नारी विमर्श >> चश्में बदल जाते हैं चश्में बदल जाते हैंआशापूर्णा देवी
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बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।
लड़का, माने सुनेत्रा का लड़का दूर रहकर भी और हज़ारों काम के झमेले के बीच
बार-बार सोच रहा था-बारह तारीख को कुछ किया जा सकता है या नहीं?
अगर एक बार फुर्र से उड़कर एयरपोर्ट से धाँय से दौड़कर धम्म से बरामदे पर कूद
पड़ूँ और चिल्लाऊँ-'मैं आ गया। आ गया आ गया-लेकर हँसी रूप और गान।'
न हो सका। न पकड़ सका। किसी तरह से भी नहीं।
एयरपोर्ट पर आकर उतरा तेरह तारीख को। मन-ही-मन बोला-'अनलकी थर्टीन।' फिर भी
रास्ते भर आते-आते सोचता रहा कि जाते ही कहना है-दिद्मा, कल के भोज में से
बासी-वासी कुछ पड़ा है क्या? चाटने भर को गोश्त, रूखा-सूखा फ्राइड राइस...'
परन्तु घर के सामने पहुँचा तो काफी आशान्वित हुआ। घर जैसे भरा-भरा लगा। गेट
के पास चबूतरे पर चढ़ने वाली सीढ़ी पर काफी जूते रखे थे।
इसके मतलब कल का उत्सव आज भी चल रहा है।
ताक-झाँक कर भीतर देखने की कोशिश की। उसे लगा-उसे अपनी माँ दिखाई दीं। सीढ़ी
से उतर आई दोनों हाथों से थाली पकड़े।
अब कैसी चिन्ता?
भड़भड़ा कर घुस आया-दस-बीस जोड़े जूते लाँघते-फाँदते। और घुसकर ही झटके से खड़ा
हो गया-'इसके मतलब?'
'मतलब समझने में तो देर लगेगी ही?
सबको साथ लेकर खुशियाँ मनाने के लिए, दिद्मा...इतने सारे लोगों के बीच गले
में फूलों की माला पहने एक छोटे-से पीढ़े पर बैठी रहेंगी? अपने दाहिने बाएँ
फूलों के गुलदस्ते सजाए? उनके सामने पूजा का थाल रखा होगा? और बड़े मामा, भक्त
हनुमान की तरह उनके सामने हाथ जोड़े बैठे होंगे? मन्त्रपाठ करते हुए। लेकिन वह
क्या दिद्मा हैं? या कि दिद्मा का चित्र?
हाथ में पकड़ी अटैची पटक दी दीवाल के पास उसने। चिल्ला उठा-'माँ? इसके माने?'
'हड़बड़ा कर सुनेत्रा उसके पास चली आईं-'तू? तू कैसे? तुझे किसने खबर दी?'
'मुझे? मुझे कोई क्यों खबर करेगा? मैं हूँ कौन?...पर मामदू? तुम ने भी अपने
ताकडुमाडुम के साथ ऐसा बिट्रे किया? मुझे एक बार बताया तक नहीं? मैं साला
नाचते हुए सरप्राइज देने आया हूँ...क्या दिद्मा का श्राद्ध देखने? ठीक है।'
कहकर अटैची उठाकर तीर की गति से निकल गया।
'अरे, अरे...', सुनेत्रा उसके पीछे दौड़ी पर दरवाज़े के पास ही बैठे उसके पति
ने गम्भीर आवाज़ में कहा-'जाने दो।'
निचले हिस्से के आँगन की सफाई करके वहीं व्यवस्था की गई थी। पूजागृह से
सत्यनारायण की पूजा वाला पीढ़ा उतर लाया गया था और उसी पर सुकुमारी की वृहत
एनलार्ज फोटो रखी गई थी।
यह तस्वीर बनवा लाया था अभिमन्यु। एक अभिनव घटना। हमेशा जो कौड़ी-कौड़ी सहेजता
रहा है-उसने क्या सोचकर धाँय से इतना बड़ा खर्च कर डाला?
लड़कों ने सन्तुष्ट होकर कहा था-'आपने इतना पैसा क्यों खर्च कर डाला? घर में
माँ की एक अच्छी तस्वीर थी इसीलिए...'
