बहुभागीय पुस्तकें >> तोड़ो, कारा तोड़ो - 5 तोड़ो, कारा तोड़ो - 5नरेन्द्र कोहली
|
8 पाठकों को प्रिय 19 पाठक हैं |
तोड़ो, कारा तोड़ो का पाँचवां खण्ड है ‘संदेश’। स्वामी विवेकानन्द जो संदेश सारे संसार को देना चाहते थे, वह इस खण्ड में घनीभूत रूप में चित्रित हुआ है....
इस पुस्तक का सेट खरीदें।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
पिछले दस वर्षों में लोकप्रियता के नए कीर्तिमान स्थापित करने वाली रचना
तोड़ो, कारा तोड़ो नरेन्द्र कोहली की नवीनतम उपन्यास-श्रृंखला है। यह
शीर्षक रवीन्द्रनाथ ठाकुर के गीत की एक पंक्ति का अनुवाद है; किंतु
उपन्यास का संबंध स्वामी विवेकानन्द की जीवनकथा से है। स्वामी विवेकानन्द
का जीवन बंधनों तथा सीमाओं के अतिक्रमण के लिए सार्थक संघर्ष थाः बंधन
चाहे प्रकृति के हों, समाज के हों, राजनीति के हों, धर्म के हों, अध्यात्म
के हों। नरेन्द्र कोहली के ही शब्दों में, ‘‘स्वामी
विवेकानन्द के व्यक्तित्व का आकर्षण...आकर्षण नहीं, जादू....जादू जो सिर
चढ़कर बोलता है। कोई संवेदनशील व्यक्ति उनके निकट जाकर सम्मोहित हुए बिना
नहीं रह सकता।...और युवा मन तो उत्साह से पागल ही हो जाता है। कौन-सा गुण
था, जो स्वामी जी में नहीं था। मानव के चरम विकास की साक्षात् मूर्ति थे
वे। भारत की आत्मा...और वे एकाकार हो गये थे। उन्हें किसी एक युग, प्रदेश,
संप्रदाय अथवा संगठन के साथ बाँध देना अज्ञान भी है और अन्याय
भी।’’ ऐसे स्वामी विवेकानन्द के साथ तादात्म्य किया है
नरेन्द्र कोहली ने। उनका यह उपन्यास ऐसा ही तादात्म्य करा देता है, पाठक
का उस विभूति से।
इस बृहत् उपन्यास का पहला खंड ‘निर्माण’ स्वामी जी के व्यक्तित्व के निर्माण के विभिन्न आयामों तथा चरणों की कथा कहता है। इसका क्षेत्र उनके जन्म से लेकर श्री रामकृष्ण परमहंस तथा जगन्माता भवतारिणी के सम्मुख निर्द्वंद्व आत्मसमर्पण तक की घटनाओं पर आधृत है।
दूसरा खंड ‘साधना’ में अपने गुरु के चरणों में बैठकर की गयी साधना और गुरु के देह-त्याग के पश्चात् उनके आदेशानुसार, अपने गुरुभाइयों को एक मठ में संगठित करने की कथा है।
तीसरे खंड ‘परिव्राजक’ में उनके एक अज्ञात संन्यासी के रूप में, कलकत्ता से द्वारका तक के भ्रमण की कथा है।
चौथे खंड ‘निर्देश’ में द्वारका में सागर-तट पर बैठकर स्वामी विवेकानन्द ने भारत-माता की दुर्दशा पर अश्रु बहाए थे। वे एक नया संकल्प लेकर उठे और विभिन्न देशी राज्यों और रजवाड़ों में होते हुए वे कन्याकुमारी पहुँचे, जहाँ उन्होंने अपनी तीन दिनों की समाधि में जगदंबा और भारत माता के दर्शन एक साथ किए।
तत्पश्चात् वे मद्रास पहुँचे। मद्रास में नवयुवकों के एक संगठित दल ने उन्हें शिकागो में होने वाली धर्म संसद में भेजने का निश्चय किया और उसके लिए तैयारी आरंभ कर दी।
