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चश्में बदल जाते हैं

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6385
आईएसबीएन :0000000000

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बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।


राजा वसन्त राय रोड और राजा सुबोध मल्लिक रोड़, इन दोनों मोहल्लों के बीच की दूरी कितनी होगी? किलोमीटर में नापने पर कितना ही हो सकता है?
जबकि-कभी की इसी राजा सुबोध मल्लिक रोड़ की और आज राजा वसन्त राय रोड़ की सुनेत्रा को यह दूरी पार करने के लिए महीने दो महीने में एक बार भी समय नहीं मिलता था।
कैसे मिलता? समय कम पड़े तो? उसकी क्या घर-गृहस्थी नहीं है? उसी पर सारा घर निर्भर नहीं है क्या? लगभग दर्जन भर लोगों के साथ यह गृहस्थी?
हालाँकि जब वह सुबोध मल्लिक रोड से वसन्त राय में ट्रान्सफर हुई थी तब इतने लोग नहीं थे।
फिर भी आज सुनेत्रा अपने समस्त दायित्वों को तुच्छ मानकर सुबह ही चली आई है कभी के अपने जन्मगृह इसी सुबोध मल्लिक रोड में। और आते ही सीधे घुस गई सोमप्रकाश नामक व्यक्ति के कोने वाले कमरे में।
सुनेत्रा के दोनों नेत्रों में एक साथ आग और पानी दोनों था। सुनेत्रा के चेहरे का रंग एक ही साथ सुर्ख लाल भी और काला भी।
उसी मिश्रित दृश्य के साथ वह लगभग पछाड़ खाकर जा पहुँची-'पिताजी। मैंने कब तुम्हारा क्या अनिष्ट किया है जो बाप होकर तुमने मेरा इतना बड़ा सर्वनाश किया?'
सोमप्रकाश भी एक ही साथ विस्मित भी हुए और सिहर भी उठे।
अचानक क्या उनकी एकमात्र कन्या का सिर फिर गया है?
'क्या? क्या हुआ है बेटी?'
'तुम नहीं जानते हो क्या हुआ है?'
'मैं? मैंने तो कितने दिन हो गए तुझे देखा ही नहीं है रे।'
'मुझे नहीं देखा। पर मेरे प्राणपक्षी को तो देखा है और उसे पिंजड़े का द्वार खोलकर उड़ा दिया है।'
'सू! सूनी बेटी! क्या हुआ है मुझे जरा साफ-साफ समझाकर बता। मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है।'
'वह तो होगा ही। इतना बड़ा अन्याय करके दिमाग ठीक रख पाना क्या सम्भव है?'
'सूनी! तेरे साथ कोई आया है?'
'क्या कहा पिताजी? मेरे साथ कोई आया है या नहीं? कभी किसी समय मैं अकेली आई हूँ क्या? अगर उस बात की आदत रहती तो क्या बीच-बीच में बूढ़े माँ-बाप को आँखों से देखने न आ जाती? और अकेले आना भी चाहूँ तो मुझे कोई आने देगा? जो सर्वदा साथ आता है वही आया है।'
'ओ दामाद। अभिमन्यु? तो वह है कहाँ?'
'माँ के कमरे में। आते ही माँ को ऐसा भला-बुरा सुना रहा है कि मैं वहाँ खड़ी न रह सकी।'
सोमप्रकाश हताशभाव से बोले-'सूनी! मैं किसी हालत में नहीं समझ पा रहा हूँ कि घटना क्या घटी है। हमने तुम लोगों का क्या बिगाड़ा है?'
सूनी आँचल से नाक-मुँह-आँख पोंछकर उत्तर देने के लिए तैयार हुई पर उत्तर उसे देना नहीं पड़ा। एक छाया आकर दरवाजे के सामने खड़ी हुई। और उसी छाया ने गमकती आवाज में कहा-'कुछ खास नहीं किया है। सिर्फ हमारे भविष्य के सहारे को, हमारे समस्त परिवार के शिवरात्रि के दीए को, मेरी बूढ़ी माँ की अंधी की लाठी को, अपने हाथों से टिकट खरीद कर जहज़म के रास्ते छोड़ दिया है।'
'अभिमन्यु! मेरा सिर चकरा रहा है। समझ में नहीं आ रहा है कि मेरा दिमाग क्या खराब हुआ जा रहा है? दुहाई है मुझे तुमलोग सारी बाते साफ-साफ बताओ बेटा...'