अभिमन्यु ने बताया-'उसी अच्छी तस्वीर की एक कॉपी उसके यहाँ भी थी। छोटी थी पर
उसी से। और खर्च? उसका पैसा खर्च नहीं हुआ है। दोस्त की दुकान है-ऐसे ही बना
दी है।'
सुनेत्रा को याद ही नहीं आया कि कहाँ कब उसके पति का ऐसा कोई दोस्त था।
ख़ैर वह बात छोड़ो-तस्वीर सचमुच अच्छी थी। लग रहा था सुकुमारी सचमुच ही बैठी
हैं।
गँवार लड़के के चले जाते ही वहाँ फुसफुसाने लगे लोग- 'नीच, छोटे मन का! असभ्य!
साफ समझ में आ रहा है कि हज़रत किस सर्किल में मिक्सअप कर रहे हैं।'
पर ज़्यादा देर तक गुञ्जन चल नहीं पाया। चारों तरफ काम फैला पड़ा था। और इसी
वक्त बाँस-रस्सी वगैरह लेकर डेकोरेटर के आदमी आ पहुँचे। छत पर शामियाना खड़ा
करना था।
आज पूजा का दिन था। किंग को नहीं लाया गया था। उसे नानी के यहाँ छोड़ आया गया
था। वह आयेगा 'नियम भंग' के दिन।
यह व्यवस्था सोमप्रकाश की थी।
उन्होंने लड़कों को अपने पास बुलाकर कहा था-'खर्चे के लिए तुमलोगों को चिन्ता
करने की ज़रूरत नहीं है। उसकी व्यवस्था मैंने कर रखी है। मेरी इच्छा है कि
तुमलोगों की माँ का काम समारोह पूर्वक हो। काफ़ी लोगों को खिलाया जाए।'
सुनकर लड़के अवाक हुए।
यह क्या हुआ?
यह तो जैसे भूत के मुँह से रामनाम सुन रहे हों। या कि राम भूत का नाम ले रहा
है।
छोटा बेटा बोल उठा-'पिताजी! 'काम' के समय पर आप समारोह करने कह रहे हैं?...आप
तो इस चीज़ से हमेशा घृणा करते थे। आप ही तो कहते थे श्रद्धा माने श्रद्धा
निवेदन-ढेर सारे लोगों को बुलाकर उन्हें ठूँस-ठँसकर खिलाना नहीं है।'
'ठीक।' सोमप्रकाश बोले-'मैं हमेशा ही इसी बात पर विश्वास करता आया हूँ-आज भी
इस बात को मानता हूँ। पर आज की बात और है-व्यतिक्रम मान सकते हो।'
थोड़ा ठहरे फिर बोले-'तुम लोग तो जानते हो, तुमलोगों की माँ की बड़ी इच्छा थी
कि एक दिन के लिए तुमलोग सब इस घर में आओगे-उनके जाने परिचित सारे रिश्तेदार
कुटुम्ब इकट्ठा होंगे। वह अपने आखिरी जीवन में...गृहस्थी का एक भरापूरा रूप
देख जाना चाहती थीं। तो...क्या है कि वह इच्छा तो पूरी किए बगैर ही चली
गईं...इसीलिए...'फिर बोले-'मैं हालाँकि 'आत्मा-वात्मा' पर विश्वास नहीं करता
हूँ पर उन्हें तो इन बातों का विश्वास था। इसीलिए सोचता हूँ शायद उनकी आत्मा
को शान्ति मिले।'
इसके बाद विरोधीपक्ष क्या कहता? और जब खर्च की जिम्मेदारी उन पर थी नहीं। और
हंगामा?
वही आजकल के ज़माने में कितना होता है?
एक गृहस्थ के सारे हंगामे की जिम्मेदारी वहन करने का वादा कर, सहायता करने के
लिए चारों ओर से अनगिनत हाथ बढ़ाए हजारों संस्थाएँ मौजूद हैं। गृहस्थ को
अँगुली तक हिलाना नहीं पड़ता है, और विराट-विराट कर्मयज्ञ, या यूँ कहो 'यज्ञ'
कर्म समाधान हो जाता है। और ये तो कुछ भी नहीं है। नितान्त ही 'तुच्छ' बात
है।
यद्यपि सोमप्रकाश के बेटे-बहू और सगे-सम्बन्धी इसी 'तुच्छ' को 'उच्च' सोचकर
आलोचना करने लग गए।
कहने लगे 'अति है' 'अजीब सोच है।'
फिर भी हुआ सब कुछ-सुकुमारी की इच्छा के ही मुताबिक-शायद उससे बहुत ज़्यादा
ही।
सोमप्रकाश की लड़की ने भाइयों के आगे 'दरबार' किया। बोली-'देखो, पिताजी
'कंगाली भोजन' की बात कर रहे हैं-'
'ऐं! 'कंगाली भोजन'? इसके मतलब हुए कि मुँह से कुछ भी कहें, भीतर ही भीतर वह
हमेशा का बद्धमूल संस्कार। जैसा देखा है अपने दादा-दादी के ज़माने में-ठीक
वैसा ही...'