पाँचवां खंड है ‘संदेश’। स्वामी विवेकानन्द जो संदेश सारे संसार को देना चाहते थे, वह इस खंड में घनीभूत रूप से चित्रित हुआ है।
इस खंड में चित्रित घटनाएँ 1894 ई. के अंत से आरंभ होकर प्रायः 1895 ईं. के अंत तक चलती हैं। ये सारी घटनाएँ अमरीका की हैं और उनमें स्वामी के आसपास के सारे पात्र भी अमरीकी ही हैं।
इस काल में स्वामी एक भारतीय संन्यासी के रूप में अपने अमरीकी शिष्यों को न केवल बिना कोई शुल्क लिए भारतीय पद्धति से अध्यात्म पढ़ा और सिखा रहे थे, वरन् अमरीका में वेदांत का काम खड़ा करने के लिए अमरीकी संन्यासी भी तैयार कर रहे थे।
शिकागो की धर्मसंसद के पश्चात् स्वामी के गुरुभाई और भारतीय शिष्य चाहते थे कि स्वामी भारत लौट आएँ, किंतु वे नहीं जानते थे कि स्वामी अमरीका में अपने कार्य को आरंभ करने के लिए कितने व्याकुल थे। वे उसकी नींव डाले बिना अमरीका छोड़ना नहीं चाहते थे।
इस खंड की कथा स्वामी के निकटतम अमरीकी मित्रों के जीवन का परिचय देते हुए आरंभ होती है। श्रीमती सेरा बोली बुल, जोसोफीन मैलाऊड, फ्रांसिस लेगेट, साराह फार्मर, ल्योन लैंडस्बर्ग, मिस वाल्डो, क्रिस्टिन ग्रीनस्टिडल था श्रीमती फंकी इत्यादि अनेक पात्र स्वामी के साथ मिलकर इसी कालखंड में वेदांत का कार्य कर रहे थे।
ग्रीनेकर रिलीजस कांफ्रेंस, टेंडरलोयन की 33वीं वीथि में स्वामी की कक्षाएँ तथा सहस्रद्वीपोद्यान में वेदांत का शिक्षण—ये महत्त्वपूर्ण घटनाएँ, जिनसे हिंदी के पाठक का बहुत कम परिचय है, तोड़ो, कारा तोड़ो के इसी खंड में आपको जीवंत रूप में चित्रित मिलेंगी। इसे हम अमरीका में स्वामी का अपने बल और संकल्प के भरोसे किया गया आध्यात्मिक युद्ध भी कह सकते हैं।
नरेन्द्र कोहली ने अपने नायक को उनकी परंपरा तथा उनके परिवेश से पृथक कर नहीं देखा। स्वामी विवेकानन्द ऐसे नायक हैं भी नहीं, जिन्हें अपने परिवेश से अलग-थलग किया जा सके। वे तो जैसे महासागर के किसी असाधारण ज्वार के उद्दामतम चरम अंश थे। तोड़ो, कारा तोड़ो उस ज्वार को पूर्ण रुप से जीवंत करने का औपन्यासिक प्रयत्न है, जो स्वामी जी को उनके पूर्वापर के मध्य रखकर ही देखना चाहता है। अतः इस उपन्यास के लिए न श्री रामकृष्ण पराए हैं, न स्वामीजी के सहयोगी, गुरुभाई और न ही उनकी शिष्य-परंपरा की प्रतीक भगिनी निवेदिता।
इस बृहत् उपन्यास का पहला खंड ‘निर्माण’ स्वामी जी के व्यक्तित्व के निर्माण के विभिन्न आयामों तथा चरणों की कथा कहता है। इसका क्षेत्र उनके जन्म से लेकर श्री रामकृष्ण परमहंस तथा जगन्माता भवतारिणी के सम्मुख निर्द्वंद्व आत्मसमर्पण तक की घटनाओं पर आधृत है।
