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तोड़ो, कारा तोड़ो - 5

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :380
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6372
आईएसबीएन :978-81-89859-73

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तोड़ो, कारा तोड़ो का पाँचवां खण्ड है ‘संदेश’। स्वामी विवेकानन्द जो संदेश सारे संसार को देना चाहते थे, वह इस खण्ड में घनीभूत रूप में चित्रित हुआ है....



‘‘तो अभी कुछ भी नहीं हुआ है। जब होगा तो देखेंगे।’’ उन्होंने अपने पति को एक प्रकार का आदेश किया, ‘‘जाने ओली बुल के मन में कुछ है भी या नहीं। तुम तो अकारण ही उत्पात् करने लगते हो।’’
‘‘मैं जानता हूँ कि तुम मेरी बात नहीं मानोगी; किंतु फिर भी कहना चाहता हूँ कि तुम अपनी पुत्री के लिए एक लंबे वैधव्यपूर्ण जीवन की तैयारी कर रही हो।’’ थॉर्प बोले, ‘‘कितने वर्ष जीएगा वह बुड्ढा और दस वर्ष ? उसके पश्चात् ?’’
‘‘विवाह हुआ नहीं और तुम वैधव्य की बात भी करने लगे।’’ श्रीमती थॉर्प ने उन्हें वक्र दृष्टि से देखा, ‘और एक पति के मरने के पश्चात् दूसरा विवाह नहीं होता क्या ?’’
किंतु जोजस थॉर्प चुप नहीं हुए, ‘‘यदि सेरा अपनी भावुकता में बह गई है तो वह मैं फिर भी समझ सकता हूँ; किंतु तुम्हारी इसमें इतनी रुचि क्यों है, यह मैं समझ नहीं पाता।’’
‘‘तुम्हारी समझ में कभी कुछ आया भी है।’’ श्रीमती थॉर्प ने घुड़का, ‘‘कुछ कर नहीं सकते तो चुप रहना सीखो।’’
थॉर्प पत्नी के सम्मुख तो चुप रह गए; किंतु अवसर मिलते ही पुत्री से बोले, ‘‘तुम समझती भी हो कि तुम क्या कर रही हो ? नहीं समझती हो तुम। पुरुष का साठ वर्ष का शरीर बीस वर्ष की किशोरी को कोई शारीरिक सुख नहीं दे सकता; और शारीरिक सुख के बिना दांपत्य जीवन...ओह मेरे भगवान.....’’
संकुचित सेरा अपने पिता को देखती रह गई।

‘‘मेरी बात को समझने का प्रयत्न करो, मेरी बच्ची !’’  वे बोले, ‘‘तुम्हारी माँ सदा यशस्वी लोगों के संपर्क से स्वयं को गौरवान्वित करने का प्रयत्न करती रही है; किंतु  यह एक माया-जाल है। इसमें कोई सुख नहीं है। मैं नहीं चाहता कि तुम इस प्रकार के किसी भ्रम में अपना जीवन नष्ट करो। तुम जिस परिवार से हो और जैसी सुंदर और समझदार लड़की तुम हो, तुम्हें अपना समवयस्क अच्छे से अच्छा लड़का मिल सकता है। जिसे चाहो, उसे अपनी उँगली के एक संकेत से अपने चरणों पर गिरा सकती हो।’’



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