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नारी विमर्श >> चश्में बदल जाते हैं

चश्में बदल जाते हैं

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6385
आईएसबीएन :0000000000

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बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।


अपने आपको सम्भालकर बोले-'ठीक है तब यही तय रहा। उसको बता दूँ? एक बार बुला देगा?'
'बुला दूँगा लेकिन कोई खास फायदा नहीं होगा। वह तो रात-दिन रो रहा है अब यह सब सुन लेगा तो फूट-फूट कर रोना शुरु कर देगा। बल्कि वक्त आने पर ही बताइएगा। आप तो कह रहे हैं न कि दो-चार महीने का समय है।'
'हाँ-यही कोई महीने तीन साढ़े तीन है। अच्छा रहने दे।'
सोचा, एक समस्या तो मिटी-बेवकूफ सीधा-साधा कुलदीप मिसिर की समस्या...लेकिन समस्याओं का क्या कोई अन्त है?
सोमप्रकाश के लड़कों को अगर पता चल गया कि सोमप्रकाश की बेटी अपने हिस्से का रुपया पहले ही पा गई है? ले भी गई है तो?
नए सिरे से एक विस्फोट नहीं होगा क्या?
बेचारे सोमप्रकाश। अब सोच रहे हैं। क्यों यह मकान बनवाया था क्या किराए के मकान में रहकर जिन्दगी काटी नहीं जा सकती थी? तब, मरते वक्त ऐसे जटिल जाल में उलझ कर न मरते। बुलावा आते ही मुक्त-चित्त निकल पड़ते।
अचानक याद आया, बचपन में एक वैष्णवी, पहले जिस मोहल्ले में रहते थे, वहाँ भीख माँगते समय गाती थी-'ये कलेवर, यह तो दूसरे का घर है, किराया देकर रहते हो किराए के घर में। जब समय होगा, समन जारी होगा, उठ जाना होगा तुमको मन रे।'
याद आने पर मन ही मन हँसे-इस गाने की एक लाइन बदल डालनी है-इस युग में 'समन' 'नोटिस' किसी का भी जोरदार असर नहीं है। 'नोटिस' मिलते ही किराए का मकान छोड़कर जाना पड़ेगा, ऐसा कानून नहीं है। अतएव अगर उसी बुद्धि के अनुसार रहे होते सोमप्रकाश तो पुत्र-पौत्रादि सभी रह लेते।
आहा, कितना अच्छा होता तब। सोचने लगे सोमप्रकाश। तब फिर उनके दोनों लड़कों के चले जाने को लोग नीचता नहीं समझते न ही कोई सोमप्रकाश को करुणा जताने आते। वे लोग सोचते 'गृहस्थी बढ़ रही है, जगह छोटी पड़ रही है-चले तो जाना ही पड़ेगा। और फिर जब चले जाने लायक संस्थान है।'
और मकान न बनाया होता, किराए के मकान में पड़े रहते तो लड़की आकर इतनी निर्लज्जता से अपना लोभ प्रकट कर सकती क्या? उसके मन में लोभ का जन्म ही न होता क्योंकि प्रत्याशा ही न रहती। यह सब हुआ है मकान बनाने की वजह से।
अब और कितनी निर्लज्जता और नीचता देखना पड़ेगा सोमप्रकाश को कौन जाने।
ओफ! क्या भूल हो गई थी तब उनसे।
'एक निजी मकान 'सिर छिपाने का एक आश्रय' 'सपना' 'साधना' 'सार्थकता' कितने काव्यिक नाम लोग देते हैं? आज भी यही हो रहा है-लोग नाम दे रहे हैं...जबकि...बाद में सब 'जंजाल' लगने लगता है। 'बोझ' मालूम होता है। लोभ, नीचता, क्षुद्रता और निर्लज्जता का जनक जान पड़ता है।