दूसरा खंड ‘साधना’ में अपने गुरु के चरणों में बैठकर की गयी साधना और गुरु के देह-त्याग के पश्चात् उनके आदेशानुसार, अपने गुरुभाइयों को एक मठ में संगठित करने की कथा है।
तीसरे खंड ‘परिव्राजक’ में उनके एक अज्ञात संन्यासी के रूप में, कलकत्ता से द्वारका तक के भ्रमण की कथा है।
चौथे खंड ‘निर्देश’ में द्वारका में सागर-तट पर बैठकर स्वामी विवेकानन्द ने भारत-माता की दुर्दशा पर अश्रु बहाए थे। वे एक नया संकल्प लेकर उठे और विभिन्न देशी राज्यों और रजवाड़ों में होते हुए वे कन्याकुमारी पहुँचे, जहाँ उन्होंने अपनी तीन दिनों की समाधि में जगदंबा और भारत माता के दर्शन एक साथ किए।
तत्पश्चात् वे मद्रास पहुँचे। मद्रास में नवयुवकों के एक संगठित दल ने उन्हें शिकागो में होने वाली धर्म संसद में भेजने का निश्चय किया और उसके लिए तैयारी आरंभ कर दी।
पाँचवां खंड है ‘संदेश’। स्वामी विवेकानन्द जो संदेश सारे संसार को देना चाहते थे, वह इस खंड में घनीभूत रूप से चित्रित हुआ है।
इस खंड में चित्रित घटनाएँ 1894 ई. के अंत से आरंभ होकर प्रायः 1895 ईं. के अंत तक चलती हैं। ये सारी घटनाएँ अमरीका की हैं और उनमें स्वामी के आसपास के सारे पात्र भी अमरीकी ही हैं।
इस काल में स्वामी एक भारतीय संन्यासी के रूप में अपने अमरीकी शिष्यों को न केवल बिना कोई शुल्क लिए भारतीय पद्धति से अध्यात्म पढ़ा और सिखा रहे थे, वरन् अमरीका में वेदांत का काम खड़ा करने के लिए अमरीकी संन्यासी भी तैयार कर रहे थे।
शिकागो की धर्मसंसद के पश्चात् स्वामी के गुरुभाई और भारतीय शिष्य चाहते थे कि स्वामी भारत लौट आएँ, किंतु वे नहीं जानते थे कि स्वामी अमरीका में अपने कार्य को आरंभ करने के लिए कितने व्याकुल थे। वे उसकी नींव डाले बिना अमरीका छोड़ना नहीं चाहते थे।
इस खंड की कथा स्वामी के निकटतम अमरीकी मित्रों के जीवन का परिचय देते हुए आरंभ होती है। श्रीमती सेरा बोली बुल, जोसोफीन मैलाऊड, फ्रांसिस लेगेट, साराह फार्मर, ल्योन लैंडस्बर्ग, मिस वाल्डो, क्रिस्टिन ग्रीनस्टिडल था श्रीमती फंकी इत्यादि अनेक पात्र स्वामी के साथ मिलकर इसी कालखंड में वेदांत का कार्य कर रहे थे।
ग्रीनेकर रिलीजस कांफ्रेंस, टेंडरलोयन की 33वीं वीथि में स्वामी की कक्षाएँ तथा सहस्रद्वीपोद्यान में वेदांत का शिक्षण—ये महत्त्वपूर्ण घटनाएँ, जिनसे हिंदी के पाठक का बहुत कम परिचय है, तोड़ो, कारा तोड़ो के इसी खंड में आपको जीवंत रूप में चित्रित मिलेंगी। इसे हम अमरीका में स्वामी का अपने बल और संकल्प के भरोसे किया गया आध्यात्मिक युद्ध भी कह सकते हैं।
