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राग दरबारी (सजिल्द)

श्रीलाल शुक्ल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2019
पृष्ठ :335
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6381
आईएसबीएन :9788126713882

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राग दरबारी एक ऐसा उपन्यास है जो गाँव की कथा के माध्यम से आधुनिक भारतीय जीवन की मूल्यहीनता को सहजता और निर्ममता से अनावृत करता है।....


रंगनाथ रुप्पन बाबू से डेढ़ साल बाद मिल रहा था। रुप्पन बाबू की गम्भीरता को दिन-भर की सबसे दिलचस्प घटना मानते हुए रंगनाथ ने कहा, "मैं तो मारपीट पर उतर आया था, बाद में कुछ सोचकर रुक गया।"

रुप्पन बाबू ने मारपीट के विशेषज्ञ की हैसियत से हाथ उठाकर कहा, “तुमने ठीक ही किया। ऐसे ही झगड़ों से इश्टूडेण्ट कमूनिटी बदनाम होती है।"

रंगनाथ ने अब उन्हें ध्यान से देखा। कन्धे पर टिकी हुई धोती का छोर, ताजा खाया हुआ पान, बालों में पड़ा हुआ कई लीटर तेल-स्थानीय गुण्डागिरी के किसी भी
स्टैण्डर्ड से वे होनहार लग रहे थे। रंगनाथ ने बात बदलने की कोशिश की। पूछा, “बद्री दादा कहाँ हैं ? दिखे नहीं।"

सनीचर ने अपने अण्डरवियर को झाड़ना शुरू किया, जैसे कुछ चींटियों को बेदखल करना चाहता हो। साथ ही भौंहें सिकोड़कर बोला, “मुझे भी बद्री भैया याद आ रहे हैं। वे होते तो अब तक... !"

"बद्री दादा हैं कहाँ ?' रंगनाथ ने उधर ध्यान न देकर रुप्पन बाबू से पूछा। रुप्पन बाबू वेरुखी से बोले, “सनीचर बता तो रहा है। मुझसे पूछकर तो गए नहीं हैं। कहीं गए हैं। बाहर गए होंगे। आ जाएँगे। कल, परसों, अतरसों तक आ ही जाएँगे।"

उनकी बात से पता चलना मुश्किल था कि बद्री उनके सगे भाई हैं और उनके साथ एक ही घर में रहते हैं। रंगनाथ ने जोर से साँस खींची।

सनीचर ने फ़र्श पर वैठे-बैठे अपनी टाँगें फैला दीं। जिस्म के जिस हिस्से से बायीं टाँग निकलती है, वहाँ उसने खाल का एक टुकड़ा चुटकी में दबा लिया। दबाते ही उसकी आँखें मूंद गईं और चेहरे पर तृप्ति और सन्तोष का प्रकाश फैल गया। धीरे-धीरे चुटकी मसलते हुए उसने भेड़िये की तरह मुँह फैलाकर जम्हाई ली। फिर ऊँघती हुई आवाज में कहा, “रंगनाथ भैया शहर से आए हैं। उन्हें मैं कुछ नहीं कह सकता। पर कोई किसी गँजहा से दो रुपये तो क्या, दो कौड़ी भी ऐंठ ले तो जानें।"

'गँजहा' शब्द रंगनाथ के लिए नया नहीं था। यह एक तकनीकी शब्द था जिसे शिवपालगंज के रहनेवाले अपने लिए सम्मानसूचक पद की तरह इस्तेमाल करते थे। आसपास के गाँवों में भी बहुत-से शान्ति के पुजारी मौक़ा पड़ने पर धीरे-से कहते थे, "तुम इसके मुँह न लगो। तुम जानते नहीं हो, यह साला गँजहा है।"

फ़र्श पर वहीं एक चौदह-पन्द्रह साल का लड़का भी बैठा था। देखते ही लगता था, वह शिक्षा-प्रसार के चकमे में नहीं आया है। सनीचर की बात सुनकर उसने बड़े आत्मविश्वास से कहा, “शहराती लड़के बड़े सीधे होते हैं। कोई मुझसे रुपिया माँगकर देखता तो...।"

कहकर उसने हाथ को एक दायरे के भीतर हवा में घुमाना शुरू कर दिया। लगा किसी लॉरी में एक लम्बा हैंडिल डालकर वह उसे बड़ी मेहनत से स्टार्ट करने जा रहा है। लोग हँसने लगे, पर रुप्पन बाबू गम्भीर बने रहे। उन्होंने रंगनाथ से पूछा, "तो तुमने ड्राइवर को रुपये अपनी मर्जी से दिए थे या उसने धमकाकर छीन लिये थे ?"

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