अभिमन्यु व्यंगविकृत स्वर में बोला-'ओ? और साफ-साफ? मानना पड़ेगा आपकी अभिनय क्षमता लाजवाब है। क्या कमाल का इनोसेंट शो कर रहे हैं। खैर-आप गुरुजन हैं। ज्यादा कुछ कहना नहीं चाहता हूँ। सीधे सिर्फ यही पूछता हूँ कि आपने अपने लाड़ले नाती को नकद दस हजार रुपया नहीं दिया है बम्बई भाग जाने के लिए?'
'ओ।' आँखों के सामने से धुँधला पर्दा हट गया। बैठे सोमप्रकाश अब वास्तव में 'बैठ गये'।
'मा...भागने के लिए क्यों? उसने कहा, घूमने जाने की इच्छा...'
'ओ! और इसीलिए उसके इस महान कार्य पूर्ति के लिए झट से कैश दस हजार रुपया उसके हाथ पर रख दिया। कारण आपके पास बहुत रुपया है। दस बीस हजार आप रास्ते में बिखेर सकते हैं। लेकिन...'
सोमप्रकाश व्यथित निस्तेज भाव से बोले-'ऐसी बात क्यों कर रहे हो अभिमन्यु?...नाती प्यार से माँगे और मैं नाना होकर कह दूँ कि' 'नहीं', न दे सकूँगा?'
'वही तो। स्नेही नानाजी है और प्यार पाकर बिगड़ैल नाती। लेकिन क्या इतना भी सोचने की जरूरत नहीं थी कि यह नाती असल में जिनका है, जो उसके गार्जेन हैं उनसे भी पूछना उचित होगा कि 'रुपया दूँ या नहीं'।'
अवाक दृष्टि से सोमप्रकाश देखने लगे। यह चेहरा क्या उनका पहचाना है? पहले तो कभी देखा है क्या?...सोचने की चेष्टा करने लगे। बहुत दूर पीछे नजर दौड़ाया, माथे पर चन्दन, गले में फूलों की माला, तसर की धोती, सिर पर टोपोर...एक उज्ज्वल तरुण चेहरा।...इस चेहरे का उस चेहरे से थोड़ा-सा सादृश्य है या ज़रा भी नहीं है? या भयंकर अन्तर है।
यह अवश्य ही अपना दृष्टिभ्रम है। न जाने उनके चश्मे को क्या हो गया है। धीरे से बोले-'शायद उचित था। मैंने एक बार सोचा भी था लेकिन शैतान ने पहले ही तुमलोगों के नाम की शपथ ले ली और कहा कि मैं किसी से भी न कहूँ। क्या करता बेटा तुम्हीं बताओ?'
एक निरुपाय पुरुष का असहाय कातर आर्तस्वर, शायद दूसरे पुरुषचित्त को थोड़ा-सा विचलित करने में सफल हुआ। और शायद उत्तर देने में देर लग गई। पर उस महामुहूर्त पर उसकी चिरहितैषिणी, चिरसहायताकारिणी आदर्श पतिप्राणा सती सहधर्मिणी ने पतवार सम्भाली।
'शपथ? माने कसम खिलाया था? पिताजी! तुमने तो मुझे आश्चर्य में डाल दिया। तुम यह सब मानते हो? हमेशा के नास्तिक, डोन्टकेयर वाले कठोर स्वभाव के इन्सान, तुम एक छोटे से लड़के के कसम धराने पर उसका अनुरोध मानकर ऐसी चुप्पी साधकर बैठ गये? एक बार सोचा तक नही कि तुम्हारी इकलौती लड़की के सिर पर बिजली गिरेगी?'