नरेन्द्र कोहली ने अपने नायक को उनकी परंपरा तथा उनके परिवेश से पृथक कर नहीं देखा। स्वामी विवेकानन्द ऐसे नायक हैं भी नहीं, जिन्हें अपने परिवेश से अलग-थलग किया जा सके। वे तो जैसे महासागर के किसी असाधारण ज्वार के उद्दामतम चरम अंश थे। तोड़ो, कारा तोड़ो उस ज्वार को पूर्ण रुप से जीवंत करने का औपन्यासिक प्रयत्न है, जो स्वामी जी को उनके पूर्वापर के मध्य रखकर ही देखना चाहता है। अतः इस उपन्यास के लिए न श्री रामकृष्ण पराए हैं, न स्वामीजी के सहयोगी, गुरुभाई और न ही उनकी शिष्य-परंपरा की प्रतीक भगिनी निवेदिता।
संदेश
सत्रह वर्षों की सेरा थॉर्प, अपनी माँ के साथ ओली बुल के कंसर्ट में आई
थी।
सत्तावन वर्ष के ओली बुल नार्वे के प्रसिद्ध वायलनवादक थे। उनका नाम बहुत सुना था सेरा ने; किंतु पहले कभी न देखा था और न ही उनका वायलनवादन सुना था। यह पहला ही अवसर था कि वह उन्हें अपने सामने मंच पर वायलन बजाते देख और सुन रही थी।....किशोरी सेरा, अपने विषय में जानती थी कि वह पर्याप्त भावुक थी। संगीत से प्रेम करती थी। संगीत सुनते ही जाने उसे क्या हो जाता था। वह उसकी लहरियों पर बैठ किसी आलौकिक संसार में जा पहुँचती थी। न जाने वे कौन से अनजाने लोक थे, जहाँ सात्त्विकता ही सात्त्विकता थी, मलिनता का कहीं नाम भी नहीं था। पृथ्वी से भिन्न, वे स्वप्नलोक, जैसे उसका अपना घर था। अपना घर, जहाँ उसकी आत्मा प्रसन्नतापूर्वक विश्राम कर सकती थी। उसकी आत्मा को अपना प्रिय परिवेश मिलता था। प्रतिकूलता का ताप जैसे वहाँ था ही नहीं।.....
वह अपने विषय में और भी बहुत कुछ जानती थी। उसने अपनी माँ के मुख से सुना था कि उद्विग्नता उसके स्वभाव का एक अंग थी। वह जानती थी कि वह एक आदर्शवादी और संवेदनशील लड़की थी। मलिन व्यवहार देखकर वह असंतुष्ट हो जाती थी.....यथार्थ का लेशमात्र उसकी नींद उड़ा देता था। यह उद्विग्नता कदाचित् उसकी संवेदनशीलता के ही कारण थी।....उसके पिता कहा करते थे कि वह काले बालों वाली, गंभीर ही नहीं, कुछ अवसन्न प्रकृति की सुंदर लड़की थी और अपनी माँ की नीति के कारण अपने समवयस्क युवाओं के अस्तित्व से सर्वथा अनभिज्ञ थी।....किंतु वह जानती थी कि वह युवाओं से अनभिज्ञ नहीं, असंतुष्ट थी। उनका लालसामय संसार उसे कभी भी आकर्षक नहीं लगा था।
आज ओली बुल का वायलन सुनकर उसका मन कैसा तो हो रहा था, जैसे उसे अपना-सा जीवन मिल गया हो। उसे लग रहा था कि वह अपने स्वप्नलोक में पहुँच गई है; और वह यहाँ से वापस उस पुरानी पृथ्वी पर लौटना नहीं चाहती। उसकी एकमात्र इच्छा थी कि यहीं उसका स्थायी घर बस जाय।.....घर !
ऐसा घर, जिसमें उसकी कल्पना अपने पंख पसारकर अपना संसार बसा सके। उसका मन अपनी पूर्णता पा सके। जिसमें किसी का कोई हस्तक्षेप न हो। किसी की कोई योजना न हो। किसी के मलिन हाथ उस ओर न बढ़ें। उसमें किसी और की कल्पना का प्रवेश तक न हो। वह उसका हो, उसका अपना, निजी और आत्मीय....आत्मा का अंग....सारा का सारा।....
