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राग दरबारी (सजिल्द)

श्रीलाल शुक्ल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2019
पृष्ठ :335
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6381
आईएसबीएन :9788126713882

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राग दरबारी एक ऐसा उपन्यास है जो गाँव की कथा के माध्यम से आधुनिक भारतीय जीवन की मूल्यहीनता को सहजता और निर्ममता से अनावृत करता है।....


तब तक लंगड़ दरवाजे पर आ गया। शास्त्रों में शूद्रों के लिए जिस आचरण का विधान है, उसके अनुसार चौखट पर मुर्गी बनकर उसने वैद्यजी को प्रणाम किया। इससे प्रकट हुआ कि हमारे यहाँ आज भी शास्त्र सर्वोपरि है और जाति-प्रथा मिटाने की सारी कोशिशें अगर फ़रेब नहीं हैं तो रोमाण्टिक कार्रवाइयाँ हैं। लंगड़ ने भीख-जैसी माँगते हुए कहा, “तो जाता हूँ बापू !"

वैद्यजी ने कहा, “जाओ भाई, तुम धर्म की लड़ाई लड़ रहे हो, लड़ते जाओ। उसमें मैं क्या सहायता कर सकता हूँ !"

लंगड़ ने स्वाभाविक ढंग से कहा, “ठीक ही है बापू ! ऐसी लड़ाई में तुम क्या करोगे ? जब कोई सिफ़ारिश-विफ़ारिश की बात होगी, तब आकर तुम्हारी चौखट पर सिर रगड़ूँगा।"

जमीन तक झुककर उसने उन्हें फिर से प्रणाम किया और एक पैर पर लाठी के सहारे झूलता हुआ चला गया। वैद्यजी जोर से हँसे। बोले, “इसकी भी बुद्धि बालकों की-सी है।"

वे बहुत कम हँसते थे। रंगनाथ ने चौंककर देखा, हँसते ही वैद्यजी का चेहरा मुलायम हो गया, नेतागीरी की जगह भलमनसाहत ने ले ली। एक आचारवान् महापुरुप की जगह वे बदचलन-जैसे दिखने लगे।

रंगनाथ ने पूछा, “यह लड़ाई कैसी लड़ रहा है ?"

प्रिंसिपल साहब सामने फैली हुई फ़ाइलें और चेक-बुकें, जिनकी आड़ में वे कभी-कभी यहाँ सबेरे-सबेरे भंग पीने के लिए आते थे, समेटने लगे थे। हाथ रोककर वोले, “इसे तहसील से एक दस्तावेज की नकल लेनी है। इसने क़सम खायी है कि मैं रिश्वत न दूंगा और क़ायदे से ही नक़ल लूँगा, उधर नक़ल बाबू ने कसम खाई है कि मैं रिश्वत न लूंगा और क़ायदे से ही नक़ल दूंगा। इसी की लड़ाई चल रही है।"

रंगनाथ ने इतिहास में एम. ए. किया था और न जाने कितनी लड़ाइयों के कारण पढ़े थे। सिकन्दर ने भारत पर क़ब्जा करने के लिए आक्रमण किया था; पुरु ने, उसका क़ब्जा न होने पाए, इसीलिए प्रतिरोध किया था। इसी कारण लड़ाई हुई थी।

अलाउद्दीन ने कहा था कि मैं पद्मिनी को लूँगा, राणा ने कहा कि मैं पद्मिनी को नहीं दूंगा। इसीलिए लड़ाई हुई थी। सभी लड़ाइयों की जड़ में यही बात थी। एक पक्ष कहता था, लूँगा; दूसरा कहता था, नहीं दूंगा। इसी पर लड़ाई होती थी।

पर यहाँ लंगड़ कहता था, धरम से नकल लूँगा। बाबू कहता था, धरम से नक़ल दूंगा। फिर भी लड़ाई चल रही थी।

रंगनाथ ने प्रिंसिपल साहब से इस ऐतिहासिक विपर्यय का मतलब पूछा। उसके जवाब में उन्होंने अबधी में एक कहावत कही, जिसका शाब्दिक अर्थ था : हाथी आते हैं, घोड़े जाते हैं, बेचारे ऊँट गोते खाते हैं। यह कहावत शायद किसी जिन्दा अजायवघर पर कही गई थी, पर रंगनाथ इतना तो समझ ही गया कि इशारा किसी सरकारी दफ्तर की लम्बाई, चौड़ाई और गहराई की ओर है। फिर भी, वह लंगड़ और नक़ल बाबू के बीच चलनेवाले धर्मयुद्ध की डिजाइन नहीं समझ पाया। उसने अपना सवाल और स्पष्ट रूप से प्रिंसिपल साहब के सामने पेश किया।

उनकी ओर से क्लर्क बोला : “ये गँजहों के चोंचले हैं। मुश्किल से समझ में आते हैं।..."

लंगड़ यहाँ से पाँच कोस दूर एक गाँव का रहनेवाला है। बीवी मर चुकी है। लड़कों से यह नाराज है और उन्हें अपने लिए मरा हुआ समझ चुका है। भगत आदमी है। कबीर
और दादू के भजन गाया करता था। गाते-गाते थक गया तो बैठे-ठाले एक दीवानी का मुक़दमा दायर कर बैठा।...

“मुक़दमे के लिए एक पुराने फ़ैसले की नकल चाहिए। उसके लिए पहले तहसील में दरख्वास्त दी थी। दरख्वास्त में कुछ कमी रह गई, इसलिए वह खारिज हो गई। इस पर इसने दूसरी दरख्वास्त दी। कुछ दिन हुए, यह तहसील में नक़ल लेने गया।

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