कभी जो सोमप्रकाश इस मामूली से मकान को महल सोचकर खुश होते थे, देवता जानकर चाहते थे, पूजा करते थे, आज वही सोमप्रकाश...
सोचते हुए अचानक उठकर सुकुमारी के पास चले आए। बोल उठे-'अच्छा! अगर यह मकान न बनवाया होता तो इतने झंझट न होते-है न?'
सुकुमारी मन ही मन डरी। लोग जो कहते हैं वही होने जा रहा है क्या? फिर भी कठिनाई से हँसकर बोलीं-'वाह! तो फिर रहते कहाँ?'
'क्यों? किराए के मकान में रहा नहीं जा सकता है क्या?'
'वह क्या मन-माफिक होता?'
'मन माफिक?' सोमप्रकाश बोले-'जिन्दगी में कौन सी बात मन माफिक होती है? माँ-बाप, भाई-बहन, पत्नी, परिवार, परिवेश, लड़के, लड़की? अरे बाबा, अपना चेहरा ही क्या मन के माफिक होता है? जिसे लेकर ताउम्र लोक समाज में घूमना पड़ता है।'
डर छिपाते हुए सुकुमारी सावधानी से बोलीं-'अगर ऐसा सोचते हो तो यही एक चीज है जो मन माफिक हो सकती है। अपने प्लॉन के मुताबिक अपना मकान।'
सोमप्रकाश सुकुमारी की ओर देखते हुए बोले-'घर बेच देने से तुम्हारा मन बहुत दुःख -है न?'
'अरे, वह बात तो बीत चुकी है। अब वह बात क्यों कर रहे हो? अभी चलो सलाह करें। यह बताओ कि किस केटरार को कहोगे? उन्हें, जो ओमू की शादी में थे या जो बाबूसोना की खीर चटाई के समय...'
सोमप्रकाश ने पूछा-'केटरार? इतना बड़ा आयोजन करना चाहती हो?' 
'वाह! बताया तो था उस दिन।'
'देखो, बाहरी लोग ढेर सारे इकट्ठा करने पर क्या सचमुच की खुशी हासिल हो पाती है?'
'और ज्यादा लोग न हुए तो पता कैसे चलेगा कि धूमधाम है? नहीं-नहीं, जैसा कहा है वैसा ही होगा। खाने का मेनू क्या होगा? सुबह शाम रात-तीन वक्त का...'
'इतना कुछ तय करने से पहले अपने बहू-बेटों की राय तो जान लो-आयेंगे कि नहीं आयेंगे।'
सुकुमारी हँसते हुए बोलीं-'वह मैंने पता कर लिया है। बड़ी बहूमाँ ने खुद ही उस दिन फोन पर बातों-ही-बातों में कहा-'घर छोड़ने से पहले सब कोई मिलकर एक दिन वहाँ बिता आना अच्छा रहेगा।' इसी वजह से तो मेरी हिम्मत हुई। खैर, ये बताओ मैजिशियन का इन्तजाम हो जायेगा न? मेरी बड़ी इच्छा है।'
अतएव सोमप्रकाश ने उसका इन्तजाम करेंगे कहकर भरोसा दिलाया। जाकर कहने की शक्ति तो है नहीं-सब फोन पर।
और सफल भी हो गये। जब सुकुमारी को बताने लगे-'तुम शायद पी.सी. सरकार जूनियर की आशा नहीं करती हो पर यह भी ऐमेचर है। दो लड़के दोस्त एक साथ मिलकर मैजिक दिखाया करते हैं-बिना पैसे के-सिर्फ 'नाम' करने के लिए। मैंने इनसे तय कर लिया है-दोपहर को तीन बजे आयेंगे।'
ठीक उसी वक्त फोन की घंटी झनझना उठी।
'हैलो।'
'ओः, माँ? मैं रूबी बोल रही हूँ-आपके यहाँ जाकर 'डे स्पेन्ड' वाले प्रोग्राम की तारीख क्या है?'
'अरे, उस दिन बताया नहीं था? अगले बारह तारीख को किसी बात की छुट्टी है न-शायद हजरत का जन्मदिन है...सब को सुविधा होगी...'
'वह तो ठीक है पर किंग का जाना न हो सकेगा।'
'क्या? क्या कहा छोटी बहूमाँ? असली आदमी का आना न हो सकेगा?' 
'अब क्या करें बताइए? अचानक पता चला उसी दिन स्कूल का स्पोर्टस है।' 
'स्कूल का काम-छुट्टी के दिन?'
'कुछ कहिए नहीं-यह व्यवस्था मालिकों की है...'
'सो होने दो। स्पोर्टस ही तो है, परीक्षा तो नहीं है? उसे छोड़ दो।'
'ऐसा कैसे हो सकता है?' न झुकने वाली आवाज़।
'ओ छोटी बहूमाँ। सबसे कह दिया गया है। सारी तैयारी भी हो चुकी है इधर। केवल बाबूसोना के लिए ही मैजिक की व्यवस्था...'
'अब क्या कर सकती हूँ? पहले से पता नहीं था, अचानक ही तय हुआ है...'
'छोटी बहूमाँ। स्पोर्टस माने तो खेलकूद? उसमें न गया तो कुछ नहीं होगा। घर पर उस दिन कितना कुछ होगा हल्ला-गुल्ला...'
ऐसा कहने से क्या होगा? आपके और लोग तो आयेंगे। हम दोनों उसे स्कूल छोड़कर एक बार आपके यहाँ चक्कर लगा आयेंगे। हमारे घरवालों को भी तो बुलाया है, पता चला। माँ जायेंगी। हम भी डिनर के वक्त ठीक जा पहुँचेंगे आपके पोते के साथ। हालाँकि सारे दिन में इतना टायर्ड हुआ रहेगा...ही ही...कहीं जाते जाते मोटर में सो न जाए।'
'ओ माँ, मेरा क्या होगा? ओ छोटी बहूमाँ...दुहाई है। इस बार के लिए खेलकूद में शामिल न होगा तो कोई हज नहीं होगा-तुम मेरे इस इच्छा में बाधा मत डालो। इतनी आशा पर राख मत डालो। उस दिन उसे छुट्टी दिला दो।'

'ओ हो, ताज्जुब है। ऐसी एब्सर्ड बातें करती हैं आप। जो असम्भव है उसी को लेकर...रखती हूँ।'

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