वहीं उसने यह निश्चय किया था कि एक दिन वह ओली बुल की पत्नी बनेगी।
उसके पिता ऑनरेबल जोसफ जी. थॉर्प, एक धनाढ्य काष्ठ-व्यापारी-लंबरमैन—ही नहीं, अपने नगर ‘मेडिसन’ के स्टेट सेनेटर भी थे। उस समय उनका भवन, राजसी प्रासाद माना जाता था—‘मेडिसन’ का सर्वश्रेष्ठ भवन। ‘यैंकी हिल’ का यह विशाल भवन नगर के सामाजिक जीवन का सर्वस्वीकृत केंद्र था। वहाँ साहित्य, नाट्य, संगीत, दर्शन, अध्यात्म तथा ऐसे क्षेत्रों से संबंधित होने वाले सम्मेलनों तथा विराट भोजों के निमंत्रणों की, नगर में बड़ी माँग थी।.....किंतु सेरा को अपने पिता का वह राज-प्रसाद नहीं, अपने सपनों का वायवीय भवन चाहिए था। स्थूलता से भय लगता था उसे।....
उसके घर में होने वाली गतिविधियों के केंद्र में पिता नहीं, उसकी माता थीं श्रीमती थॉर्प। वे लौह संकल्प की सुदृढ़ महिला थीं। वे ही नगर के सामाजिक जीवन की धुरी थीं। स्वभावतः थॉर्प परिवार नगर में आने-वाले कीर्तिवान लोगों को अपने यहाँ निमंत्रित कर उनका सत्कार करता ही रहता था।
उस कंसर्ट के तीन वर्षों के पाश्चात् ऐसे ही एक समारोह में, बीस वर्षीय सेरा की भेंट, साठ वर्षीय विधुर ओली बुल से हुई....सेरा ने अपने मन को टटोला...उसका मन आज भी दृढ़तापूर्वक वहीं जमा बैठा था, जहाँ वह पहली बार कंसर्ट में वायलन सुनते हुए पहुँच गया था। उस दिन उसने अपने स्वप्नलोक में अपना घर बसाया था, जिसमें ओली बुल उसके पति थे। मन आज भी वही चाहता था।....
वह जाकर ओली बुल के सम्मुख खड़ी हो गई।
‘‘तुम बहुत प्यारी हो सेरा।’’ ओली बुल ने कहा।
उनकी आँखों में जैसे उनके मन में उठने वाले असमंजस के झंझावातों की गहरी छाया थी।
सेरा ने बहुत साहस कर कहा, ‘‘और आप भी बहुत अच्छे हैं।’’
दो-दो महाद्वीपों के प्रसिद्ध संगीतकार को बीस वर्षीया उस लड़की का वह छोटा-सा वाक्य संसार भर की प्रशंसा से अधिक मूल्यवान लगा। उनका मन जैसे संसार के सर्वश्रेष्ठ सुगंधित पुष्पों से सुवासित हो उठा था।.....
‘‘हम कहीं बैठ सकते हैं क्या ?’’ ओली बुल ने पूछा।
वे दोनों एक ओर सबसे किनारे में रखे एक मेज़ पर जा बैठे। ओली बुल सजग थे। उनकी अवस्था साठ वर्ष की थी। संभवतः इस लड़की के पिता भी उतनी अवस्था के नहीं होंगे; किंतु वे क्या करते। उनका मन किसी उच्छृंखल मुँह जोर घोड़े के समान अपनी मनमानी करने पर उतारू था। वह उनके नियंत्रण में नहीं था।
सेरा ने उनकी ओर देखा भर। कुछ बोली नहीं। बोलना ओली बुल को ही पड़ा, ‘‘मैं सोचता हूँ, काश तुम कुछ वर्ष पहले संसार में आई होतीं या फिर मेरा जन्म ही कुछ वर्ष रुककर हुआ होता।’’
सेरा ने विस्मय से उनकी ओर देखा, ‘‘उससे क्या स्थितियाँ कुछ और हो जातीं ?’’