'ठीक बात है। हालाँकि पिताजी ने 'कंगाली भोजन' का उच्चारण नहीं किया था। कहा
है-'दरिद्रनारायण की सेवा', पर बात तो वही है। पर ऐसी सेवा का आयोजन करने के
लिए कोई कैटरर है क्या?'
अमल, अमल हँसी हँसकर बोला-'क्यों नहीं है? उन्हें चपकटलेट खिलाने की व्यवस्था
करो तो-है। पर जनसंख्या पहले से बता पाना मुश्किल है।'
सुनेत्रा बोल उठी-'ओ ओमू-अब वह ज़माना नहीं है रे। अब इन दरिद्रनारायणों को
आदरपूर्वक निमन्त्रण देना पड़ता है।'
'अच्छा? ऐसा है क्या?' विद्रुप भरी हँसी से उसका चेहरा अजीब सी दीखा-'यह बात
मालूम नहीं थी।'
'मुझे ही कौन सा मालूम था? पड़ोस में एक जने अपने पिता के काम के वक्त कंगाली
खिलाने के लिए...ऐसा करने गये तो उन्हें पता चला और तभी मैंने भी सुना।'
विमल बोला-'अरे बाबा, मैंने सुना है 'भारत सेवाश्रम संघ' या इसी तरह की किसी
प्रतिष्ठा को रुपया देकर जिम्मेदारी दे दी जाए तो सारा मामला आसान हो जाता
है। खुद को किसी तरह की परेशानी झेलनी नहीं पड़ती है। घर के दरवाज़े पर,
फुटपॉथ पर दोनों तरफ यह नारकीय दृश्य देखा नहीं जाता है।'
'तो फिर पिताजी को यही कहो।'
'तुम ही कहो न जाकर।'
तो ख़ैर सुनेत्रा ने ही कहा-'उनके राज़ी होने न होने की कौन सी बात है
पिताजी? रुपया तो तुम ही दे रहे हो। पर इसमें झमेला कम होगा।'
'ठीक है-'
सोमप्रकाश बोले-'पर तेरी माँ कहा करती थीं कि कंगाली भोजन जहाँ भी देखा है
वहाँ सारी सस्ती सब्जी का घोंटा और लप्सी जैसा सस्ता चावल। देखकर बुरा लगता
है। मुझे तो लगता है कि अच्छी तरह से इन्हें खिलाना चाहिए, अमीर पैसेवाले
रिश्तेदारों को नहीं। उन्होंने क्या जिन्दगी में कभी अच्छा खाना खाया है?'
सुनेत्रा अवाक हुई। उसके पिता ने माँ की हर बात को इतना मूल्य देते थे, मन
में सम्भाल कर रखते थे, ऐसी बात तो उसने सोची ही नहीं थी। पिताजी तो माँ को
हमेशा 'वात्सल्यपूर्ण' दृष्टि से देखते थे और माँ की कही हर बात को 'बाल
भाषितंग' सोचते थे।...किसके मन में क्या है समझ सकना कितना मुश्किल है।
सुनेत्रा का सोचना ठीक है क्या? 'रहता है' या 'सृष्टि' होती है?
ख़ैर फिलहाल उसी में से एक सेवा संस्था को दायित्व देने की व्यवस्था की गई।
खाने के आयोजन में कुछ 'पॉलिश' रखने का अनुरोध करते हुए उसी के मुताबिक पैसा
दे दिया गया।
कौन जाने सुकुमारी देवी की आत्मा किसी अनन्त शून्य से यह सब देखेगी या नहीं।
देखकर शान्ति पाएगी या नहीं-कौन जाने।
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