होंने कुछ चरित्र ऐसे आँके, जिनमें नारी-मुक्ति की सही छवि है। प्रथम प्रतिश्रुति की सत्यवती एक ऐसी ही स्वाभिमानिनी नारी है। नारी का यह रूप उन्होंने अपनी कहानियों तथा अपने उपन्यासों में बार-बार अंकित किया है। यह नारी समाज-व्यवस्था के विरोध में आवाज उठाती है। शोर-गुल और नारों से नहीं, अपनी मृदु परन्तु स्पष्ट आवाज में वह अन्याय का विरोध करती है, अन्त तक संघर्ष करती है पर समझौता नहीं करती।
यद्यपि आशापूर्णा देवी ने नारी-चरित्र को अपने लेखन का मूल विषयवस्तु बनाया, उनकी रचनाएँ केवल इसी विषय पर केन्द्रित नहीं रहीं। मानव-चरित्र की अनजान गलियों पर उन्होंने इस खूबी से प्रकाश डाला, इस रोचक ढंग से उन्हें उबारा कि पाठक को लगा कि जो दिखाई देता है, वह कुछ भी नहीं। जो उसके भीतर है, उसकी आकस्मिक झलक ही यह बता देती है कि भीतर है-अथाह सागर, जिसकी गहराई में छिपे हैं अनमोल मोती, जिनका दर्शन जीवन के किसी मोड़ पर, किसी विशेष क्षण में अकस्मात् ही हो जाता है। ऐसे विशेष पल का स्फुरण आशापूर्णा देवी की कहानियों में हमें बार-बार देखने को मिलता है।
इनकी रचनाओं का अनुवाद हिन्दी तथा विभिन्न आंचलिक भाषाओं में हुआ जिसके फलस्वरूप उनकी अमूल्य रचनाएँ बंगला भाषा के सीमित दायरे से बाहर निकल कर भारतीय साहित्य में शोभित हो रही हैं। दीर्घ पचास वर्ष की साहित्य रचनाओं में एक ओर श्रीमती आशापूर्णा देवी के उपन्यासों में नारी-चरित्र के जटिल भावों का मंथन और अमृत की उपलब्धि है, तो दूसरी ओर उनकी छोटी कहानियों में जीवन के विभिन्न पहलुओं के भीतर से मानव-चरित्र का अनोखा रूपायण देखने को मिलता है।
-गीतालि भट्टाचार्य
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