‘‘स्थितियाँ ही नहीं, संसार ही कुछ भिन्न होता प्यारी बच्ची।’’
‘‘मुझे तो ऐसा नहीं लगता।’’ सेरा ने कहा, ‘‘तब भी आप वायलन इतना ही अच्छा बजाते और संसार की लालसाएँ तब भी आपको आकर्षित नहीं करती।’’
सत्तावन वर्ष के ओली बुल नार्वे के प्रसिद्ध वायलनवादक थे। उनका नाम बहुत सुना था सेरा ने; किंतु पहले कभी न देखा था और न ही उनका वायलनवादन सुना था। यह पहला ही अवसर था कि वह उन्हें अपने सामने मंच पर वायलन बजाते देख और सुन रही थी।....किशोरी सेरा, अपने विषय में जानती थी कि वह पर्याप्त भावुक थी। संगीत से प्रेम करती थी। संगीत सुनते ही जाने उसे क्या हो जाता था। वह उसकी लहरियों पर बैठ किसी आलौकिक संसार में जा पहुँचती थी। न जाने वे कौन से अनजाने लोक थे, जहाँ सात्त्विकता ही सात्त्विकता थी, मलिनता का कहीं नाम भी नहीं था। पृथ्वी से भिन्न, वे स्वप्नलोक, जैसे उसका अपना घर था। अपना घर, जहाँ उसकी आत्मा प्रसन्नतापूर्वक विश्राम कर सकती थी। उसकी आत्मा को अपना प्रिय परिवेश मिलता था। प्रतिकूलता का ताप जैसे वहाँ था ही नहीं।.....
वह अपने विषय में और भी बहुत कुछ जानती थी। उसने अपनी माँ के मुख से सुना था कि उद्विग्नता उसके स्वभाव का एक अंग थी। वह जानती थी कि वह एक आदर्शवादी और संवेदनशील लड़की थी। मलिन व्यवहार देखकर वह असंतुष्ट हो जाती थी.....यथार्थ का लेशमात्र उसकी नींद उड़ा देता था। यह उद्विग्नता कदाचित् उसकी संवेदनशीलता के ही कारण थी।....उसके पिता कहा करते थे कि वह काले बालों वाली, गंभीर ही नहीं, कुछ अवसन्न प्रकृति की सुंदर लड़की थी और अपनी माँ की नीति के कारण अपने समवयस्क युवाओं के अस्तित्व से सर्वथा अनभिज्ञ थी।....किंतु वह जानती थी कि वह युवाओं से अनभिज्ञ नहीं, असंतुष्ट थी। उनका लालसामय संसार उसे कभी भी आकर्षक नहीं लगा था।
आज ओली बुल का वायलन सुनकर उसका मन कैसा तो हो रहा था, जैसे उसे अपना-सा जीवन मिल गया हो। उसे लग रहा था कि वह अपने स्वप्नलोक में पहुँच गई है; और वह यहाँ से वापस उस पुरानी पृथ्वी पर लौटना नहीं चाहती। उसकी एकमात्र इच्छा थी कि यहीं उसका स्थायी घर बस जाय।.....घर !
ऐसा घर, जिसमें उसकी कल्पना अपने पंख पसारकर अपना संसार बसा सके। उसका मन अपनी पूर्णता पा सके। जिसमें किसी का कोई हस्तक्षेप न हो। किसी की कोई योजना न हो। किसी के मलिन हाथ उस ओर न बढ़ें। उसमें किसी और की कल्पना का प्रवेश तक न हो। वह उसका हो, उसका अपना, निजी और आत्मीय....आत्मा का अंग....सारा का सारा।....
