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नारी विमर्श >> मंजरी

मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6387
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....


"तुम्हें ज्यादा रुपयों की जरूरत क्या है?''
"रुपयों की क्या जरूरत है? तुमने तो हंसा दिया लता दी? यही सवाल
तो तुम खुद से ही पूछ सकती हो।"
वनलता गंभीर होकर बोली, "मुझमें और तुममें फर्क है मंजू। मुझे शराब पीना रहता है, मुझे दो चार जानवर पालने पड़ते हैं, गांव में रुपया भेजना पड़ता है।" 
"गांव में रुपया भेजना पड़ता है।"
पहली दोनों कैफियतों को घृणा भाव से सुना था पर तीसरी बात सुनकर मंजरी संभालकर बैठी।
"तुम्हारा गांव में घर है?"
"तू यह सवाल पूछ ही सकती है क्योंकि मुझे देखकर लगता होगा, धरती फटी होगी और में निकल आई होवूंगी। है न?"
"नहीं नहीं, मैं यह नहीं कह रही हूं। मैं पूछ रही हूं वहां घर में कोई है क्या?"
"और क्या है ही।"

"कौन है?"
"सभी। मां बाप, भाई भौजाई।"
स्तंभित मंजरी भौंचक देखती रह गयी, "वे लोग तुम्हारा रुपया लेते हैं?" 
"पहले नहीं लेते थे। लेने की बात सोच ही नहीं सकते थे। मैं ही छिपकर जाती थी गांव, भौजाई से मिलकर, हाथ पांव जोड़कर राजी करवाकर...''
"क्यों?'' सहसा मंजरी तनकर बैठ गयी, "क्यों, हाथ पांव जोड़ने की जरूरत क्या थी?"
वनलता विपन्न भाव से फीकी हंसी हंसकर बोली, "पिताजी को पक्षाघात है, भाई पागल है।"
"ओह! इसके मतलब, नितांत निरूपाय होकर ही दया करके उन्होंने तुम्हारा रुपया लेकर तुम्हें कृतार्थ किया है यही न? वरना शायद बायें पैर की छोटी अंगुली से भी न छूते।"
"वह तो सच बात है।" वनलता और अधिक उदासी से बोली।
"फिर भी उनके दुःख से तुम्हें ममता होती है?"
"होती है।"
"उन्होंने शायद तुम्हें झूठा बदनाम करके भगा दिया था?"
मंजरी का गुस्सा देखकर वनलता हंस पड़ी। 
"झूठी नहीं, बदनामी सच थी।"
"हूं! तो सारे कलंक रुपयों के नीचे दब जाते हैं?"
"क्या सचमुच दबते हैं? नहीं? नहीं दबते हैं। लेकिन अभाव चीज बड़ी बुरी होती है। सबसे बड़ी और पहली चीज है पेट। उसके बाद ही मर्यादा का सवाल उठता है।"
"हुं! लेकिन जो लोग हाथ फैलाकर तुम्हारे रुपये से पेट भर रहे हैं अभी भी तो वे तुम्हें अपने घर में घुसने नहीं देते हैं।"
वनलता के होंठों पर तीखी हंसी दिखाई दी, "देते हैं।"
"क्या? तुम वहां जाती हो?" मंजरी की आंखों में अविश्वास झलक उठा। 
"कभी-कभी। अचानक ही। अगर किसी दिन ज्यादा वक्त मिल जाता है।...बहुत दूर तो है नहीं। ज्यादा से ज्यादा तीस मील।"
वे लोग तुम्हारा मुंह देखते हैं? तुमसे बात करते हैं?"
उसी तरह हंसकर वनलता बोली, "सिर्फ बात? कहां बैठायेंगे, कैसे इज्जत करेंगे सोच-सोचकर परेशान हो जाते हैं।"
"ताज्जुब है! तो फिर रुपया ऐसी ही चीज है।"
"नहीं, ठीक रुपया नहीं...प्रतिष्ठा है असली चीज। वे लोग गरीब हैं इसलिए सोच रही हो रुपये के लिए...लेकिन ऐसा नहीं है। पैसे वाले भी यही करते। किसी भी बात के लिए, अगर प्रतिष्ठा अर्जन कर सको तो, कभी जिन लोगों से घृणा से मुंह फेर लिया था, वे ही बात करने पर अपने को धन्य समझने लगते हैं। मेरी बचपन की सहेली जिसने मेरा इरादा सुनकर कहा था, "मैं मर जाऊंगी तो वह 'हरीलूट' देगी, अब वही मुझसे 'पास' लेकर बाक्स में बैठकर थियेटर देखती है, अपने सारे परिवार को बुलाकर दिखाती है।"
"और तुम धन्य होकर पास-वास दिया करती हो?''
उसका गुस्सा देख वनलता हंसी, "इंसान कहीं तो दुर्बल होता ही है।"
पल भर के लिए चुप रहने के बाद मंजरी बोली, "बंबई मुझे जाना ही पड़ेगा।" 
"अचानक सिद्धांत स्थिर हो गया क्या?"
"हां, ऐसी ही बात है। मुझे यश चाहिए प्रतिष्ठा चाहिए और रुपया भी चाहिए। बहुत सारा, असंख्य अनगिनत रुपया...''
मुस्कराकर वनलता ने पूछा, "क्यों? त्यागकर आए पति को क्या रुपयों से खरीदेगी?"

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