अब सोमप्रकाश विपक्ष में लड़की को पाकर (अपनी लड़की होने के कारण) कुछ गरम होकर बोले- 'इतनी बड़ी-बड़ी बातें क्यों कर रही है सूनी? बिजली क्यों गिरेगी? आजकल के लड़के-लड़कियों में तो हरदम में शौक चर्राया करता है कि एक बार फिल्मों में काम करूँ। इसीलिए उनका ध्यान ज्ञान बस एक बार बम्बई पहुँचने भर में लग जाता है। तेरा अकेले का लड़का है क्या? और फिर ऐसे होंगे क्यों नहीं? चौबीस घंटा फिल्में जो देख रहे हैं। सभी सोचते हैं बस एक बार चांस मिलने भर की देर है-बस दिखा दूँगा। दो ही दिन में करोड़पति। सपना टूटता है तो वही घर का लड़का घर लौट आता है चुपचाप।'
एक साथ इतनी बातें बोलना सोमप्रकाश की आदत नहीं है पर थोड़ी देर पहले दामाद की चबा-चबाकर कही कटुतिक्त बातें मन में बुरी तरह से चुभ रही थीं। उस पर बेटी की लापरवाही से कही गई बातें।
आश्चर्य तो इस बात का हो रहा था कि बाप के मामले में नम्र नत श्रद्धायुत भाव गये कहाँ।...इसके भाई लोग पिताजी के प्रति नम्र श्रद्धाशील नहीं है इस बात की जिसे सदैव शिकायत रहती थी।
बात खत्म करके सोमप्रकाश लेट गये। लम्बी-लम्बी साँस लेने लगे। आँखों के कोर गीले हो गये।
ऐसे में थोड़ा अप्रस्तुत अभिमन्यु नामक व्यक्ति विपन्न भाव से बोल उठा-'क्या हुआ? तबियत खराब लग रही है, डाक्टर बुलाना होगा?'
सोमप्रकाश शिथिल पड़े दाहिने हाथ को मक्खी उड़ाने की तरह हिलाकर बोले-'नहीं। इन नखरों की जरूरत नहीं है।'
इसके बाद तो उनके कमरे के पंखे की स्पीड बढ़ाकर, खिड़कियों के पर्दे खींचकर कमरे को यथासंभव अँधेरा और शान्तिपूर्ण बनाकर आतातायी दोनों दूसरे कमरे में चले आये। इस कमरे में एक ही जना-सर्वंसहा धरित्री की प्रतीक सुकुमारी।
क्योंकि दोनों ही बेटे बहन-बहनोई के आविर्भाव मात्र से ही, अपने-अपने कर्मस्थल के लिए यात्रा करने को प्रस्तुत हो गये थे।
इसीलिए दोनों ही-'क्या हाल-चाल है? अचानक सुबह-सुबह? बहुत दिनों बाद...अच्छा...अभी तो...क्यों, शाम तक तो हो न?' जैसी सौजन्यपूर्ण बातें करके सरक लिए थे। छोटे बच्चे को साथ ले गये थे...उसे स्कूल छोड़ते हुए उसके बापी अपने ऑफिस चले जायेंगे।
हताशाभरी आवाज़ में सुकुमारी बोलीं-'इनका क्या है? हार्ट की बीमारी किए बैठे हैं, कोई कुछ कह नहीं सकता है। और ये एक लोहे का हार्ट लिए बैठी हूँ-इस पर चाहे हथौड़ा ठोको, या मूसल से कूटों-सब बरदाश्त कर लेगा।...खैर उनके लिए ज्यादा चिन्ता करने की जरूरत नहीं है। दूसरी बार का अटैक हो जाने के बाद से, ये ऐसे ही हो गये हैं। ज़रा उत्तेजित होते ही ऐसा हो जाता है। थोड़ी देर तक कमरा अँधेरा करके लेटे रहेंगे तो ठीक हो जाएँगे। खैर, बेटा तुम लोग ज़रा शान्त होकर बैठो, पानी-वानी पीओ। कह ही रहे हो कि सुबह से चाय तक नहीं पी है...'
दामाद रुखाई से बोला-'हम चाय पीने नहीं आए हैं। सिर्फ बताने आये थे कि गुरुजन होते हुए आपने हमारे साथ क्या किया है। और यह भी कहना था कि इस घर में हमारा यही आखिरी बार आना है।'

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