वहीं उसने यह निश्चय किया था कि एक दिन वह ओली बुल की पत्नी बनेगी।
उसके पिता ऑनरेबल जोसफ जी. थॉर्प, एक धनाढ्य काष्ठ-व्यापारी-लंबरमैन—ही नहीं, अपने नगर ‘मेडिसन’ के स्टेट सेनेटर भी थे। उस समय उनका भवन, राजसी प्रासाद माना जाता था—‘मेडिसन’ का सर्वश्रेष्ठ भवन। ‘यैंकी हिल’ का यह विशाल भवन नगर के सामाजिक जीवन का सर्वस्वीकृत केंद्र था। वहाँ साहित्य, नाट्य, संगीत, दर्शन, अध्यात्म तथा ऐसे क्षेत्रों से संबंधित होने वाले सम्मेलनों तथा विराट भोजों के निमंत्रणों की, नगर में बड़ी माँग थी।.....किंतु सेरा को अपने पिता का वह राज-प्रसाद नहीं, अपने सपनों का वायवीय भवन चाहिए था। स्थूलता से भय लगता था उसे।....
उसके घर में होने वाली गतिविधियों के केंद्र में पिता नहीं, उसकी माता थीं श्रीमती थॉर्प। वे लौह संकल्प की सुदृढ़ महिला थीं। वे ही नगर के सामाजिक जीवन की धुरी थीं। स्वभावतः थॉर्प परिवार नगर में आने-वाले कीर्तिवान लोगों को अपने यहाँ निमंत्रित कर उनका सत्कार करता ही रहता था।
उस कंसर्ट के तीन वर्षों के पाश्चात् ऐसे ही एक समारोह में, बीस वर्षीय सेरा की भेंट, साठ वर्षीय विधुर ओली बुल से हुई....सेरा ने अपने मन को टटोला...उसका मन आज भी दृढ़तापूर्वक वहीं जमा बैठा था, जहाँ वह पहली बार कंसर्ट में वायलन सुनते हुए पहुँच गया था। उस दिन उसने अपने स्वप्नलोक में अपना घर बसाया था, जिसमें ओली बुल उसके पति थे। मन आज भी वही चाहता था।....
वह जाकर ओली बुल के सम्मुख खड़ी हो गई।
‘‘तुम बहुत प्यारी हो सेरा।’’ ओली बुल ने कहा।
उनकी आँखों में जैसे उनके मन में उठने वाले असमंजस के झंझावातों की गहरी छाया थी।
सेरा ने बहुत साहस कर कहा, ‘‘और आप भी बहुत अच्छे हैं।’’
दो-दो महाद्वीपों के प्रसिद्ध संगीतकार को बीस वर्षीया उस लड़की का वह छोटा-सा वाक्य संसार भर की प्रशंसा से अधिक मूल्यवान लगा। उनका मन जैसे संसार के सर्वश्रेष्ठ सुगंधित पुष्पों से सुवासित हो उठा था।.....
‘‘हम कहीं बैठ सकते हैं क्या ?’’ ओली बुल ने पूछा।
वे दोनों एक ओर सबसे किनारे में रखे एक मेज़ पर जा बैठे। ओली बुल सजग थे। उनकी अवस्था साठ वर्ष की थी। संभवतः इस लड़की के पिता भी उतनी अवस्था के नहीं होंगे; किंतु वे क्या करते। उनका मन किसी उच्छृंखल मुँह जोर घोड़े के समान अपनी मनमानी करने पर उतारू था। वह उनके नियंत्रण में नहीं था।
सेरा ने उनकी ओर देखा भर। कुछ बोली नहीं। बोलना ओली बुल को ही पड़ा, ‘‘मैं सोचता हूँ, काश तुम कुछ वर्ष पहले संसार में आई होतीं या फिर मेरा जन्म ही कुछ वर्ष रुककर हुआ होता।’’
सेरा ने विस्मय से उनकी ओर देखा, ‘‘उससे क्या स्थितियाँ कुछ और हो जातीं ?’’
‘‘स्थितियाँ ही नहीं, संसार ही कुछ भिन्न होता प्यारी बच्ची।’’
‘‘मुझे तो ऐसा नहीं लगता।’’ सेरा ने कहा, ‘‘तब भी आप वायलन इतना ही अच्छा बजाते और संसार की लालसाएँ तब भी आपको आकर्षित नहीं करती।’’
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book